द , गीता या अन्य शष्ट्र मे 3 मार्ग बताए गए है।
1)कर्म + "योग"
2)ज्ञान + "योग"
3)भक्ति + " योग"
तीनों मार्गो मे "योग" शब्द आया है ।
विशेष :योग का अरथ है """ मन से भगवान शिव का रूपध्यान""" क्यूकी मन का विषय है रूपध्यान या स्मरण करना......इसिकों भक्ति कहते है या योग कहते है
1)कर्म + "योग" क्या है।
भगवान शिव का मन से स्मरण करता रहे नित्या आठों पहर और इंद्रियो से संसार कर कार्य करता रहे , मन के स्मरण से तात्पर्य यह है की मन की आसक्ति या प्रेम केवल भगवान शिव के चरणों मे हो....और संसार का कार्य अनासक्त होकर करे तो वह साधक कर्मयोगी कहलाएगा, कर्मयोगी को भी शिवप्रपति हो जाएगाई।
2)ज्ञान + "योग क्या है।
उत्तर: वही ज्ञान "ज्ञान" है जो भगवान शिव के चरणों मे भक्ति या आसक्ति उतपन करता हो, जो ज्ञान शिवजी से विमुख करके संसार मे आसक्त करवाए सब अज्ञान है.......
3)भक्ति + " योग" क्या है?
उत्तर:सारे कर्मो(वैदिक कर्म या लौकिक कर्म दोनों का त्याग) का त्याग करके एकमात्र भगवान शिव की शरण मे जाना ही भक्ति योग है,
कर्म योग + ज्ञान योग + भक्ति योग तीनों मे ""स्मरण या ध्यान "" साधना का प्राण है,
अगर आपलोग भगवान शिव का स्मरण नहीं करते और इंद्रियो से अगरबती घूमआते हो, जल चड़ाते हो , या तीर्थों की यात्रा करते हो , पूजा पाठ करते हो, शिवपुराण आदि किताबे पड़ते हो ये सब साधना नहीं ये सब केवल इंद्रियो का कर्म ,ये सब कार्य करने से शरीर की इंद्रिय पवित्र होंगी परंतु अन्तःकरण या मन नहीं शुद्ध होगा , मन को शुद्ध करने के भगवान शिव का रूपध्यान कीजिए जो रूपध्यान आप अपने मन से बना सकते है जैसी इच्छा वैसा रूप बनाये भगवान शिव उसे अपना रूप मान लेंगे और मन के बनाए हुए रूप की आपलोग सेवा कीजिए...
शिवजी के रूपध्यान मे केवल एक शर्त है
जो रूपध्यान आपलोग मन से करे ,वह रूप चाइटनवत हो, शिवजी का रूपध्यान करते हुए मन मे यह सोचिए शिवजी मुझसे बाते कर रहे, शिवजी अपने कर कमलों से मुझे स्पर्श कर रहे है ,आपको देख रहे आदि
इसी तरह जब शिव जी का रूपध्यान करते हुए आपके मन की आसक्ति हो जाएगी फिर भगवान शिव का शरीर तो ""सतचिदानंद"" स्वरूप है... अनंत मात्रा का आनंद भगवान शिव के एक एक रोम कूपो मे भरा पड़ा है , आपको आनंद का आभास होने लगेगा। इतना सुख मिलेगा की आप ब्रामलोक के सुख को भी तुछ समझोगे लात मार दोगे.... मुक्ति पाने की कामना भी मन से निकाल जाएगी बस एक कामना मन मे रहगी इस रस स्वरूप भगवान शिव का आनंद के बने चरणों मे मई भावरा बनकर रस का आस्वादन करू...
आसू बहते हुए विभोर होकर शिवजी किए सेवा करे...उनके चरण दबाए, उनको नहलाए..., उनकी पूजा करे , उनको हार पहनाए कोहिनूर का यह सब कार्य मन से करे........
मन को शुद्ध करना है,क्यूकी कर्म का करता मन है , न की इंद्रिय....
बंधन और मोक्ष का कारण मन है...इसलिए मन से ही साधना करनी होगी ,
मन को ही साधना करनी है, न की इंद्रियो को..... अनंत जन्मो मे हुमलोगों ने इंद्रिओसे भगवान शिव की खूब भक्ति की है परंतु हमने किसी एक जन्म मे भी मन से भक्ति नहीं की.....नहीं तो माया से परे होकर भगवान शिव के नित्या धाम महा कैलाश मे आनंद का भोग करते हुए शिवजी की सेवा करते
1)कर्म + "योग"
2)ज्ञान + "योग"
3)भक्ति + " योग"
तीनों मार्गो मे "योग" शब्द आया है ।
विशेष :योग का अरथ है """ मन से भगवान शिव का रूपध्यान""" क्यूकी मन का विषय है रूपध्यान या स्मरण करना......इसिकों भक्ति कहते है या योग कहते है
1)कर्म + "योग" क्या है।
भगवान शिव का मन से स्मरण करता रहे नित्या आठों पहर और इंद्रियो से संसार कर कार्य करता रहे , मन के स्मरण से तात्पर्य यह है की मन की आसक्ति या प्रेम केवल भगवान शिव के चरणों मे हो....और संसार का कार्य अनासक्त होकर करे तो वह साधक कर्मयोगी कहलाएगा, कर्मयोगी को भी शिवप्रपति हो जाएगाई।
2)ज्ञान + "योग क्या है।
उत्तर: वही ज्ञान "ज्ञान" है जो भगवान शिव के चरणों मे भक्ति या आसक्ति उतपन करता हो, जो ज्ञान शिवजी से विमुख करके संसार मे आसक्त करवाए सब अज्ञान है.......
3)भक्ति + " योग" क्या है?
उत्तर:सारे कर्मो(वैदिक कर्म या लौकिक कर्म दोनों का त्याग) का त्याग करके एकमात्र भगवान शिव की शरण मे जाना ही भक्ति योग है,
कर्म योग + ज्ञान योग + भक्ति योग तीनों मे ""स्मरण या ध्यान "" साधना का प्राण है,
अगर आपलोग भगवान शिव का स्मरण नहीं करते और इंद्रियो से अगरबती घूमआते हो, जल चड़ाते हो , या तीर्थों की यात्रा करते हो , पूजा पाठ करते हो, शिवपुराण आदि किताबे पड़ते हो ये सब साधना नहीं ये सब केवल इंद्रियो का कर्म ,ये सब कार्य करने से शरीर की इंद्रिय पवित्र होंगी परंतु अन्तःकरण या मन नहीं शुद्ध होगा , मन को शुद्ध करने के भगवान शिव का रूपध्यान कीजिए जो रूपध्यान आप अपने मन से बना सकते है जैसी इच्छा वैसा रूप बनाये भगवान शिव उसे अपना रूप मान लेंगे और मन के बनाए हुए रूप की आपलोग सेवा कीजिए...
शिवजी के रूपध्यान मे केवल एक शर्त है
जो रूपध्यान आपलोग मन से करे ,वह रूप चाइटनवत हो, शिवजी का रूपध्यान करते हुए मन मे यह सोचिए शिवजी मुझसे बाते कर रहे, शिवजी अपने कर कमलों से मुझे स्पर्श कर रहे है ,आपको देख रहे आदि
इसी तरह जब शिव जी का रूपध्यान करते हुए आपके मन की आसक्ति हो जाएगी फिर भगवान शिव का शरीर तो ""सतचिदानंद"" स्वरूप है... अनंत मात्रा का आनंद भगवान शिव के एक एक रोम कूपो मे भरा पड़ा है , आपको आनंद का आभास होने लगेगा। इतना सुख मिलेगा की आप ब्रामलोक के सुख को भी तुछ समझोगे लात मार दोगे.... मुक्ति पाने की कामना भी मन से निकाल जाएगी बस एक कामना मन मे रहगी इस रस स्वरूप भगवान शिव का आनंद के बने चरणों मे मई भावरा बनकर रस का आस्वादन करू...
आसू बहते हुए विभोर होकर शिवजी किए सेवा करे...उनके चरण दबाए, उनको नहलाए..., उनकी पूजा करे , उनको हार पहनाए कोहिनूर का यह सब कार्य मन से करे........
मन को शुद्ध करना है,क्यूकी कर्म का करता मन है , न की इंद्रिय....
बंधन और मोक्ष का कारण मन है...इसलिए मन से ही साधना करनी होगी ,
मन को ही साधना करनी है, न की इंद्रियो को..... अनंत जन्मो मे हुमलोगों ने इंद्रिओसे भगवान शिव की खूब भक्ति की है परंतु हमने किसी एक जन्म मे भी मन से भक्ति नहीं की.....नहीं तो माया से परे होकर भगवान शिव के नित्या धाम महा कैलाश मे आनंद का भोग करते हुए शिवजी की सेवा करते
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