Sunday, January 31, 2016

तुलसी विवाह कथा

एक लड़की थी जिसका नाम वृंदा था राक्षस कुल में उसका जन्म हुआ था बचपन से ही भगवान विष्णु जी की भक्त थी.बड़े ही प्रेम से भगवान की सेवा,पूजा किया करती थी.जब वे बड़ी हुई तो उनका विवाह राक्षस कुल में दानव राज जलंधर से हो गया,जलंधर समुद्र से उत्पन्न हुआ था.वृंदा बड़ी ही पतिव्रता स्त्री थी सदा अपने पति की सेवा किया करती थी. एक बार देवताओ और दानवों में युद्ध हुआ जब जलंधर युद्ध पर जाने लगे तो वृंदा ने कहा - स्वामी आप युध पर जा रहे है आप जब तक युद्ध में रहेगे में पूजा में बैठकर आपकी जीत के लिये अनुष्ठान करुगी,और जब तक आप वापस नहीं आ जाते में अपना संकल्प नही छोडूगी,जलंधर तो युद्ध में चले गये,और वृंदा व्रत का संकल्प लेकर पूजा में बैठ गयी,उनके व्रत के प्रभाव से देवता भी जलंधर को ना जीत सके सारे देवता जब हारने लगे तो भगवान विष्णु जी के पास गये. सबने भगवान से प्रार्थना की तो भगवान कहने लगे कि – वृंदा मेरी परम भक्त है में उसके साथ छल नहीं कर सकता पर देवता बोले - भगवान दूसरा कोई उपाय भी तो नहीं है अब आप ही हमारी मदद कर सकते है. भगवान ने जलंधर का ही रूप रखा और वृंदा के महल में पँहुच गये जैसे ही वृंदा ने अपने पति को देखा,वे तुरंत पूजा मे से उठ गई और उनके चरणों को छू लिए,जैसे ही उनका संकल्प टूटा,युद्ध में देवताओ ने जलंधर को मार दिया और उसका सिर काटकर अलग कर दिया,उनका सिर वृंदा के महल में गिरा जब वृंदा ने देखा कि मेरे पति का सिर तो कटा पडा है तो फिर ये जो मेरे सामने खड़े है ये कौन है? उन्होंने पूँछा - आप कौन हो जिसका स्पर्श मैने किया,तब भगवान अपने रूप में आ गये पर वे कुछ ना बोल सके,वृंदा सारी बात समझ गई,उन्होंने भगवान को श्राप दे दिया आप पत्थर के हो जाओ,भगवान तुंरत पत्थर के हो गये सभी देवता हाहाकार करने लगे लक्ष्मी जी रोने लगी और प्रार्थना करने लगी जब वृंदा जी ने भगवान को वापस वैसा ही कर दिया और अपने पति का सिर लेकर वे सती हो गयी. उनकी राख से एक पौधा निकला तब भगवान विष्णु जी ने कहा –आज से इनका नाम तुलसी है,और मेरा एक रूप इस पत्थर के रूप में रहेगा जिसे शालिग्राम के नाम से तुलसी जी के साथ ही पूजा जायेगा और मैं बिना तुलसी जी के भोग स्वीकार नहीं करुगा.तब से तुलसी जी की पूजा सभी करने लगे.और तुलसी जी का विवाह शालिग्राम जी के साथ कार्तिक मास में किया जाता है.देवउठनी एकादशी के दिन इसे तुलसी विवाह के रूप में मनाया जाता है l

Tuesday, April 21, 2015

प्रश्न है कि क्या शिव लिंग विहीन हैं

प्रश्न है कि क्या शिव लिंग विहीन हैं ?
उनका लिंग ऋषियों के श्राप के कारण कट कर धरती पर गिरा! यह शिव पुराण में लिखा है और फिर पृथ्वी पर चारों पर आग लग गई, अंत में ऋषियों की प्रार्थना पर माता पार्वती ने इस लिंग को अपनी योनि में धारण कर लिया, तब से इस योनि में समावेशित लिंग पर हिन्दू जल चढ़ाते हैं, अर्चना करते हैं लेकिन प्रश्न के अनुसार क्या शिव का लिंग दुबारा उनके शरीर से जुड़ा? कहीं इसका उल्लेख नहीं है!
और लिंग विहीन व्यक्ति को क्या कहते हैं? मुझे यह लिखने की आवश्यकता नहीं!
उत्तरखंड के जागेश्वर धाम में लिंग कट कर गिरा था, यह इस स्थान की ऐतिहासिकता है तो लिंग जुड़ने का कौन सा स्थान है और क्या किसी पुराण में इसका उल्लेख है?
यदि किसी को जानकारी है तो बताएं?
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अस्तु , अब मुहतोड़ जवाब सुनिए -
१- क्या शिव लिंग विहीन हैं ?
उत्तर => आपके इस बालप्रश्न से ही स्पष्ट है कि आपको "शिव " की कोई जानकारी नहीं कि शिव कहा किसे जाता है ?? क्या किसी शरीरधारी प्राणी को या फिर किसी अप्राकृतिक तत्व को !!! कभी गुरुग्रंथ साहिब के अलावा अपने मूल सनातन धर्म के शास्त्रों का मुख दर्शन भी किया होता तो ये समस्या ना होती |
आपके प्रश्न से स्पष्ट है कि आपको इतना भी नही मालूम कि सनातन धर्म में वर्णित "शिव" किसी सरदार अजमेर सिंह जी की तरह हाड-मांस का भौतिक शरीर नहीं है , जिस पर कि भौतिक शरीर के धर्म जैसे जुड़ जाना , कट जाना अथवा कट कर जुड़ना , ना जुड़ना जैसे गुण-दोष उसमे प्रसक्त होवें |
इसीलिये महाभारत में कहा गया है -
अचिन्त्याः खलु ये भावाः न तांस्तर्केण योजयेत् |
प्रकृतेस्तु परेतत्वमचिन्त्य इत्यभिधीयते ||
इसलिये प्राकृतिक वस्तु में ही प्रकृति के नियमों का आग्रह किया जा सकता है , अप्राकृतिक में नहीं | वैसे भी दार्शनिक दरिद्रता के चलते त्रिगुणातीत विशुद्ध सत्त्व देह को समझना आपके वश की बात नहीं , ये तो हो गयी पहली बात |
दूसरी बात यह है कि - शिव का जो शरीर शास्त्रों में वर्णित है अथवा चित्रों में दर्शाया जाता है , वह किस चीज का बना है ? यह भी समझना आवश्यक है -
गोस्वामी तुलसीदास जी ने बड़े ही सरल शब्दों में भगवान के शरीर का रहस्य स्पष्ट किया है -
चिदानंदमय देह तुम्हारी | विगत विकार जानि अधिकारी ||
अर्थात् भगवान का शरीर चिदानंदमय है और समस्त विकारों से परे है , इसे अधिकारी व्यक्ति ही समझ सकते हैं |
श्री ब्रह्मसंहिता कहती है -
अंगानि यस्य सकलेंद्रियवृत्तिमन्ति ० अर्थात् भगवान के चिन्मय शरीर की प्रत्येक इन्द्रिय, स्वयं में पूर्ण , समान गुण धर्म युक्त एवं चिन्मय है, इसलिए चिन्मयत्वात् उनकी इन्द्रियाँ नित्य हैं |
एक नित्य, अचल वस्तु पर यह युक्तता अथवा विहीनता के प्रश्न खड़े करना ही आपका बौद्धिक स्तर दर्शाता है |
भगवान शिव स्वयं में नित्य पूर्ण हैं, ऐसा स्वयं उसी शास्त्र ने माना है , जिस कथांश से आप यह बालप्रश्न तैयार करके लाये हो |
तत्वतः भगवान सजातीय , विजातीय और स्वगत - इन तीन प्रकार के भेदों से सर्वथा रहित होते हैं | इसलिए तत्वतः उनके शरीर के किसी भी एक अंग का दुसरे अंग से कोई भेद नहीं होता |
जैसे लौकिक उदाहरण से समझाने का प्रयास करो- जैसे अग्नि शिखा से बनने वाली अग्निमय आकृति का अपने में कोई भेद नहीं होता अथवा यदि आप बर्फ का पुतला बनाओ तो उस बर्फ के पुतले की आँख और बर्फ के पुतले का लिंग दोनों ही बर्फ है , ऐसे ही भगवान शिव पूर्णतः चिन्मय ही चिन्मय हैं, उनके शरीर में कहीं कोई भेद नहीं |
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२- उनका लिंग ऋषियों के श्राप के कारण कट कर धरती पर गिरा! यह शिव पुराण में लिखा है और फिर पृथ्वी पर चारों पर आग लग गई, अंत में ऋषियों की प्रार्थना पर माता पार्वती ने इस लिंग को अपनी योनि में धारण कर लिया, तब से इस योनि में समावेशित लिंग पर हिन्दू जल चढ़ाते हैं, अर्चना करते हैं लेकिन प्रश्न के अनुसार क्या शिव का लिंग दुबारा उनके शरीर से जुड़ा? कहीं इसका उल्लेख नहीं है!
उत्तर=> जैसा की स्पष्ट है ये शिवपुराण की दारुवन से सम्बद्ध कथा है, इसी शिव पुराण की विद्येश्वर संहिता में में शिव का वर्णन करते हुए कहा गया है - शिव के दो रूप है - सकल और निष्कल |
"ब्रह्मभाव" निष्कल रूप है तथा "महेश्वरभाव " सकल रूप |
आपने चन्द्रमा देखा होगा | यदि द्वितीया आदि तिथियों को चन्द्रमा के एक ओर का भाग ना दिखाई दे तो क्या चन्द्रमा क्या अपने उस भाग से हीन हो जाता है ??????? शिवलिंग का कटना कथन का भी यही तात्पर्य है |
शिव (सकल + निष्कल ) के सकल भाव का लोक में प्रादुर्भूत हो जाना ही शिव लिंग कटना कहने का तात्पर्य है | हमने अभी ऊपर बतलाया है कि अप्राकृतिक लिंग स्वयं में पूर्ण तथा चिन्मय तत्व है ,इसलिए उसकी तुलना चर्म इन्द्रियों से करके उन चर्म इन्द्रियों के गुण- दोषों को शिव लिंग में आक्षेपित नहीं किया जा सकता |
इसलिए जब शिव का सकल भाव (महेश्वर भाव ) ज्योतिर्मय लिंग के रूप में धरती पर गिरा (अवतरित हुआ ) तो पृथ्वी पर चारों तरफ आग लग गयी | इसका रहस्य यह है कि शिव के सकल (कलाओं से युक्त ) लिंग स्वरूप से उनकी अष्ट मूर्तियों में परिगणित अग्नि मूर्ति का प्रादुर्भाव होने लगा | (एक अवतार से दूसरा अवतार ) यह अग्नि संहारिका प्रलयाग्नि है , जो जगत का संहार करती है | इस अग्नि की द्वारा संसार के प्राणियों का मंगल हो , इसके लिए पार्वती ने लिंग को अपनी योनि में धारण कर लिया, यहाँ योनि का मतलब किसी भौतिक स्त्री की योनि नहीं अपितु मद्ब्रह्म ही यहाँ योनि है (मम योनिर्महद्ब्रह्म ० - गीता ) क्योंकि ८ प्रकार की अपरा शक्ति जिसे गीता में भगवान ने भी (भूमिरापोनलोवायुः ० )- गीता में ) वर्णित किया है , वही यहाँ पर पार्वती कही गयी है |
जैसा कि शास्त्र वचन भी है-
माया तु प्रकृतिं विद्धि मायिनं तु महेश्वरम् |
इस कथा के तात्पर्य का स्पष्ट उदाहरण ये धरती है , जो अपने गर्भ में अग्नि को समाये है | समस्त प्राणियों की कारणभूत चैतान्यात्मिका जीवनी शक्ति प्रकृति में ही समाहित है , यही शिवलिंग धारण का रहस्य है |
हम शिव लिंग पर जल चढाते हैं इसका एक मतलब होता है = धरतीमाता जिसने समस्त संसार के जीवन के कारण भूत अग्नि को अपने गर्भ में धारण कर रखा है , उस पर जल वर्षा की भावना अभिव्यक्त करना | ताकि सारी सृष्टि में पञ्च महाभूतों के प्राकृतिक संतुलन के साथ में उनकी प्राणियों के कल्याण के लिए अभिवृद्धि होती रहे | दुग्धादि पंचामृत का तात्पर्य है धरती पर गोवंश का उत्कर्ष रहे , मधु , शर्करादि का भी धन -धान्यादि बहुत उत्कृष्ट भाव सान्निहित है |
आप पूछते हैं कि //क्या शिव का लिंग दुबारा उनके शरीर से जुड़ा? // हम आपसे पूछते हैं अलग ही कब हुआ था जो जुड़ने की जरूरत पड़ जाए ? ये तो सृष्टि के कल्याण के लिए लीलामात्र भगवान ने दर्शाई थी | एक नित्य तत्व से वही नित्य तत्व केवल लीला में ही अलग हो सकता है , वास्तविकता में नहीं | जैसे दिए से दुसरे दिए में अग्नि जलाओ तो क्या दिए की आग समाप्त हो जाती है ?? ऐसे ही अचिन्त्य चिन्मय तत्व भगवान शिव हैं जिनसे अग्नि से अग्नि की भांति संसार के कल्याण के लिए ज्योतिर्मय लिंग का प्रादुर्भाव हुआ है | अग्नि की भांति अपने से पृथक होकर भी वे हमेशा स्वयं में पूर्ण हैं | इसीलिये लिंग के जुड़ने की कथा की भी आवश्यकता नहीं पडी |
ॐ शर्वाय क्षितिमूर्तये नमः ।
ॐ भवाय जलमूर्तये नमः ।
ॐ रुद्राय अग्निमूर्तये नमः ।
ॐ उग्राय वायुमूर्तये नमः ।
ॐ भीमाय आकाशमूर्तये नमः ।
ॐ पशुपतये यजमानमूर्तये नमः ।
ॐ महादेवाय सोममूर्तये नमः ।
ॐ ईशानाय सूर्यमूर्तये नमः ।
जब सिख गुरु गोविन्द सिंह जी ने शिवजी की स्तुति किया ----
ਦੇਹ ਸਿਵਾ ਬਰੁ ਮੋਹਿ ਇਹੈ ਸੁਭ ਕਰਮਨ ਤੇ ਕਬਹੂੰ ਨ ਟਰੋਂ ॥
ਨ ਡਰੋਂ ਅਰਿ ਸੋ ਜਬ ਜਾਇ ਲਰੋਂ ਨਿਸਚੈ ਕਰਿ ਅਪੁਨੀ ਜੀਤ ਕਰੋਂ ॥
ਅਰੁ ਸਿਖ ਹੋਂ ਆਪਨੇ ਹੀ ਮਨ ਕੌ ਇਹ ਲਾਲਚ ਹਉ ਗੁਨ ਤਉ ਉਚਰੋਂ ॥
ਜਬ ਆਵ ਕੀ ਅਉਧ ਨਿਦਾਨ ਬਨੈ ਅਤਿ ਹੀ ਰਨ ਮੈ ਤਬ ਜੂਝ ਮਰੋਂ ॥੨੩੧॥
Deh siva bar mohe eh-hey subh karman te kabhu na taro. Na daro arr seo jab jaye laro nischey kar apni jeet karo.
Arr Sikh ho apne he mann ko, eh laalach hou gun tau ucharo. Jab aav ki audh nidan bane att he rann me tabh joojh maro.
देह शिवा बर मोहे ईहे,
शुभ कर्मन ते कभुं न टरूं न डरौं अरि सौं जब जाय लड़ौं,
निश्चय कर अपनी जीत करौं,
अरु सिख हों आपने ही मन कौ इह लालच हउ गुन तउ उचरों,
जब आव की अउध निदान बनै अति ही रन मै तब जूझ मरों ॥२३१॥
- दशम ग्रन्थ
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भगवान शिव का विष्णु के मोहिनी रूप को देकहकर वीर्यपात हो गया था जिस वीर्य को फिर कान के द्वारा देवी के गर्भ में डाला गया ,>>>>>>>>>>>>>>>
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प्रथम तो शिव का वीर्यपात होना कोई हेय बात नहीं क्योंकि लोककल्याण की भावना के कारण वीर्यपात होना बहुत उत्तम बात है | जानबूझकर मोहित होने की लीला करते हुए वीर्यपात करने वाले शिव की इस लीला के पीछे उनका लोक के लिए एक महान सन्देश छिपा है | जो हम अभी बताएँगे | इससे पहले वीर्यपात शब्द पर एक उदाहरण देकर आपको वीर्यपात का मर्म समझाते हैं -
आपके मान्य जितने भी गुरु हुए हैं सब वीर्यपात के कारण ही पैदा हुए हैं और आज उसी वीर्यपात की कृपा है कि आप लोगों के पूज्य होकर आप लोगों को धन्य कर रहे हैं |
केवल स्वयं ही पैदा नहीं हुए अपितु स्वयं भी वीर्यपात किये हैं |
................किसी वीर्यपात से बहुत महान संतान का जन्म हो तो वो वीर्यपात बहुत उत्तम धर्म है |
इस रहस्य को गीता के धर्मोsविरुद्धो भूतेषु कामोsस्मि भरतर्षभ ० के माध्यम से समझाया गया है | अस्तु
अब आगे देखिये -
भगवान के मोहिनी अवतार के सम्मुख भगवान शिव के द्वारा वीर्यपात की भूमिका में जिन शिव का वर्णन हुआ है वे तमोगुण के नियंता गुणावतार शिव की भूमिका है ना कि गुणातीत निष्कल परब्रह्म | इस प्रकार शिवतत्व का भूमिका भेद से लीलाभेद वर्णित हुआ है | उनकी माया शक्ति इतनी प्रबल है कि ब्रह्मा , शिव जैसे उच्च कोटि के देवगण भी माया के प्रभाव से नहीं बच सकते | इसलिए प्रलयंकारी शक्तियों का भी भरोसा छोड़कर प्रपन्न भाव से परमात्मा (विष्णु ) की शरण ग्रहण करनी चाहिए , ये इस कथा का सार है | इसी सन्देश को संसार के हरिभक्ति विमुख प्राणियों को देने के लिए भगवान ने वीर्यपात लीला की है | ख़ास कर उन लोगों को जो शिवादि देवताओं से अपने ऐहिक और पारलौकिक भोगों की कामना याचना करते हैं | यदि गुणावतार शिव का वीर्यपात ना होता तो भगवान् की अनिर्वचनीय माया शक्ति के प्रभाव पर प्रश्न चिन्ह लगते , और भगवान का यह गीता सन्देश रेखांकित होता -
दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया |
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते || like emoticon
अब आगे देखिये .....
शास्त्र में शिव को सच्चिदानन्दरूपाय कहा गया है | भगवान शिव कोई मनुष्य तो हैं नहीं कि उनका वीर्य प्राणियों की भांति अन्न का विकार हो !!! चिदानंद से निर्मित शरीर का वीर्य चिदानंद ही होगा , यानी ज्ञानमय भगवान का शरीर है , इसलिए अगर ज्ञान तत्व को किसी लौकिक गर्भ में मूर्तरूप प्रदान करना हो तो कान के मार्ग से उस अचिन्त्य ज्ञानमय तत्व को प्रतिष्ठापित करना कोई दोष नही | पर आपको ये रहस्य मालूम नहीं हैं ., इसलिए आपको सनातन धर्म में दोषों का दिग्भ्रम हुआ है like emoticon
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एक अन्य प्रसंग में पार्वती जी को स्नान करते हुए देखने के लिए शिव जी इतने आतुर थे की उन्होंने किसी बालक का सर काट दिया फिर उसको जीवित करने के लिए किसी निर्दोष हाथी का सर काट लिया >>>>>>>>>>>>>>>
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>>>> क्या आप जानते हैं कि शिव -पार्वती के विवाह में भी गणेश पूजा हुई थी ???? आपको ये रहस्य समझ नहीं आयेगा क्योंकि आपने कभी अधिकारियों से श्रवण नहीं किया अपितु आर्य समाजियों टाइप दिग्भ्रान्तों की चार पुस्तकों से ही सनातन धर्म समझाने का प्रयास किया |
शिव , गणेश , सूर्य , दुर्गा और विष्णु ये पाँचों रूप परब्रह्म परमात्मा के नित्य और शाश्वत स्वीकृत हैं इसलिए एक से दूसरे का जन्म एक अग्नि से दूसरी अग्नि प्रज्ज्वलित किये जाने की भाँती सदैव पारमार्थिक पृथक्करण से रहित है |
शिव का पार्वती के लिए आतुर होकर द्वारस्थ बालक का शीश काटना वस्तुतः बालक (भगवान गणेश ) के शाश्वत रूप के आविर्भाव को संपन्न कराने के लिए की गयी लीलामात्र है |
जिसके एक -एक चरण में तमाम लोक कल्याणकारी शिक्षाएं भरी हैं , उनकी व्याख्याएं करेंगे तो यहाँ कमेन्ट बॉक्स छोटे पड़ेंगे |
जिस परमात्मा का स्वरूप सच्चिदानंद है उसका सिर (गजमुख ) भी शाश्वत सच्चिदानंद ही है |
एतावता जिस गज का शिरश्छेदन किया गया वह भी , उस गज पर भगवान का अनुग्रह है | भगवान द्वारा दो प्रकार का अनुग्रह होता -
तिरोभावादि पञ्च कृत्य और दूसरा जीवों को उनके कार्य -कारण रूप अविद्यात्मक बंधनों से मुक्ति प्रदान करना |
तिरोभावादि पञ्च कृत्य का मतलब है ,भगवान के पांच कृत्य होते हैं -
सृष्टि , स्थिति , संहार , तिरोभाव और अनुग्रह |
(ये सब आपको शिव पुराण कैलाश संहिता के प्रणवार्थ विवेचन में स्पष्ट प्राप्त हो जाएगा | )
इसमें से गज का शिरश्छेदन उनके द्वारा संपादित अनुग्रह लीला के ही अंतर्गत स्वीकृत होने से इस लीला से गजोद्धार ही सिद्ध हुआ |
न वा एतन्म्रियसे न रिष्यसि देवा ० (यजु० २३/१६, २५/४४ ) इत्यादि वेद मन्त्र भी इसी रहस्यात्मक भगवल्लीला को संकेतित करते हैं |
इसलिए अभी आपको बहुत अध्ययन की आवश्यकता है | like emoticon
परमात्मा के अनेक नाम है उनके गुण ,कर्म ,स्वाभाव के कारण . परमात्मा का एक नाम शिव भी है. शिव का अर्थ है कल्याण करना. इसलिए परमात्मा एक ही है. उसे अनेक नामों से पुकारा जाता है . अज्ञानी लोग परमात्मा की मुर्तिया बना कर पूजते है. ज्ञानी लोग उसे अपने अंदर किर्ययोग्यग की साधना से उपासना करते है.
अज्ञानी लोग भगवान के चिन्मय शरीर में अवयव -अवयवी का भेद समझने की भूल करते हैं | जबकि लौकिक पुरुषों की भांति त्रिविध भेदों (सजातीय , विजातीय , स्वगत ) से युक्त न होकर इन भेदों से शून्य भगवान का अचिन्त्य अलौकिक विग्रह केवल भक्ति से जाना जा सकता है |
हर हर महादेव !!

Friday, April 17, 2015

मन का संबंध

हमारे मन के तर्क और वितर्क अतीत पर आधारित होते हैं और इसलिए इनका अपना एक गुण होता है। अपने खुद के गुण की वजह से वे सच्चाई को ठीक से पेश नहीं कर पाते। क्या ऐसे में हम अपने मन का इस्तेमाल करके, सच्चाई को ठीक वैसे देख सकते हैं, जैसी वो है?

दर्पण की खूबी यह है कि उसका अपना कोई चेहरा नहीं होता। तर्क का अपना एक चेहरा होता है। एक बार अगर मन तर्कों के दोहरेपन से परे चला जाए तो यह दर्पण की तरह हो जाता है।


मन का संबंध हमेशा अतीत से होता है, अतीत की उन चीजों से जो आपके भीतर इकठ्ठी हो गईं हैं। यह वर्तमान पल के बारे में नहीं सोचता। जब मैं मन कहता हूं, तो मैं तार्किक मन की बात कर रहा हूं, किसी इंसान की बुद्धि का नहीं, प्रज्ञा का नहीं। जब आपको जीवन के भौतिक पहलुओं के मामले में एकत्र ज्ञान की जरूरत होती है, वहां मन ठीक तरह से काम करता है, लेकिन अगर आप इसका इस्तेमाल अपने जीवन को चलाने में करने लगें तो सब गड़बड़ हो जाता है।


अभी आप जीवन की प्रकृति को अपने तार्किक दिमाग से समझने की कोशिश कर रहे हैं। आप जितनी चाहे कोशिश कर लें, आपको कामयाबी नहीं मिलेगी। आप एक ऐसे यंत्र की मदद से जीवन को समझने की कोशिशें कर रहे हैं, जो इस काम के लिए बना ही नहीं है। यह कुछ ऐसा ही है, जैसे आपका मकसद तो चांद पर जाना हो, लेकिन आप वहां तक पहुंचने के लिए बैलगाड़ी का इस्तेमाल कर रहे हों। ऐसे में किसी ने आपको सलाह दे दी कि आप एक चाबुक ले लें और अपने बैलों को तेजी से चलाने के लिए उन पर उसका इस्तेमाल करें। आप अपने बैलों की जान तो ले सकते हैं, लेकिन अपनी मंजिल तक कभी नहीं पहुंच सकते। जब तक आपके पास कोई उचित वाहन नहीं होगा, आप चंद्रमा तक कभी नहीं पहुंच पाएंगे। बड़ी सीधी सी बात है यह।


अगर आप प्रकृति के स्वभाव को समझना चाहते हैं, तो आपको इस काबिल बनना होगा या कम से कम बनने की कोशिश करनी होगी - कि आप तार्किक मन की सीमाओं से परे जाकर देख सकें। केवल तभी आप जीवन की प्रकृति को अच्छी तरह से समझ सकते हैं। अगर ऐसा नहीं हुआ तो यह एक लंबी, उबाऊ और संघर्ष-भरी यात्रा होगी, जिसके अंत में किसी मंजिल की प्राप्ति नहीं होगी। इससे आप किसी नतीजे पर नहीं पहुंच सकते। इससे समस्या और ज्यादा जटिल ही होगी। तार्किक दिमाग एक बुनियादी यंत्र है, जिसकी मदद से आप सब कुछ करने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन असल में वह बस इस जगत के दोहरेपन को संभालने के काबिल है। एक प्राणी के तौर पर अगर आपके अंदर दोहरापन आ गया तो आप हमेशा संघर्ष ही करते रहेंगे। जिन चीजों को आप अलग-अलग हिस्सों में बांट देते हैं, आप चाहे जो कर लें, उन्हें फिर से साथ नहीं ला सकते।


तार्किक दिमाग एक ऐसी चीज है, जिसने इस जगत के बारे में आपकी समझ को लाखों हिस्सों में बांट रखा है, और अब वह उन सभी हिस्सों को एक साथ लाने की कोशिश कर रहा है। ऐसा कभी नहीं होने वाला। आप इसका जितना ज्यादा इस्तेमाल करेंगे, यह आपके भीतर उतना ही ज्यादा तनाव पैदा करेगा। अगर यह तनाव लगातार ऐसा ही रहा, तो कुछ समय के बाद आपके भीतर की जीवन-ऊर्जा कमजोर हो जाएगी, तीव्रता और चमक खत्म हो जाएगी। साधना के तमाम तरीकों को इस तरह से बनाया गया है कि वे आपके भीतर चल रहे उस तनाव को खत्म कर दें, जो दो चीजों को अलग करने या उन्हें साथ लाने की कोशिशों की वजह से पैदा हो रहा है।


मशहूर कथाकार एसॉप के जीवन की एक बड़ी सुंदर घटना है। उन्हें बच्चों के साथ खेलने का बड़ा शौक था। एक दिन जब वह तीर कमान से बच्चों के साथ खेल रहे थे, तो एक बुद्धिमान व्यक्ति उन्हें देख कर कहा, “एक बड़े आदमी का बच्चों के साथ खेलकर समय बर्बाद करने का क्या मतलब है?” एसॉप अपनी बात उस तक पहुंचाना चाहते थे, इसलिए उन्होंने एक धनुष उठाया और उसकी रस्सी को उतारकर ढीला कर दिया और उसे वहीं जमीन पर रख दिया और बोले, “यह है मेरा मकसद।”


बुद्धिमान व्यक्ति ने कहा, “मुझे समझ नहीं आया कि आप कहना क्या चाहते हैं।”


एसॉप बोले, “अगर आप अपने धनुष को लगातार तानकर रखेंगे, तो कुछ समय बाद उसकी शक्ति और तीव्रता कम होने लगेगी और वह एक बेहतर धनुष नहीं रह जाएगा। अगर आप धनुष की तीव्रता और शक्ति को बनाए रखना चाहते हैं तो आपको कभी-कभी उसकी रस्सी को उतारकर भी रखना होगा। तभी वह जरूरत के वक्त आपका साथ दे पाएगा। बस मैं यही कर रहा हूं और यही है ध्यान - खुद के तनाव को ढीला करना।”


हर तर्क एक खास किस्म के तनाव को जन्म देता है। अगर तर्क है, तो वाद-विवाद की गुंजाइश होगी। आप जितने तार्किक होते जाएंगे, आप अपने जीवन की हर चीज को लेकर उतने ही विवाद-प्रिय होते जाएंगे। ध्यान ऐसा तरीका है, जो इस तरह के तनावों को दूर करता है। कुछ समय के लिए अपने मन को बस यूं ही रहने देने में, बिना किसी तर्क के, बस उसे ऐसे ही खाली छोड़ देने में ध्यान आपकी मदद करता है। अगर आपका मन बस यूं ही रहना सीख लेगा तो वह एक दर्पण की तरह हो जाएगा। दर्पण की खूबी यह है कि उसका अपना कोई चेहरा नहीं होता। तर्क का अपना एक चेहरा होता है। क्या कभी आपने गौर किया है कि हर किसी के अपने तर्क होते हैं? एक साधारण से मसले पर दो लोग अंतहीन बहस कर सकते हैं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि उनके तर्कों के अपने-अपने चेहरे हैं। लेकिन चूंकि दर्पण का कोई चेहरा नहीं होता, इसलिए एक छोटे से दर्पण में पूरा पर्वत भी दिख सकता है और सूर्य भी।


तो एक बार अगर मन तर्कों के दोहरेपन से परे चला जाए तो यह दर्पण की तरह हो जाता है। फिर यह पूरी सृष्टि को अपने में समा सकता है, इस सृष्टि को भी और सृष्टा को भी। मूल रूप से सभी आध्यात्मिक साधनाओं का मकसद तार्किक मन से परे जाना है। आध्यात्मिक साधना का मतलब, आप जो हैं उससे अलग आपको कुछ और बना देना नहीं है। यह आपको वही रखती है, जो आप हैं। इसका मकसद उन झूठे चेहरों को मिटाना है, जो आपने अपने लिए बना रखें है। ऐसा करने से मन एक दर्पण का काम करने लगता है, जो हर चीज को बिना किसी तोड़-मरोड़ के उसी तरह दिखाता है, जैसी वह है।
 

शिव के आभूषण


शिव को हमेशा त्रयंबक कहा गया है, क्योंकि उनकी एक तीसरी आंख है। तीसरी आंख का मतलब यह नहीं है कि किसी के माथे में दरार पड़ी और वहां कुछ निकल आया! इसका मतल‍ब सिर्फ यह है कि बोध या अनुभव का एक दूसरा आयाम खुल गया है। दो आंखें सिर्फ भौतिक चीजों को देख सकती हैं। अगर मैं अपना हाथ उन पर रख लूं, तो वे उसके परे नहीं देख पाएंगी। उनकी सीमा यही है।

इस बोध से आप जीवन को बिल्कुल अलग ढंग से देख सकते हैं। इसके बाद दुनिया में जितनी चीजों का अनुभव किया जा सकता है, उनका अनुभव हो सकता है। आपके बोध के विकास के लिए सबसे अहम चीज यह है – कि आपकी ऊर्जा को विकसित होना होगा और अपना स्तर ऊंचा करना होगा। योग की सारी प्रक्रिया यही है कि आपकी ऊर्जा को इस तरीके से विकसित किया जाए और सुधारा जाए कि आपका बोध बढ़े और तीसरी आंख खुल जाए। तीसरी आंख दृष्टि की आंख है। दोनों भौतिक आंखें सिर्फ आपकी इंद्रियां हैं। वे मन में तरह-तरह की फालतू बातें भरती हैं क्योंकि आप जो देखते हैं, वह सच नहीं है।

शिव के कई नाम हैं। उनमें एक काफी प्रचलित नाम है सोम या सोमसुंदर। वैसे तो सोम का मतलब चंद्रमा होता है मगर सोम का असली अर्थ नशा होता है। नशा सिर्फ बाहरी पदार्थों से ही नहीं होता, बल्कि केवल अपने भीतर चल रही जीवन की प्रक्रिया में भी आप मदमस्त रह सकते हैं। अगर आप जीवन के नशे में नहीं डूबे हैं, तो सिर्फ सुबह का उठना, अपने शरीर की जरूरतों को पूरा करना, खाना-पीना, रोजी-रोटी कमाना, आस-पास फैले दुश्मनों से खुद को बचाना और फिर हर रात सोने जाना, जैसी दैनिक क्रियाएं आपकी जिंदगी कष्टदायक बना सकती हैं। अभी ज्यादातर लोगों के साथ यही हो रहा है। जीवन की सरल प्रक्रिया उनके लिए नर्क बन गई है। ऐसा सिर्फ इसलिए है क्योंकि वे जीवन का नशा किए बिना उसे बस जीने की कोशिश कर रहे हैं। चंद्रमा को सोम कहा गया है, यानि नशे का स्रोत।

अगर आप किसी चांदनी रात में किसी ऐसी जगह गए हों जहां बिजली की रोशनी नही हो, या आपने बस चंद्रमा की रोशनी की ओर ध्यान से देखा हो, तो धीरे-धीरे आपको सुरूर चढ़ने लगता है। क्या आपने इस बात पर ध्यान दिया है? हम चंद्रमा की रोशनी के बिना भी ऐसा कर सकते हैं मगर चांदनी से ऐसा बहुत आसानी से हो जाता है। अपने इसी गुण के कारण चंद्रमा को नशे का स्रोत माना गया है। शिव चंद्रमा को एक आभूषण की तरह पहनते हैं क्योंकि वह एक महान योगी हैं जो हर समय नशे में चूर रहते हैं। फिर भी वह बहुत ही सजग होकर बैठते हैं। नशे का आनंद उठाने के लिए आपको सचेत होना ही चाहिए। जब आप शराब पीते हैं, तब भी आप सजग रहकर उस नशे का मजा लेने की कोशिश करते हैं। योगी ऐसे ही होते हैं – पूरी तरह नशे में चूर मगर बिल्कुल सजग। योग का विज्ञान आपको हर समय अपने अंदर नशे में चूर रहने का आनंद देता है। योगी आनंद के खिलाफ नहीं होते। बस वे थोड़े से आनंद से या सिर्फ सुख से संतुष्ट नहीं होना चाहते। वे लालची होते हैं।

योग संस्कृति में, सर्प यानी सांप कुंडलिनी का प्रतीक है। यह आपके भीतर की वह उर्जा है जो फिलहाल इस्तेमाल नहीं हो रही है। कुंडलिनी का स्वभाव ऐसा होता है कि जब वह स्थिर होती है, तो आपको पता भी नहीं चलता कि उसका कोई अस्तित्व है। केवल जब उसमें हलचल होती है, तभी आपको महसूस होता है कि आपके अंदर इतनी शक्ति है। जब तक वह अपनी जगह से हिलती-डुलती नहीं, उसका अस्तित्व लगभग नहीं के बराबर होता है।

सांप ऐसा जानवर है जो आपके सहज रहने पर आपके साथ बहुत आराम से रहता है। वह आपको कुछ नहीं करेगा। वह कुछ खास ऊर्जाओं के प्रति बहुत संवेदनशील भी होता है। सांप शिव के गले के चारों ओर लिपटा रहता है। यह सिर्फ एक प्रतीक नहीं है। इसके पीछे एक पूरा विज्ञान है। ऊर्जा शरीर में 114 चक्र होते हैं। आप उन्हें 114 संधि स्थलों या नाड़ियों के संगम के रूप में देख सकते हैं। इन 114 में से आम तौर पर शरीर के सात मूल चक्रों के बारे में बात की जाती है। इन सात मूल चक्रों में से, विशुद्धि चक्र आपके गले के गड्ढे में मौजूद होता है। यह खास चक्र सांप के साथ बहुत मजबूती से जुड़ा होता है। विशुद्धि जहर को रोकता है, और सांप में जहर होता है। ये सभी चीजें आपस में जुड़ी हुई हैं। विशुद्धि शब्द का अर्थ है – फिल्टर या छलनी। अगर आपका विशुद्धि चक्र शक्तिशाली हो जाता है, तो आपके अंदर शरीर में प्रवेश करने वाली हर चीज को छानने या शुद्ध करने की काबिलियत आ जाती है। शिव का केंद्र विशुद्धि चक्र में है।

नंदी अनंत प्रतीक्षा का प्रतीक है। भारतीय संस्कृति में इंतजार को सबसे बड़ा गुण माना गया है। जो बस चुपचाप बैठकर इंतजार करना जानता है, वह कुदरती तौर पर ध्यानमग्न हो सकता है। नंदी को ऐसी उम्मीद नहीं है कि शिव कल आ जाएंगे। वह किसी चीज का अंदाजा नहीं लगाता या उम्मीद नहीं करता। वह बस इंतजार करता है। वह हमेशा इंतजार करेगा। यह गुण ग्रहणशीलता का मूल तत्व है। नंदी शिव का सबसे करीबी साथी है क्योंकि उसमें ग्रहणशीलता का गुण है।

नंदी का गुण यही है, वह बस सजग होकर बैठा रहता है। यह बहुत अहम चीज है – वह सजग है, सुस्त नहीं है। वह आलसी की तरह नहीं बैठा है। वह पूरी तरह सक्रिय, पूरी सजगता से, जीवन से भरपूर बैठा है, ध्यान यही है। ध्यान का मतलब मुख्य रूप से यही है कि वह इंसान अपना कोई काम नहीं कर रहा है। वह बस वहां मौजूद है।

शिव का त्रिशूल जीवन के तीन मूल पहलुओं को दर्शाता है। योग परंपरा में उसे रुद्र, हर और सदाशिव कहा जाता है। ये जीवन के तीन मूल आयाम हैं, जिन्हें कई रूपों में दर्शाया गया है। उन्हें इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना भी कहा जा सकता है। ये तीनों प्राणमय कोष यानि मानव तंत्र के ऊर्जा शरीर में मौजूद तीन मूलभूत नाड़ियां हैं – बाईं, दाहिनी और मध्य। नाड़ियां शरीर में उस मार्ग या माध्यम की तरह होती हैं जिनसे प्राण का संचार होता है। तीन मूलभूत नाड़ियों से 72,000 नाड़ियां निकलती हैं। इन नाड़ियों का कोई भौतिक रूप नहीं होता। यानी अगर आप शरीर को काट कर इन्हें देखने की कोशिश करें तो आप उन्हें नहीं खोज सकते। लेकिन जैसे-जैसे आप अधिक सजग होते हैं, आप देख सकते हैं कि ऊर्जा की गति अनियमित नहीं है, वह तय रास्तों से गुजर रही है। प्राण या ऊर्जा 72,000 विभिन्न रास्तों से होकर गुजरती है। इड़ा और पिंगला जीवन के बुनियादी द्वैत के प्रतीक हैं। इस द्वैत को हम परंपरागत रूप से शिव और शक्ति का नाम देते हैं।

सृजन से पहले की अवस्था में सब कुछ मौलिक रूप में होता है। उस अवस्था में द्वैत नहीं होता। लेकिन जैसे ही सृजन होता है, उसमें द्वैतता आ जाती है। पुरुषोचित और स्त्रियोचित का मतलब लिंग भेद से – या फिर शारीरिक रूप से पुरुष या स्त्री होने से – नहीं है, बल्कि प्रकृति में मौजूद कुछ खास गुणों से है। प्रकृति के कुछ गुणों को पुरुषोचित माना गया है और कुछ अन्य गुणों को स्त्रियोचित। आप भले ही पुरुष हों, लेकिन यदि आपकी इड़ा नाड़ी अधिक सक्रिय है, तो आपके अंदर स्त्रियोचित गुण हावी हो सकते हैं। आप भले ही स्त्री हों, मगर यदि आपकी पिंगला अधिक सक्रिय है तो आपमें पुरुषोचित गुण हावी हो सकते हैं।

बग़दाद के एक सूफी संत

इस दुनिया में जिसने किसी भी तरह का आध्यात्मिक पागलपन दिखाया, उसे हमेशा सताया गया है। मंसूर अल-हलाज भी ऐसे ही सूफी संत थे। जानिए उनकी शख्सियत के कुछ पहलुओं कोः



मंसूर अल-हलाज सूफीवाद के सबसे विवादास्पद व्यक्तियों में से एक थे। उन्होंने दावा किया था ‘मैं ही सत्य हूं’ जिसे धर्म विरोधी माना गया और इस कारण उन्हें पचपन साल की उम्र में बड़ी बेरहमी के साथ मौत की सजा दे दी गई। हालांकि सच्चे ईश्वर-प्रेमी समझते थे कि उनके यह कहने का क्या मतलब है, और वो उनका बड़ा आदर करते थे, और आज भी करते हैं।
बात उन दिनों की है जब मंसूर बगदाद में थे। अपने सूफी गुरु जुनैद से उन्होंने कई विवादास्पद सवाल किए, लेकिन जवाब देने के बजाय जुनैद ने कहा, ‘एक समय ऐसा आएगा, जब लकड़ी के एक टुकड़े पर तुम लाल धब्बा लगाओगे।’

उन्होंने इस बात से इशारा कर दिया था कि एक दिन मंसूर को फांसी के तख्ते पर लटका दिया जाएगा। इस पर मंसूर ने जवाब दिया, ‘जब ऐसा होगा, तो आपको अपना सूफी चोला उतार कर एक धार्मिक विद्वान का चोला धारण करना होगा।’ यह भविष्यवाणी तब सच हुई जब मंसूर की मौत का हुक्मनामा तैयार किया गया और जुनैद से उस पर दस्तखत करने को कहा गया। हालांकि जुनैद दस्तखत नहीं करना चाहते थे, लेकिन बगदाद के खलीफा इस बात पर अड़ गए कि जुनैद को दस्तखत करने ही होंगे। खैर, जुनैद ने अपना सूफी चोला उतार दिया और एक धार्मिक विद्वान की तरह पगड़ी और अंगरखा पहन कर इस्लामिक अकादमी पहुंचे। वहां उन्होंने यह कहते हुए मौत के फरमान पर दस्तखत किए कि ’हम मंसूर हलाज के बारे में फैसला सिर्फ बाहरी सत्य के आधर पर कर रहे हैं। जहां तक भीतरी सत्य की बात है, तो इसे सिर्फ खुदा ही जानता है।


जुनैद से मिलने के बाद अगले पांच साल तक उन्होंने एक ऊच्च आध्यात्मिक अवस्था में मध्य एशिया और ईरान के कई इलाकों की यात्रा की। विद्वानों और आम लोगों, दोनों ने ही उनकी शिक्षाओं और प्रवचन को हाथों हाथ लिया और उनकी भरपूर प्रशंसा की। अपनी तीखी परख के कारण वे ’हलाज’ यानी रहस्यों के उस्ताद के रूप में जाने गए। वे बसरा से मक्का तीर्थयात्रा पर गए, लेकिन यहां उन पर जादूगर का ठप्पा लगा दिया गया। इसके बाद वह भारत और चीन की यात्रा पर निकल पड़े, जहां उन्हें एक प्रबुद्ध गुरू के रूप में पहचान मिली।


उन्होंने मक्का की अपनी दूसरी हज यात्रा की और वहां दो साल तक रहे। लेकिन उनके आध्यात्मिक सीख बांटने के तरीके में एक बड़ा बदलाव आ चुका था। उनकी शिक्षाएं अब बहुत गूढ़ हो चुकी थीं और ‘मैं ही सत्य हूं’ का दावा करके वे लोगों को एक ऐसे ’सत्य’ की ओर आकर्षित करने लगे जो लोग शायद समझ नहीं सके। उनके द्वारा किए गए चमत्कारों के बारे में कई किस्से फैलने लगे। लोग उनके बारे में तरह-तरह की राय रखने लगे। कहा जाता है कि ‘मैं ही सत्य हूं’ के धर्म विरोधी दावे की वजह से उन्हें करीब पचास इस्लामिक शहरों से खदेड़ दिया गया था।


मक्का की दूसरी हज यात्रा पर करीब चार हजार लोग हलाज के साथ गए थे। पूरे एक साल तक वह काबा के सामने नंगे पैर और नंगे सिर ऐसे ही खड़े रहे। रोज एक आदमी उनके सामने कुछ रोटियां और एक जग पानी रख जाता, लेकिन कभी-कभार ही ऐसा हुआ कि हलाज ने उन रोटियों और पानी को हाथ लगाया। नतीजा हुआ कि उनका शरीर हड्डियों का ढांचा भर रह गया।


बगदाद वापस आने पर कट्टरपंथी धार्मिक लोगों ने उन पर धर्मविरोधी होने का आरोप लगाया और उन्हें एक साल के लिए जेल में डाल दिया। जेल में शुरु के छह महीनों तक लोग लगातार उनसे सलाह लेने आते रहे, लेकिन जब खलीफा को इस बात का पता चला तो उसने हुक्म दिया कि हलाज से कोई नहीं मिल सकता। जिस जेल में हलाज को बंद किया गया था, उसमें तीन सौ कैदी थे।

एक रात हलाज ने उन कैदियों से पूछा कि क्या आप लोग जेल से आजाद होना चाहते हैं? कैदियों के ‘हां’ कहने पर हलाज ने अपनी उंगली से एक रहस्यपूर्ण इशारा किया। अचानक सभी हथकड़ियां और ताले टूट गए और जेल के दरवाजे खुल गए। सारे कैदी जेल से भागने लगे लेकिन हलाज नहीं भागे। भाग रहे कैदियों ने हलाज से जब उनके नहीं भागने का कारण पूछा तो हलाज ने जवाब दिया, ‘मेरा ’मालिक’ के साथ कुछ गुप्त मामला चल रहा है, जिसका खुलासा सिर्फ फांसी के तख्ते पर ही हो सकता है। मैं अपने मालिक – खुदा का कैदी हूं।’


इस घटना के बाद खलीफा ने उन्हें मौत की सजा सुना दी। कहा जाता है कि बगदाद में एक लाख लोग उनकी फांसी को देखने के लिए इकठ्ठे हुए। पांच सौ कोड़े मारने के बाद उनके हाथ-पैरों को काट दिया गया, उनकी आंखें निकाल ली गईं और जीभ को भी काट दिया गया। उनके क्षत-विक्षत शरीर को ऐसे ही तड़पने के लिए छोड़ दिया गया। कुछ समय में ही उनकी मौत हो गई। जब जल्लाद ने उनका सिर काटा तो उनके धड़ से खून की धार फूट पड़ी और तेज आवाज आई, ‘मैं सत्य हूं।‘ अचानक उनके शरीर से कटा एक-एक अंग चीखने लगा ‘मैं ही सत्य हूं।’ इसके बाद उन पर उंगली उठाने वालों को अहसास होने लगा कि उन्होंने खुदा के एक लाडले की हत्या कर दी है।

मंसूर भारत में धर्म ग्रंथों और उन चीजों को सिखाने आए थे, जो वे जानते थे। वे बस इन्हीं सब चीजों के बारे में बात करते थे। लेकिन जब वह गुजरात और पंजाब पहुंचे तो उनकी मुलाकात कुछ ऐसे सच्चे आध्यात्मिक दीवानों से हुई, जो परमानंद की एक अलग ही अवस्था में थे।
जब वह वापस लौटे तो बस एक लंगोटी पहने हुए थे। जिस समाज से वे आए थे, उसमें अगर कोई आदमी केवल लंगोटी पहने यूं ही सड़कों पर घूमता दिखे, तो उसे घोर पागल समझा जाता था। अपने भीतर परम आनंद का अनुभव कर रहे हलाज ने कहना शुरू कर दिया, ‘मैं कुछ नहीं हूं, मैं कोई नहीं हूं।’ इसके बाद वह पागलों की तरह सड़कों पर नाचने-गाने लगे।


जब आप परम आनंद की अवस्था में होते हैं तो आपके व्यक्तित्व का ढांचा जो सख्त होता है, वह ढीला पड़ जाता है। मानो भट्टी में पूरी तरह पका हुआ मिट्टी का बरतन फिर से कच्ची मिट्टी का बरतन बन जाए। वह फिर से नरम और लचीला हो जाता है।

आप उसे जैसा चाहें, फिर से एक नया रूप, एक नया आकार दे सकते हैं। कभी आपने महसूस किया है कि जब लोग मस्ती में होते हैं तो वे बहुत लचीले हो जाते हैं और जब नाखुश होते हैं तो वही लोग बहुत सख्त हो जाते हैं, बिल्कुल लकड़ी की तरह।


जब लोगों ने देखा कि मंसूर पर पागलपन सवार हो गया है तो उन्होंने उनसे दूरी बनानी शुरू कर दी, पर उन्होंने उनका ज्यादा विरोध नहीं किया। लेकिन जैसे ही उन्होंने कहा कि ‘मैं खुदा हूं’ तो उन पर तमाम तरह के आरोप लगाए जाने लगे। वह मक्का जा पहुंचे। वहां हर कोई काबा के चक्कर लगा रहा था। उन्होंने सोचा कि यहां इतनी भीड़ क्यों है? हर कोई यहीं क्यों चक्कर लगा रहा है? उन्होंने वहां से हट कर पास की एक गली में एक और पत्थर की स्थापना कर दी। संभवतः उन्होने उस पत्थर में प्राण-प्रतिष्ठा कर दी थी। उन्होंने देखा कि उन दोनों जगहों की ऊर्जा एक जैसी थी। फिर उन्होंने लोगों से कहा, ‘काबा में बहुत ज्यादा भीड़ है। सबको उसी एक जगह पर घूमने की कोई जरूरत नहीं है। कुछ लोग इस पत्थर के चारों ओर भी घूम सकते हैं।’
बस इतना कहना काफी था। इसके लिए मंसूर को भयंकर सजा दी गई। उनकी खाल उधेड़ दी गई, उन्हें कमर तक जमीन में गाड़ दिया गया और उस जगह के खलीफा ने हुक्म दिया कि जो कोई भी उस गली से गुजरेगा, उसे उन्हें पत्थर मारना ही होगा। बिना उन्हें पत्थर मारे आप उस गली से नहीं गुजर सकते।


जब उनका एक करीबी दोस्त उधर से गुजरा, तो उसे भी उन पर कुछ फेंकना था। उसकी जब पत्थर फेंकने की हिम्मत नहीं हुई तो उसने उनकी ओर एक फूल फेंक दिया। तभी मंसूर के मुंह से एक कविता फूट पड़ी, जिसमें उन्होंने कहा- ‘मुझ पर फेंके गए पत्थरों ने मुझे कष्ट नहीं दिया, क्योंकि इन पत्थरों को अज्ञानी लोगों ने फेंका था। लेकिन तुमने जो फूल मुझ पर फेंका, इससे मुझे गहरी तकलीफ हुई है, क्योंकि तुम तो ज्ञानी हो और फिर भी तुमने मुझ पर कोई चीज फेंकी।’


इस दुनिया में जिसने भी किसी तरह का आध्यात्मिक पागलपन दिखाया है, उसे हमेशा सताया गया है।

उनकी एक कविता:

वियोग जन्म देता है बोध को
बोध- प्रेम के सच्चे मार्ग का बोध
प्रेम जो कुछ नहीं चाहता
जिसे नहीं है, जरूरत किसी की
अपने प्रियतम की भी नहीं,

क्योंकि यथार्थ की ऐसी हालत में
प्रेमी और प्रियतम नहीं होते हैं दो
अलग-अलग, नहीं कभी

दो हो जाते हैं एक।
एक साथ, सदा के लिए!

गौर फरमाइए, सूफियों का रहस्य है यही
मंसूर अल-हलाज कहते हैं
‘अनल हक’
देखो! एक सच्चा प्रेमी पूर्ण समर्पण कर विलीन हुआ
समा गया उस दिव्य प्रियतम के चरम प्रेम में

मैं वही हूं, जिसे मैं प्रेम करता हूं
और जिसे मैं प्रेम करता हूं, वह मैं हूं
हम दो आत्माएं हैं
जो एक ही शरीर में हैं
अगर तूने मेरे दर्शन कर लिए
समझ ले तूने उसके दर्शन कर लिए

– मंसूर



मौत की सजा मिलने से पहले अपने पुत्र को हलाज की आखिरी सीखः
‘पूरी दुनिया मानती है की नैतिक व्यवहार खुदा की ओर ले जाता है।’ हलाज कहते हैं, ‘लेकिन खुदा की कृपा पाने की कोशिश करो। अगर तुम्हें उसकी कृपा का एक कण भी मिल गया, तो वह देवताओं और इंसानों के तमाम भलाई के कामों से ज्यादा कीमती है।’

बीस साल तक हलाज एक ही फटा-चिथड़ा सूफी चोला पहने रहे। एक दिन उनके कुछ चेलों ने उनके उस चोले को जबरदस्ती उतारने की कोशिश की, ताकि उन्हें नए कपड़े पहना सकें। जब पुराने चोले को उतारा गया तो पता चला कि उसके भीतर एक बिच्छू ने अपना बिल बना लिया है। हलाज ने कहा, ‘यह बिच्छू मेरा दोस्त है, जो पिछले बीस साल से मेरे कपड़ों में रह रहा है।’ उन्होंने अपने चेलों से जिद की कि तुरंत उनके पुराने चोले और उस बिच्छू को, बिना नुकसान पहुंचाए, उन पर वापस डाल दें।

ब्रह्म मुहूर्त

आपने ब्रह्म मुहूर्त की बहुत महिमा सुनी होगी। एक विद्यार्थी से लेकर एक सन्यासी तक के लिए इस मुहूर्त को लाभकारी बताया जाता है। तो आइए जानते हैं कि आखिर कब शुरु होता है यह ब्रह्म मुहूर्त और क्यों लाभदायक है यह :


सद्‌गुरु, मैं ब्रह्म मुहूर्त के बारे में कुछ जानना चाहता हूं। जहां तक मुझे पता है इसकी शुरुआत साढ़े तीन बजे से होती है, लेकिन खत्म कब तक होता है, ये मुझे ठीक-ठीक नहीं मालूम। हम इस मुहूर्त का बेहतरीन फायदा कैसे ले सकते हैं – क्या इस समय ध्यान या कोई क्रिया अथवा दोनों कर सकते हैं? इसी से जुड़ा मेरा अगला सवाल है कि साढ़े तीन बजे का इस मुहूर्त के साथ क्या संबंध है और इसका क्या महत्व है?
सद्‌गुरु:
साढ़े तीन बजे का महत्व सिर्फ 33 डिग्री अक्षांश तक के लिए ही होता है। 3.40 पर सूर्य उस जगह पहुंच जाता है, जहां उसका सीधा संबंध पृथ्वी से हो जाता है। इस समय उसकी किरणें ठीक आपके सिर के ऊपर होती हैं। जब सूर्य की किरणें धरती के दोनों तरफ एक ही जगह पड़ती हैं, तो इंसान का सिस्टम एक खास तरीके से काम करने लगता है और तब एक संभावना बनती है। इस संभावना के इस्तेमाल करने को लेकर लोगों में जागरूकता रही है।
अगर आपके सिस्टम में एक जीवंत बीज पड़ चुका है और अगर आप ब्रह्म मुहूर्त में जागकर कोई भी अभ्यास करने बैठते हैं तो यह बीज आपको सबसे ज्यादा फल देगा।
वैसे तो सूर्य हमेशा आपके सिर के ऊपर ही होता है, लेकिन जब मैं कहता हूं कि सूर्य ठीक आपके सिर पर है तो इसका मतलब है उस समय वह आपके सिर पर लंबवत है। उस समय यह एक विशेष तरीके से काम करता है। यह समय होता है 3.40 से लेकर अगले 12 से 20 मिनट तक।
अब सवाल आता है कि इस समय में हम क्या करें? इस समय में हम ध्यान करें या क्रिया करें? इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप क्या करें। इस समय में आपको वही करना चाहिए, जिसमें आपको दीक्षित किया गया है। दरअसल, दीक्षा का मतलब यह नहीं है कि आपको कोई क्रिया सिखाई गई है, इसका मतलब है कि इस क्रिया से आपके सिस्टम को परिचित करा कर आपके सिस्टम में इसे बाकायदा स्थापित किया गया है।
अगर आपके सिस्टम में एक जीवंत बीज पड़ चुका है और अगर आप ब्रह्म मुहूर्त में जागकर कोई भी अभ्यास करने बैठते हैं तो यह बीज आपको सबसे ज्यादा फल देगा। उसकी वजह है कि इस समय धरती आपके सिस्टम के अनुसार काम करती है। अगर आप खास तरीके से जागरूक हो जाते हैं, आपके भीतर एक खास स्तर की जागरूकता आ जाती है तो आपको इस समय का सहज रूप से अहसास हो जाता है। अगर आप सही वक्त पर सोने चले जाते हैं तो आपको उठने के लिए घड़ी देखने की जरूरत नहीं पड़ेगी। आपको हमेशा पता चल जाएगा कि कब 3.40 का वक्त हो गया है, क्योंकि यह वक्त होते ही आपका शरीर एक अलग तरीके से व्यवहार करने लगेगा।
आप जिस भी क्रिया में दीक्षित हुए हैं, अगर इस समय वह करना शुरू कर देंगे, तो आपको इसका सर्वश्रेष्ठ फल मिलेगा। हां, यह समय किताब पढ़ कर सीखी हुई क्रिया करने का नहीं है। आपके भीतर पड़ा वह बीज इस समय विशेष सहयोग मिलने से अकुंरित होने लगेगा या दूसरे समय की अपेक्षा ज्यादा तेजी से फूटेगा। यह समय सिर्फ दीक्षित हुए लोगों के लिए ही अनुकूल है। अगर आप दीक्षित नहीं है तो फिर 3.40 हो या 6.40 या फिर 7.40 कोई खास फर्क नहीं पड़ता है। ऐसे लोगों के लिए संध्या काल ज्यादा महत्वपूर्ण होता है। यह एक तरह का संधि काल होता है।
जब मैं कहता हूं कि सूर्य ठीक आपके सिर पर है तो इसका मतलब है उस समय वह आपके सिर पर लंबवत है। उस समय यह एक विशेष तरीके से काम करता है। यह समय होता है 3.40 से लेकर अगले 12 से 20 मिनट तक।
संध्या का मतलब है संक्रमण या एक स्थिति से दूसरी में जाना। सूर्योदय से बीस मिनट पहले व बीस मिनट बाद या सूर्यास्त से बीस मिनट पहले व बीस मिनट बाद का समय संध्या कहलाता है। ऐसा ही वक्त दोपहर बारह बजे और आधी रात को आता है, लेकिन ये दोनों संध्याएं अलग प्रकृति की होती है। दिन में चालीस मिनट की ये चार अवधियां संध्या काल कहलाती हैं। इस संध्या काल में आपका सिस्टम एक खास तरह के संक्रमण से गुजरता है। इस समय में मानव शरीर में मौजूद दो प्रमुख नाडिय़ों - इड़ा और पिंगला के बीच एक खास तरह का संतुलन कायम होता है।
सुबह शाम की ये दो संध्याएं गैर दीक्षित लोगों के लिए ठीक हैं। जबकि जो लोग शक्तिशाली ढंग से दीक्षित हुए हैं, उनके लिए 3.40 का वक्त आदर्श है।

तो क्या मैं अपनी क्रिया आधी रात को कर सकता हूं?
सद्‌गुरु:
अगर व्यक्ति अपने जीवन की दिशा को एक खास तरह से बदलने के लिए इच्छुक नहीं है, तो उसे आधी रात को साधना नहीं करना चाहिए। क्योंकि इस दौरान की गई साधना कुछ ऐसे बदलाव लाती है, जिसे आप शायद संभाल न पाएं।

Thursday, April 16, 2015

गोत्र


धरती में एक बीज बोने के बाद वह बीज अपनी जड़ें बनाता है, फिर धीरे-धीरे बड़ा होता है और उस पर ढेर सारी टहनियां और पत्ते लगते हैं। हिन्दू कुल का गोत्र सिद्धांत भी कुछ इसी प्रकार का है। ऐतिहासिक रूप से हिन्दू धर्म में सबसे पहले कुछ ऋषियों का चुनाव किया गया था।

इन ऋषियों के आधार पर आगे इनके वंशज स्थापित किए गए, जो आज युगों से इस रीति को आगे बढ़ा रहे हैं। संस्कृत में गोत्र शब्द उपस्थित नहीं है परंतु इसके स्थान पर गोष्ठ मिला है, जिसका अर्थ एक पवित्र गाय से सम्बन्धित है। गोत्र शब्द को दो हिस्सों में विभाजित करके समझाया गया है

‘गो’ का मतलब है ‘गाय’ और शेष्ठ शब्द ‘त्र’ का अर्थ है शाला। पाणिनीकी अष्टाध्यायी में गोत्र की एक परिभाषा भी मौजूद है - ‘अपात्यम पौत्रप्रभ्रति गोत्रम्’, अर्थात 'गोत्र शब्द का अर्थ है बेटे के बेटे के साथ शुरू होने वाली (एक साधु की) संतान्। इस प्रकार से प्राचीन काल से एक ही गोत्र के भीतर होने वाले लड़के और लड़की का एक-दूसरे से भाई-बहन का रिश्ता माना जाता है।

क्योंकि उनके पूर्वज एक ही हैं, इसीलिए वह सगे तो नहीं, लेकिन मूल रूप से भाई-बहन ही हुए। इसीलिए गोत्र सिद्धांत के अंतर्गत एक ही गोत्र के लड़के या लड़की का विवाह करने की मनाही होती है। इस विषय पर सामाजिक रूप से काफी गर्मागर्मी का माहौल बना रहता है, क्योंकि हमारी आज की पीढ़ी इन तथ्यों को महज ‘दकियानूसी बातें’ बताती है।

परंतु जब विज्ञान ही इसकी पैरवी करने लगे, तो भी क्या नौजवान पीढ़ी इसका समर्थन नहीं करेगी? इसमें कोई दो राय नहीं कि आज का युग तथ्यों के आधार पर बातें करता है। किसी देश की चाहे पूरी जनसंख्या ना ही सही, परंतु उसका एक बड़ा भाग ऐसी बातों पर जरूर सहमत होता है जो वैज्ञानिक प्रणाली से तथ्यों की सही परिभाषा दे।

यदि हम आप से यह कहें कि आज विज्ञान ने भी यह मान लिया है कि यदि एक ही गोत्र के एक लड़के और लड़की का विवाह कर दिया जाए, तो यह ना केवल सामाजिक बल्कि मानसिक एवं स्वास्थ्य के संदर्भ से भी गलत साबित होता है। इसे समझने के लिए सबसे पहले यह जानना जरूरी है कि किसी इंसान को उसका गोत्र हासिल कैसे होता है?

अति प्राचीन काल से गोत्र सिद्धांत की शुरुआत ब्राह्मण गोत्र से हुई थी। इस ब्राह्मण गोत्र के अंतर्गत 8 ऋषियों का चुनाव हुआ जिसमें से पहले सात सप्तर्षि थे और आठवें भारद्वाज ऋषि थे। यदि नामावली की जाए तो यह आठ ऋषि इस प्रकार हैं - अंगिरस, अत्रि, गौतम, कश्यप, भृगु, वशिष्ठ, कुत्स एवं भारद्वाज ऋषि।

उपरोक्त आठ ऋषियों को ‘गोत्रकरिन’ भी कहा जाता है। हिन्दू धर्म में इन गोत्र के आधार पर ही विवाह करने की मान्यता है। एक जैसे गोत्र के लड़का एवं लड़की को भाई-बहन का दर्जा हासिल है। शास्त्रों में एक समान गोत्र में विवाह ना करने के विभिन्न कारण हैं, जिसमें से कुछ मर्यादाओं एवं अन्य कारण वंश रीति को सही रूप से आगे बढ़ाने से सम्बन्धित हैं।

क्या आप जानते हैं कि हिन्दू विवाह में किस प्रकार से गोत्र को पहचानने की गणना की जाती है? एक लड़का-लड़की की शादी के लिए सिर्फ विवाह के लायक लड़के-लड़की का गोत्र ही नहीं मिलाया जाता, बल्कि मां और दादी का भी गोत्र मिलाते हैं। इसका अर्थ है कि तीन पीढ़ियों में कोई भी गोत्र समान नहीं होना चाहिए तभी शादी तय की जाती है।

परंतु यदि गोत्र समान हैं तो विवाह ना करने की सलाह दी जाती है। हिन्दू शास्त्रों में एक गोत्र में विवाह करने पर प्रतिबंध इसलिए लगाया गया क्योंकि यह मान्यता है कि एक ही गोत्र या कुल में विवाह होने पर दंपत्ति की संतान अनुवांशिक दोष के साथ उत्पन्न होती है। ऐसे दंपत्तियों की संतान में एक सी विचारधारा, पसंद, व्यवहार आदि में कोई नयापन नहीं होता।

यहां एक और बात ध्यान देने योग्य है कि यदि लड़का और लड़की का गोत्र अलग-अलग है तब भी कई बार विवाह करने के मनाही दी जाती है, जिसका कारण है उनके ऊपर की किसी पीढ़ी के गोत्र का मिलान हो जाना। यदि लड़का-लड़की के माता-पिता या दादा-दादी का गोत्र एक जैसा निकले, तब भी विवाह ना करने को कहा जाता है।

यह तो हैं शास्त्रीय तथ्य, परंतु विज्ञान भी आज कुछ इसी प्रकार के तर्क दे रहा है। एक मानवीय शरीर में कुछ गुणसूत्र (क्रोमोसोम) पाए जाते हैं। यह दो प्रकार के होते हैं - ‘एक्स’ क्रोमोसोम तथा ‘वाय’ क्रोमोसोम। विज्ञान कहता है कि एक ही गोत्र के सभी मर्दों में वाय क्रोमोसोम एक जैसा ही होता है।

इसी तरह से एक ही गोत्र की सभी स्त्रियों में भी एक्स क्रोमोसोम एक जैसा होता है। तो यदि एक ही गोत्र के लड़का एवं लड़की की शादी कर दी जाए तो उनकी संतान कुछ कमियों के साथ पैदा होती है। हिन्दू शास्त्रों के अनुसार एक संतान को अपना गोत्र अपने पिता से ही हासिल होता है, परंतु मलयालम और तेलुगु भाषी समुदायों में संतान का गोत्र उसकी मां के मुताबिक तय किया जाता है।

लेकिन ऐसी अवधारणा क्यों है? क्यों एक बच्चे को उसके पिता का गोत्र या पिता का ही आखिरी नाम हासिल होता है? माता का क्यों नहीं? और क्यों शादी के बाद महिलाएं अपना पुराना गोत्र या पुराना आखिरी नाम छोड़ नए गोत्र को अपनाती हैं? वह उसी गोत्र के साथ अपनी सारी ज़िंदगी क्यों नहीं बिता सकतीं?

इसका जवाब आगे की पंक्तियों में आपको हासिल हो सकता है। जैसा कि उपरोक्त लाइनों में बताया गया था कि एक मानवीय शरीर में कुछ क्रोमोसोम शामिल होते हैं। एक शरीर में 23 क्रोमोसोम होते हैं। एक बच्चे को जन्म के बाद अपने माता-पिता दोनों से ही बराबर के क्रोमोसोम मिलते हैं।

इसका मतलब उसे 46 क्रोमोसोम हासिल होते हैं। इन सभी क्रोमोसोम में से एक खास क्रोमोसोम होता है ‘सेक्स क्रोमोसोम’, जो यह निश्चित करता है कि पैदा होने वाले बच्चे का लिंग ‘मादा’ है या ‘पुरुष’। संभोग के दौरान प्रत्येक इंसान में एक खास क्रोमोसोम की उत्पत्ति होती है।

यदि संभोग के दौरान बनने वाले ‘सेल्स’ एक्स-एक्स सेक्स क्रोमोसोम का जोड़ा बनाते हैं, तो लड़की पैदा होती है। इसके विपरीत यदि एक्स-वाय सेक्स क्रोमोसोम बनता है, तो लड़का पैदा होगा। एक मां द्वारा केवल एक्स सेक्स क्रोमोसोम ही दिया जाता है। एक पिता ही है जो एक्स और वाय दोनों सेक्स क्रोमोसोम देने की क्षमता रखता है।

यह समाज में एक गलत अवधारणा है कि यदि लड़की पैदा हो तो इसमें मां की गलती है। पिता ही आने वाले बच्चे के लिंग के लिए जिम्मेदार होता है। लेकिन बच्चे का लिंग क्या हो इसका चुनाव एक पिता के हाथ में भी नहीं है। यह एक प्राकृतिक प्रतिक्रिया है।

खैर यहां निष्कर्ष यह निकलता है कि यदि लड़का होगा तो उसे अपना सेक्स क्रोमोसोम पिता से हासिल होता है। परंतु एक लड़की अपना सेक्स क्रोमोसोम माता-पिता दोनों से हासिल करती है। एक बच्चा यदि लड़का हो तो उसे अपना सेक्स क्रोमोसोम केवल अपने पिता से ही हासिल होता है क्योंकि उसका वाय क्रोमोसोम उसे कोई और नहीं दे सकता।

लेकिन एक लड़की को अपना सेक्स क्रोमोसोम उसकी मां और उसकी मां की भी मां से हासिल होता है। इसे वैज्ञानिक भाषा में ‘क्रासओवर’ भी कहा जाता है। इस सारे वैज्ञानिक खेल में एक ‘वाय’ सेक्स क्रोमोसोम ऐसा है, जो कहीं ना कहीं कम पड़ जाता है

यह वाय सेक्स क्रोमोसोम कभी भी एक महिला को हासिल नहीं होता है। इस वाय क्रोमोसोम का गोत्र से काफी गहरा सम्बन्ध है। यदि कोई अंगरस गोत्र से है तो उसका वाय क्रोमोसोम हजारों वर्ष पीछे से चलकर आया है, जो सीधा ऋषि अंगरस से सम्बन्धित है।

इसके साथ ही यदि व्यक्ति का गोत्र भारद्वाज है जिसके साथ गोत्र परिवार (अंगिरस, बृहस्पत्य, भारद्वाज) भी जुड़े हैं, तो उसका वाय क्रोमोसोम वर्षों पीछे से अंगिरस से बृहस्पत्य और फिर ब्रहस्पत्य से भारद्वाज में बदलकर आया है। यहां समझने योग्य बात यह है कि केवल वाय क्रोमोसोम ही ऐसा है जो गोत्र परिवारों को एक आधार प्रदान करता है।

इसीलिए यह माना जाता है कि एक स्त्री का खुद का कोई गोत्र नहीं होता। उसका गोत्र वही है जो उसके पति का गोत्र है। उनमें वाय क्रोमोसोम की अनुपस्थिति उन्हें अपने पति के गोत्र को अपनाने के लिए विवश करती है।