"पंचमुख भगवान श्री सदाशिव " :
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मान्यता है कि भगवान शिव संसार के समस्त मंगल का मूलहैं। यजुर्वेद में उनकी स्तुति इस प्रकार की गई है-
" नम: शंभवाय च मयोभवाय च नम: शंकराय च मयस्कराय च नम: शिवाय च शिवतराय च॥"
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मान्यता है कि भगवान शिव संसार के समस्त मंगल का मूलहैं। यजुर्वेद में उनकी स्तुति इस प्रकार की गई है-
" नम: शंभवाय च मयोभवाय च नम: शंकराय च मयस्कराय च नम: शिवाय च शिवतराय च॥"
इस वैदिक ऋचा में परमात्मा को 'शिव', 'शंभु' और 'शंकर' नाम से नमन किया गया है। ' शिव ' शब्द बहुत छोटा है, पर इसके अर्थ इसे गंभीर बना देते है। 'शिव' का व्यावहारिक अर्थ है 'कल्याणकारी'। 'शंभु' का भावार्थ है 'मंगलदायक'। 'शंकर' का तात्पर्य है 'आनंद का स्रोत '। यद्यपि ये तीनों नाम भले ही भिन्न हों, लेकिन तीनों का संकेत - कल्याणकारी, मंगलदायक, आनंदघन परमात्मा की ओर ही है। वे देवाधिदेव महादेव, सबके अधिपति महेश्वर सदाशिव ही है। परंतु यह ध्यान रहे कि भगवान 'शिव' त्रिदेवों के अंतर्गत रुद्र (रौद्र रूप वाले ) - नहीं हैं। भगवान शिव की इच्छा से प्रकट रजोगुण रूप धारण करनेवाले ब्रह्मा , सत्वगुणरूप विष्णु एवं तमोगुण रूप रुद्र है, जो क्रमश: सृजन, रक्षण (पालन) तथा संहार का कार्य करते है। ये तीनों वस्तुत: सदाशिव की ही अभिव्यक्ति है, इसलिए ये शिव से पृथक भी नहीं हैं। ब्रह्मा - विष्णु-महेश तात्विक दृष्टि से एक ही है। इनमें भेद-करना अनुचित है।
दार्शनिक मान्यता है कि ब्रहृमांड पंचतत्वों से बना है। ये पांच तत्व है- जल- पृथ्वी- अग्नि - वायु और आकाश। भगवान शिव पंचानन अर्थात पांच मुख वाले है। शिवपुराण में इनके इसी पंचानन स्वरूप का ध्यान बताया गया है। ये पांच मुख-
ईशान, तत्पुरुष, अघोर, वामदेव तथा सद्योजात नाम से जाने जाते है।
ईशान, तत्पुरुष, अघोर, वामदेव तथा सद्योजात नाम से जाने जाते है।
भगवान शिव के ऊर्ध्वमुख का नाम 'ईशान' है, जिसका दुग्ध जैसा वर्ण है। 'ईशान' आकाश तत्व के अधिपति है। ईशान का अर्थ है सबके स्वामी। ईशान पंचमूर्ति महादेव की क्रीड़ामूर्ति हैं।
पूर्वमुख का नाम 'तत्पुरुष' है, जिसका वर्ण पीत ( पीला ) है। तत्पुरुष वायुतत्व के अधिपति है। तत्पुरुष तपोमूर्ति हैं। भगवान सदाशिव के दक्षिणी मुख को 'अघोर' कहा जाता है। यह नीलवर्ण ( नीले रंग का ) है। अघोर अग्नितत्व के अधिपति है। अघोर शिवजी की संहारकारी शक्ति हैं, जो भक्तों के संकटों को दूर करती है। उत्तरी मुख का नाम वामदेव है, जो कृष्णवर्ण का है। वामदेव जल तत्व के अधिपति है। वामदेव विकारों का नाश करने वाले है, अतएव इनके आश्रय में जाने पर पंचविकार काम, क्रोध, मद, लोभ और मोह नष्ट हो जाते है। भगवान शंकर के पश्चिमी मुख को ' सद्योजात ' कहा जाता है, जो श्वेतवर्ण का है। सद्योजात पृथ्वी तत्व के अधिपति है और बालक के समान परम स्वच्छ, शुद्ध और निर्विकार है। सद्योजात ज्ञानमूर्ति बनकर अज्ञानरूपी अंधकार को नष्ट करके विशुद्ध ज्ञान को प्रकाशित कर देते है। पंचभूतों ( पंचतत्वों ) के अधिपति होने के कारण ये 'भूतनाथ' कहलाते है। शिव-जगत में पांच का और भी महत्व है। रुद्राक्ष सामान्यत: पांच मुख वाला ही होता है। शिव- परिवार में भी पांच सदस्य है- शिव, पार्वती, गणेश, कार्तिकेय और नंदीश्वर ।नन्दीश्वर को हमारे आचार्यचरणों ने साक्षात् धर्म के रूप में जाना है । शिवजी की उपासना पंचाक्षर मंत्र- 'नम: शिवाय' द्वारा की जाती है। शिव काल (समय) के प्रवर्तक और नियंत्रक होने के कारण 'महाकाल' भी कहलाते है। काल की गणना 'पंचांग' के द्वारा होती है। काल के पांच अंग- तिथि, वार, नक्षत्र, योग और करण शिव के ही अवयव है।
शिव जी करुणासिंधु, भक्तवत्सल होने के कारण भक्त की भावना के वशीभूत होकर उसकी मनोकामना पूर्ण कर देते है, पर यह स्मरण रहे कि 'देवो भूत्वा यजेत् देवं।' अर्थात अपने इष्टदेव की अर्चना करने के लिए पहले अपने आपको उनकेअनुरूप बनाइये । इसलिए 'शिवो भूत्वा शिवं यजेत्' को अपने आचरण , सिद्धांत में ढाल लीजिये । शिवार्चन तभी सफल होगा, जब भक्तशिव के समान ही त्यागी, परोपकारी, संयमी, साधनाशील और सहिष्णु होगा। श्रुतियों में कहा गया है कि शिव ही समस्त प्राणियों के अंतिम विश्राम के स्थल हैं। वेदों, पुराणों और उपनिषदों के ऋषि शिव को ही सच्चिदानंदघन परब्रह्म कहकर गाया है।
यही कारण है कि निर्गुण निराकार शिवलिंग-रूप तथा सगुण-साकार मूर्तिरूप, दोनों तरह से शिव जी का पूजन होता है। 'वृष' का शाब्दिक अर्थ धर्म (जिसे हम धारण करते हैं अर्थात हमारे कर्तव्य) भी है। भगवान शंकर धर्म अर्थात कर्तव्यों के भी अधिपति है। धर्मवृष को शिव अपना वाहन बनाते हैं । विवेक , वैराग्य , शमादि एवं मुमुक्षा रूप ही धर्मरूप वृषभ के चार सबल पैर हैं । सदाशिव ख्यापित भी धर्म को करते हैं इसलिये आचरण भी धर्म का करते है । यद्यपि प्रायः धर्म का प्रदर्शन निषिद्ध है तथापि लोकसंग्रही के लिये धर्मप्रर्दन आवश्यक है क्योंकि प्रदर्शित धर्म ही लोगों को प्रेरणा दे सकता है , गुप्त नहीं । इसलिये शिव जी धर्मारूढ़ होकर लोगों को धर्माचरण की प्रेरणा देते हैं।
शिवजी की आराधना में कर्मकांड की जटिलता नहीं, वरन भावना की प्रधानता है। वे अतिशीघ्र प्रसन्न हो जाते है , आशुतोष हैं । जिस प्रकार - कालकूट - हलाहल (विष) को पीकर उन्होंने देवताओं को संकट से बचाया और 'नीलकंठ' बन गए, उसी तरह उनके भक्तों को भी उनका अनुसरण करते हुए अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए।
शिव-तत्व को जीवन में उतार लेना ही शिवत्व प्राप्त करना है और यही शिव होना है। हमारा लक्ष्य भी यही होना चाहिए। तभी शिवार्चन सफल होगा । शिव के पंचमुख का आराधन सफल होगा ।
ॐ तत्पुरुषाय विद्म्हे महादेवाय धीमहि। तन्नो रुद्रः प्रचोदयात।।
अघोरेभ्योSथ घोरेभ्यो घोरघोरतरेभ्य: ।
सर्वेभ्य सर्वशर्वेभ्यो नमस्तेSस्तु रूद्ररुपेभ्य: ।।
सर्वेभ्य सर्वशर्वेभ्यो नमस्तेSस्तु रूद्ररुपेभ्य: ।।
ॐ ईशानः सर्वविध्यानामीश्वरः सर्वभूतानां ब्रम्हाधिपति र्ब्रम्हणोधपति र्ब्रम्हा शिवो मे अस्तु सदाशिवोम।।
साभार :- सर्वज्ञ शङ्करेन्द्र
शिव की शक्ति माहेश्वरी शक्ति
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षोडशी माहेश्वरी शक्ति की सबसे मनोहर श्रीविग्रहवाली सिद्ध देवी हैं। महाविद्याओं में इनका चौथा स्थान है। सोलह अक्षरों के मंत्रवाली इन देवी की अंगकांति उदीयमान सूर्यमण्डल की आभा की भांति है। इनकी चार भुजाएं एवं तीन नेत्र हैं। ये शांतमुद्रा में लेटे हुए सदाशिव पर स्थित कमल के आसन पर आसीन हैं। इनके चारों हाथों में क्रमशः पाश, अंकुश, धनुष और बाण सुशोभित हैं। वर देने के लिए सदा सर्वदा तत्पर भगवती का श्रीविग्रह सौम्य और हृदय दया से आपूरित है। जो इनका आश्रय ग्रहण कर लेते हैं, उनमें और ईश्वर में कोई भेद नहीं रह जाता है। वस्तुतः इनकी महिमा अवर्णनीय है। संसार के समस्त मंत्र तंत्र इनकी आराधना करते हैं। वेद भी इनका वर्णन करने में असमर्थ हैं। भक्तों को ये प्रसन्न होकर सब कुछ दे देती हैं, अभीष्ट तो सीमित अर्थवाच्य है।
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षोडशी माहेश्वरी शक्ति की सबसे मनोहर श्रीविग्रहवाली सिद्ध देवी हैं। महाविद्याओं में इनका चौथा स्थान है। सोलह अक्षरों के मंत्रवाली इन देवी की अंगकांति उदीयमान सूर्यमण्डल की आभा की भांति है। इनकी चार भुजाएं एवं तीन नेत्र हैं। ये शांतमुद्रा में लेटे हुए सदाशिव पर स्थित कमल के आसन पर आसीन हैं। इनके चारों हाथों में क्रमशः पाश, अंकुश, धनुष और बाण सुशोभित हैं। वर देने के लिए सदा सर्वदा तत्पर भगवती का श्रीविग्रह सौम्य और हृदय दया से आपूरित है। जो इनका आश्रय ग्रहण कर लेते हैं, उनमें और ईश्वर में कोई भेद नहीं रह जाता है। वस्तुतः इनकी महिमा अवर्णनीय है। संसार के समस्त मंत्र तंत्र इनकी आराधना करते हैं। वेद भी इनका वर्णन करने में असमर्थ हैं। भक्तों को ये प्रसन्न होकर सब कुछ दे देती हैं, अभीष्ट तो सीमित अर्थवाच्य है।
प्रशान्त हिरण्यगर्भ ही शिव हैं और उन्हीं की शक्ति षोडशी हैं। तन्त्रशास्त्रों में षोडशी देवी को पंचवक्त्र अर्थात पांच मुखों वाली बताया गया है। चारों दिशाओं में चार और एक ऊपर की ओर मुख होने से इन्हें पंचवक्त्रा कहा जाता है। देवी के पांचों मुख तत्पुरुष, सद्योजात, वामदेव अघोर और ईशान शिव के पांचों रूपों के प्रतीक हैं। पांचों दिशाओं के रंग क्रमशः हरित, रक्त, धूम्र, नील और पीत होने से ये मुख भी उन्हीं रंगों के हैं। देवी के दस हाथों में क्रमशः अभय, टंक, शूल, वज्र, पाश, खड्ग, अंकुश, घण्टा, नाग और अग्नि हैं। इनमें षोडश कलाएं पूर्ण रूप से विकसित हैं, अतएव ये षोडशी कहलाती हैं।
षोडशी को श्रीविद्या भी माना जाता है। इनके ललिता, राज राजेश्वरी, महात्रिपुरसुन्दरी, बालापंचदशी आदि अनेक नाम हैं। इन्हें आद्याशक्ति माना जाता है। अन्य विद्याएं भोग या मोक्ष में से एक ही देती हैं। ये अपने उपासक को भुक्ति और मुक्ति दोनों प्रदान करती हैं। इनके स्थूल, सूक्ष्म, पर तथा तुरीय चार रूप हैं।
एक बार पराम्बा पार्वतीजी ने भगवान शिव से पूछा- भगवन! आपके द्वारा प्रकाशित तन्त्रशास्त्र की साधना से जीवन के आधि व्याधि, शोक संताप, दीनता हीनता तो दूर हो जायेंगे, किन्तु गर्भवास और मरण के असह्य दुख की निवृत्ति तो इससे नहीं होगी। कृपा करके इस दुख से निवृत्ति और मोक्षपद की प्राप्ति का कोई उपाय बताइये। परम कल्याणमयी पराम्बा के अनुरोध पर भगवान शंकर ने षोडशी श्रीविद्या साधना प्रणाली को प्रकट किया। भगवान शंकराचार्य ने भी श्रीविद्या के रूप में इन्हीं षोडशी देवी की उपासना की थी। इसीलिये आज भी शांकरपीठों में भगवती षोडशी राजराजेश्वरी त्रिपुरसुन्दरी की श्रीयन्त्र के रूप में आराधना चली आ रही है। भगवान शंकराचार्य ने सौन्दर्यलहरी में षोडशी श्रीविद्या की स्तुति करते हुए कहा है कि अमृत के समुद्र में एक मणि का द्वीप है, जिसमें कल्पवृक्षों की बारी है, नवरत्नों के नौ परकोटे हैं, उस वन में चिन्तामणि से निर्मित महल में ब्रम्हमय सिंहासन है, जिसमें पंचकृत्य के देवता ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र और ईश्वर आसन के पाये हैं और सदाशिव फलक हैं। सदाशिव के नाभि से निर्गत कमल पर विराजमान भगवती षोडशी त्रिपुरसुन्दरी का जो ध्यान करते हैं, वे धन्य हैं। भगवती के प्रभाव से इन्हें भोग और मोक्ष दोनों सहज ही उपलब्ध हो जाते हैं। भैरवयामल तथा शक्तिलहरी में इनकी उपासना का विस्तृत परिचय मिलता है। दुर्वासा इनके परमाराधक थे। इनकी उपासना श्रीचक्र में होती है।
ॐ नमः पार्वती पतये !
हर हर महादेव !!!
हर हर महादेव !!!
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