!! श्री त्रिपुरान्त्काय नमः !!
“ त्रिपुर – दहन ! “
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एक बार एक राक्षस ने दीर्घकाल तक तपस्या की । अतिधन्य यजुर्वेद कहता है कि तप से तुम बड़ी से बड़ी सामर्थ्य प्राप्त कर सकते हो । तपवाले को कोई दबा नहीं सकता है , वे दुर्धर्ष होते हैं , उनका धर्षण नहीं किया जा सकता । ये दो चीजें आपस में विरोधी हैं - तप और भोग । तप के अन्दर कष्ट सहन किया जाता है । भोग में कष्ट को कष्ट को हटाने की प्रवृत्ति की जाती है । अतः भोगी तपस्वी नहीं हो सकता , तपस्वी भोगी नहीं हो सकता । तप से जब सामर्थ्य प्राप्त होती है उस समय मनुष्य भोग से दूर रहेगा। परन्तु यदि उसके मन में भोग है , तब तपस्या सफल हो जाने पर भी वह तपस्या सफल हो जाने पर वह तपस्या का उपयोग भोग के लिए करेगा । विवेकी व्यक्ति भी तप करता है और अविवेकी व्यक्ति भी तप करता है । विवेकी तप करता है नित्य फल को प्राप्त करने के लिए । अविवेकी वही तप करता है अनित्य फल को प्राप्त करने के लिए। तपकाल में आप दोनों को देखेँगे तो एक ही लगेंगे । परन्तु तप समाप्त होने के दोनों के जीवन में फर्क आ जायेगा । भोगी तप के समाप्त होने के बाद भोग के अन्दर लगेगा । विवेकी चाहे जितनी भोग की सामग्रियाँ उपलब्ध हो जाएँ , पर तप ही करेगा । भोगी कष्ट को सहन करना अच्छा नहीं मानता है , परन्तु कष्ट को सहन किये बिना भोग मिलता नहीं अतः कष्ट सहन करता है ।
व्यापारी भी दुकान में बड़ा कष्ट सहन करता है । ग्राहक आता है , चाहे जैसा उसका अपमान करता है , वह सब सहन करता है । तबियत खराब है , बुखार आ गया। फिर भी यदि कोई खाश ग्राहक आ गया और किसी ने खबर दी , " दो लाख का माल लेना चाहता है , आपसे मिलना चाहता है " तो झट - पट उठकर चला जाता है । एक व्यापारी बीमार हो गया था , मरणासन्न था। चिकित्सकों ने कह दिया अब मरने वाला है । उसके नौ बेटे थे । सभी बेटे पास आ गये। उस एक - एक को बुलाकर पूछना शुरु किया । पुछता , " कौन है ? " बड़ा बेटा बोला , " हाँ जी , पिताजी , मैं हूँ । " यों आठो ने कहा " मैं यहाँ हूँ । " उसने नौवें का नाम लिया और उसने भी कहा , " मैं यहाँ हूँ । " तो वह पिता उठ बैठा , " अरे सब यहाँ आ गये तो दुकान में कौन है ? " झटके से उठ बैठा , बस उसी में मर गया । व्यापार में जो लगता है वह भी कष्ट सहन करता है । परन्तु कष्ट सहन करने पर जब धन आता है तब उसका भोग के लिये उपयोग करता है। जो विवेकी होगा वह उसका भोग के लिए उपयोग नहीं करेगा ।
जो तप को श्रेष्ठ समझता है वह भोग को इसलिये नहीं छोड़ता कि उसके पास नहीं है , पास में है, परन्तु भोग नहीं करना है क्योंकि भोग की अपेक्षा भोग छोड़ना श्रेष्ठ है । जो भोगी है वह भी दुकान में मेहनत करता है, कि हमारे पास धन आ जाए तो हम भोग करेंगे । यही असुरों में व सुरों में फर्क है । तपस्या असुर भी करते हैं , पर उनका उद्देश्य भोग करना है । और जो दैवी प्रकृति के लोग हैं उनकी दृष्टि अलग है । कश्यपादि तपस्या करते हैं। वे लोग कैसे हैं ? उनके घर में कामधेनु बँधी हुई है , जो चाहा सो उससे मिल सकता है । नन्दनवन में कल्पवृक्ष लगा है , वहाँ बैठें तो जो इच्छा करें वह पूर्ण हो जाती है । ऐसी सब चीजों की उपलब्धि होने पर भी कश्यप आदि तपस्या में निरत रहते हैं तो उलब्ध भोगों की अपेक्षा किसी श्रेष्ठ प्रयोजन से ही । यह है उत्तम तपस्या का रूप । सुरों की जो तपस्या होती है , वे कष्ट सहन करते हैं क्योंकि स्वयं अपने में वह तप को इष्ट मानते हैं , दूसरे नहीं मानते हैं ।
त्रिपुरासुर ने भी तपस्या की । सारे संसार को वश में करने के लिए उसने बड़ी विलक्षण बात सोची कि " मरने से कैसे बचूँ " । उसने कहा " मेरा एक परकोटा सोने का , एक चाँदी का और एक लोहे का हो , तीनों स्वतन्त्र रूप से विचरने लगे हों वे एक सीध में आयें और उसी स्थिति में उन तीनों को एक बाण से कोई बीधें तब मैं मरूँ , अन्यथा नहीं । " इस प्रकार तीनों पुरों को उसने साथ मिला लिया अतः वह त्रिपुरासुर हो गया । यह वर प्राप्त कर उसने देवता , मानव , यक्षों , पर राज्य कायम कर लिया । सबने बहुत प्रयत्न किया उसे हराने का पर हरा न पाये । सब प्रयत्न करके हार गये तब भगवान् आशुतोष शङ्कर के पास गये : " महाराज ! हम इससे बहुत परेशान हैं आप कृपाकर इसका नाश कर दीजिए । " भगवान् शङ्कर तो इच्छामात्र से नाश कर सकते हैं , परन्तु उन्होंने सोचा कि किसी भी बड़े काम को करो तो सबको उसमें महत्त्व मिलना चाहिए । यह काम करने का उत्तम ढंग होता है , सबको मिलाकर कार्य करने से वह शोभा की चीज होती है । पुराने लोग थोड़ा भी काम करना होता था तो सबको मिलाकर सलाह करते थे। वर्तमान काल में हर आदमी अपने को सर्वसमर्थ मानता है । इसलिए पहले यह दृष्टि होती थी कि हम लोगों ने मिलकर निश्चय किया है , हम लोगों ने मिलकर यह काम किया। अब उसकी जगह विपरीत दृष्टि होती है " मैंने यह काम किया , मेरा यह निश्चय है । "
भगवान् श्रीआशुतोष शङ्कर ने कहा कि " यदि उसको मारना है तो तुम सब मदद करो , बहुत बड़ा काम है , तुम सब मदद करोगे तो मार सकेंगे"। सबने कहा , " महाराज ! जो - जो काम आप बतायेंगे , वह हम सब करेंगे । उन्होंने कहा कि त्रिपुरासुर को मारने रथ पर बैठकर जायेंगे तो रथ चाहिए । भगवती पृथ्वी से कहा कि " तु रथ बन जा " । सारी पृथ्वी रथ बन गयी । भगवान् श्रीदक्षिणामूर्ति मृगपाणि शङ्कर को चढ़कर जाना है तो कोई छोटी - मोटी चीज से तो काम चलेगा नहीं , सारी पृथ्वी होवे तो उनके बैठने के लायक होवे । रथ को चलाने वाला कौन ? ब्रह्मदेव उसको चलाने वाले बने। धनुष भी तो उनके लायक होना चाहिए । जो सुमेरु पर्वत है , सबसे बड़ा पर्वत, उसको उन्होंने धनुष बनाया । सुमेरु से कहा कि " तुम धनुष बन जाओ।"
सबसे पड़ा पर्वत सुमेरु महादेव कि सेवा के लिये उनका धनुष बन गया । भगवान् श्रीसूर्यदेव और चन्द्रदेव उस रथ के पहिये बने । सदा अपने हाथ में चक्र धारण करने वाले चक्रपाणि भगवान् श्रीविष्णु वह बाण बने जो भगवान् शङ्कर को छोड़ना था । अन्य भी देवताओं को भी तत्तत् कार्य दिये गये , सबने मिलकर तैयारी की । जब युद्ध स्थल पर पहुँचे तब हरेक के मन में आने लगा कि " यदि मैं नहीं होता तो त्रिपुरासुर का वध नहीं होता " । पृथ्वी सोचने लगी कि " मैं नहीं होती तो ये यहाँ आते कैसे ? " ब्रह्मदेव सोचने लगे कि मैं रथ नहीं चलाता तो युद्ध कैसे होता ? भगवान् श्रीसाम्ब सदाशिव समझ गये कि ये समझ रहे हैं कि इन्होंने यह काम किया ! श्री शङ्कर ने तो उनको सम्मान देने के लिये ऐसा किया था । जब त्रिपुरासुर सामने आया तब भगवान् श्री आशुतोष ने जोर का अट्टहास किया , जो से हँसे । हँसने की आवाज इतनी जोर की थी कि वे तीनों पुर खड़ककर इकट्ठे हो गये । तब सबने सोचा कि " हमने तो व्यर्थ ही यह सोचा कि हम युद्ध जिताने वाले हैं । "
इसलिये तो पुष्पदन्त ने गाया कि त्रिपुर आप के लिये कैसा था । " " त्रिपुरतृणमाण्डम्बर विधि"। " तृणम् " तिनके जैसा था । पुष्पदन्त ने तो कहा है कि उसको जलाने के लिए आपको यह सब करने की क्या जरूरत थी ? आपने इतना बड़ा भारी आडम्बर क्यों रचा ? आपके लिये तो वह तिनके जैसा था , यह सब तैयारी क्यों की ?
महादेव ने जगत् को सीख देने के लिए ऐसा किया कि हे जगत् के लोगों तुम हर काम लोगों के सहयोग से करो । जहाँ तुम्हें सहयोग की जरूरत नहीं है , वहाँ भी सहयोग से ही काम करो । प्रभुतायोग्य बुद्धि वाले कैसे होते हैँ ? उनके लिये सब चीजें क्रीड़ासाधन हैं। उनके अन्दर कोई परतन्त्र बुद्धि नहीं होती ।
हमारे शरीर में स्थूल , सूक्षम और कारण शरीर ये तीनों त्रिपुर हैं । स्थूल शरीर जो आँखों से दीख रहा है । सूक्ष्म जो इसको चला रहा है - मन , बुद्धि , इन्द्रियाँ सब इसको चला रही है । कारण शरीर अज्ञान , अज्ञान के कारण ही ये सब है । यह जो त्रिपुरासुर है उसने तप किया तभी तभी यहाँ मनुष्य जीवन में आया है , उसे इतने सारे भोग उपलब्ध हो रहे हैं । इसने भोग के लिए तप किया तो भोग मिल गये । इसका त्रिपुरभाव कैसे नष्ट होवे? तीनों पुर इकट्ठे होवें स्थूल , सूक्ष्म और कारण शरीर में जब हम वास्तविकता की दृष्टि से एकता स्थापित करें ।
ये तीनों शरीर कहाँ - कहाँ प्रतीत होते हैं ? स्थूल शरीर जाग्रत अवस्था में स्फुट होता है । जब तक हम जागते रहते हैं तब तक स्पष्ट रहता है । यहाँ स्थूल शरीर की प्रधानता है । मन भी यहाँ है , अज्ञान भी यहाँ है , परन्तु वे गौण हैं । जाग्रत अवस्था में मन गौण रहता है , इसलिए शरीर के विधेय रहेगा , शरीर के अनुरूप मन रहेगा । बुखार चढ़ा है , एक सौ चार डिग्री। मन में चाहो आप कितनी ही हिमाळ की ठंडक में जाएँ , बुखार की गर्मी उतरेगी नहीं । जाग्रत अवस्था में स्थूल शरीर प्रधान है । स्वप्न अवस्था के अन्दर सूक्ष्म शरीर , मन समझ लें , वह प्रधान है । इसलिये वहाँ आपका शरीर कुछ विघ्न नहीं डालता है । यहाँ चाहे एक सौ चार डिग्री बुखार है , मोतीझरा है , कुछ भी नहीं खा सकते । परन्तु स्वप्न में गये हुए है तो जवान शरीर है , भुख लगी हुई है , चालीस गुलाब जामुन एक के बाद एक खा रहे हैं बड़ा मजा आ रहा है। स्थूल शरीर कोई रुकावट नहीं डाल सकता । वहाँ मन जो चाहे वह करेगा । वहाँ वही प्रधान है । जब गहरी नींद में जाते हैं वहाँ कारण शरीर प्रधान है , वहाँ अज्ञान है । स्थूल , सूक्ष्म शरीर 4 दोनों ही कारण शरीर में लीन हो जाते हैं । यों ये अलग - अलग रहते हैं ।
इन्हें एक करने का मतलब है कि तीनों की समानता समझ लेंगे । समानता है कि तीनो मिथ्या है , वास्तव में तीनों कभी है नहीं । इसका नाम बाध है । त्रैकालिक अत्यन्ताभाव का निश्चय बाध होता है । सीप में जो चाँदी दिखी , वह देखने के पहले भी नहीं थी , जब दीख रही है तब भी नहीं है और जब हमें सीप दीख गयी , तब भी चाँदी नहीं होगी । सीप को देखने पर यह ज्ञान नहीं होता कि " चाँदी थी , अब सीप हो गयी"। क्या निश्चय होता है ? चाँदी न थी , न है , नहीं होगी , है तो यहाँ सीप । इसी प्रकार स्थूल , सूक्ष्म , कारण शरीर ये तीनों ही न हैं , न थे , न रहेंगे । एकमात्र अखण्डात्मा है । उस आत्मा में इन तीनों की प्रतीती हुई । पर सचमुच ये तीनों थे नहीं , न भविष्य में कभी हो सकते हैं । यह अनुभव ही इनका दहन है । जैसे त्रिपुरासुर नष्ट हुआ है भगवान् के अट्टहास से , इसी प्रकार वेदान्त के वाक्य का श्रवण होते ही ये जल जाते हैं । जैसे अट्टहास उनके मुँह का शब्द है , वैसे ही श्रुति के महावाक्य भी उन्हीं के द्वारा उच्चारित वाक्य हैं।
" तत्त्वमस्यादिवाक्योत्थ - सम्यग्धीजन्ममात्रतः ।
अविद्यासहकार्येण नासीदस्ति भविष्यति ॥ "
अविद्यासहकार्येण नासीदस्ति भविष्यति ॥ "
भगवान् श्री सुरेश्वराचार्य लिखते हैं " तत्त्वमसि " आदि जो भी जीव - ईश्वर की एकता को बतलानेवाले वाक्य हैं , उन वाक्यों से उत्पन्न होती है " सम्यग्धी " अर्थात् सम्यक बुद्धि , वास्तविक बुद्धि उत्पन्न होती है । उसके जन्म से यह सब जल जायेगा , अविद्या और अविद्या का कार्य स्थूल, सूक्ष्म शरीर बाधित हो जाएँगे ।
यदि अट्टहार मात्र से होना है , भगवान् शङ्कर ही इसे करने वाले हैं तो हमें क्या करना है? सारी तैयारी करके उन्होंने यह बताया कि " यह सब तुम करो" । साधक सहयोग करे, कार्य तो ईश्वर ही करेंगे " रथ क्षोणी " हमारा यह शरीर रथ है । कठोपनिषद् में कहा गया है , " शरीरं रथमेव तु " शरीर रथ है। स्थूल शरीर ही रथ है । इसी में बैठकर साधना होगी। इस रथ को चलानेवाला कौन है ? " शतधृतिः " ब्रह्माजी इसे चलानेवाले हैं अर्थात् ब्रह्मा जी ने जिस वेद का प्रतिपादन किया है , उस वेद के अनुसार यह शरीर चले। चलानेवाला आपका मन हो । अभी तो जो आपका मन चाह रहा है , वह आप शरीर से करवाते है और तब जो ब्रह्मा करवाना चाहते हैं , वेद करवाना चाहता है , वह शरीर से करवायेंगे । " शतधृति " है तो ब्रह्मा जी का नाम पर " शत " मायने सौ , " धृति " मायने धैर्य , सैकड़ों गुना हम - आप धैर्य को बढ़ायेंगे तब वेद के अनुसार जीवन को बना सकेंगे । धैर्य सारे धर्मो का आधार है । भगवान् श्री मनु जी ने जहाँ दस धर्मोँ को गिना , वहाँ सबसे पहले धृति अर्थात् धैर्य को गिना । भिन्न - भिन्न मतवाले कोइ किसी को प्रधान मानते हैं, कोई किसी को । जैन लोग कहते हैं , अहिंसा प्रधान है । ईसाई कहते हैं दया प्रधान है । अलग - अलग लोग अलग - अलग धर्मोँ को कहते हैं । परन्तु सनातन धर्म के भगवान् श्री मनु महाराज कहते हैं , धैर्य प्रधान है । जिसमें धैर्य होगा वह सब धर्मोँ का पालन कर सकेगा । जो अधीर होगा वह किसी धर्म का पालन कर नहीं सकेगा।
वर्तमान में कठिनाई यही है कि हम सब अपने धैर्य को खोए हुए हैं, अधीर हैं। तुरन्त जानना चाहते हैं क्या हो गया । इस अधीरता को ही लोगों ने आजकल सूचना प्रद्योगिकी का विकाश मान रखा है। किसी भी बात को जानने के लिए हमें धैर्य नहीं रखना पड़ता इसे बड़ी भारी उन्नती मानते हैं । धर्म के मार्ग पर चलने के लिए साधारण की अपेक्षा सैकड़ों गुणा ज्यादा धैर्य चाहिए । अधीर व्यक्ति धर्म का पालन कभी भी नहीं कर सकता । आजकल , जैसा बतलाया , कि लोग अधीर हैं , चाहते हैं कि तुरन्त काम हो जाये , तभी वे धर्म के मार्गोँ को छोड़ते हैं । आपका सारथी है बुद्धि , बुद्धि एकदम धैर्यवाली होनी चाहिए ।
चलाने के धनुष चाहिये । उपनिषद् में बताया है कि उपनिषद् ही धनुष है , उसी को " अगेन्द्र " कहते हैं । " अग " , मायने जो हिलता नहीं , स्थिर होता है । स्थिर चीजों के अन्दर श्रेष्ठ कौन है ? परब्रह्म परमात्मा ही वास्तविक " अगेन्द्र " है । उपनिषद् को अगेन्द्र इसलिये कहा जाता है क्योंकि उपनिषदों में परब्रह्म परमात्मा का प्रतिपादन किया है । जो जिसका साधन होता है वह उसके नाम से कह दिया जाता है। जैसे आदमी कहता है " नौकरी ही मेरी रोटी है " । नौकरी रोटी होवे तो घर में भोजन बनाने नहीं होनी चाहिए! " नौकरी रोटी है " का अर्थ है नौकरी से रोटी मिलती है । उसी प्रकार उपनिषद् से ब्रह्म की प्राप्ति है इसलिये उपनिषद् को अगेन्द्र कहा जाता है ।
इस रथ को चलाने वाला कौन ? इस रथ के दोनों तरफ सूर्य और चन्द्र हैं । सूर्य और चन्द्र के बारे में अतिधन्य महाकवि श्रीकालिदास जी ने कहा " ये द्वे कालं विधत्तः । " सूर्य और चन्द्रमा ही काल का निर्णय करते हैं , काल - विधान करते हैं । दिन का निर्णय सूर्य कर देता है और मास का निर्णय चन्द्रमा कर देता है । तात्पर्य है कि इस शरीर के अन्दर जब तक आप विद्यमान हो , तब तक उपनिषदों का विचार करिये । काल कब तक रहता है ? जब तक नींद न आ जाये । नींद आने के बाद तो काल नहीं रहता है । कितनी देर नींद आयी इसका पता नींद में नहीं लगता । कई बार तो यहाँ तक भ्रम हो जाता है कि रात - दिन का ज्ञान नहीं रहता । दिन में सोये। बहुत अच्छी नींद आयी । नींद खुली , देखा चार बज गये हैं । लेकिन इधर - उधर चारों तरफ रोशनी नजर आती है । अरे ! आज रोशनी कैसे है ? बरामदे से देखते हैं तो धूप निकल आयी है । तब ख्याल आता है कि दिन में सोय थे । गहरी नींद आ जावे तो दिन और रात में भ्रम हो जाता है । जब तक नींद न आये , तब तक साधना करनी है । जब तक काल है , तब तक विचार को चलाना है ।
बाण इसमें कौन बनता है ? भगवान् श्री विष्णु बनते हैं " रथचरण " रथ का चक्का हाथ में है जिनके । बाण को भी उपनिषद् में बतलाया है " शरो हि आत्मा " । आत्मा को बाण बताया । वही जाग्रत् , स्वप्न , सुषुप्ति , तीनों के अन्दर अनुस्यूत है । जाग्रत् , स्वप्न , सुषुप्ति का चक्र चल रहा है । यह किसके हाथ में है ? आत्मा के हाथ में।
अगर ये सारी तैयारी करिये तो ऐसा मत समझ लेंगे कि " हमने साधना की , अतः ज्ञान हो जायेगा " । होना केवल भगवान् शङ्कर के वाक्य से है " तत्त्वमसि " वाक्य से होना है । परन्तु यह सब तैयारी पूर्ण होती है तभी वाक्य से ज्ञान होता है । आचार्य श्री पुष्पदन्त ने " शिवमहिम्नः स्तोत्र " में गाया है भगवान् शङ्कर का खेल ही ऐसा होता है कि सब करो तब ज्ञान हो जाता है । " तत्त्वमसि " महावाक्य ही भगशान् शिव का अट्टहास है जिससे त्रिपुर दहन होता है । यही त्रिपुर दहन का रहस्य है।
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