Wednesday, April 8, 2015

शिव’ शब्द में शकार का अर्थ है

शिव’ शब्द में शकार का अर्थ है- नित्यसुख एवं आनंद, इकार का अर्थ है- पुरूष और व कार का अर्थ है - अमृत स्वरूपा शक्ति । इस प्रकार शिव का समन्वित अर्थ होता है- कल्याण प्रदाता या कल्याण स्वरूप ।
शिव के स्वरूप को उद्घाटित करते हुए शास्त्रों में बताया गया है कि भगवान महेश्वर की प्रकृति आदि महाचक्र के कर्ता हैं, क्योंकि वे प्रकृति से परे हैं । वे सर्वज्ञ, परिपूर्ण और निःस्पृह हैं । सर्वज्ञता, तृप्ति, अनादिबोध, स्वतंत्रता, नित्य अलुप्त शक्तियों से संयुक्त होना और अपने भीतर अनंत शक्तियों को धारण करना, इन ऐश्वर्यों के धारक महेश्वर को वेदों में भी भव्य रूप में निरूपित किया गया है ।
वेदान्तों में शैव तत्त्व ज्ञान के बीज का दर्शन होता है । इस तत्त्व ज्ञान के अनुसार सृष्टि आनंद से परिपूर्ण है । आनंद से ही सृष्टि का आरंभ, उसी से स्थिति और उसी से समाहार भी है । शिव के ताण्डव नृत्य में उसी उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय की भी अभिव्यक्ति हुई है ।
उपनिषद में कहा गया है-
आनन्दो ब्रह्मति व्यजानात् । आनन्दा द्वयेव खल्वि मा नि भूतानि जायन्ते । आनन्देन जातानि जीवन्ति । आनंद प्रयान्त्य मिस विशन्तीति ।
मानव जैसे-जैसे इस शिव तत्त्व की प्राप्ति करता है, उसका दुःख दूर होता जाता है और उसे स्थायी मंगल तथा आनन्द के दर्शन होने लगते हैं ।
शिव महापुराण में शिव के कल्याणकारी स्वरूप का प्रकट करने वाली अनेक अन्तर्कथाओं का वर्णन है । यथा- मूढ़ नाम मायावी राक्षस को भस्म कर बाल विधवा ब्राह्मण पत्नी के शील की रक्षा करना, राक्षस भीम के अत्याचारों से जनता को मुक्ति देना, श्री राम को लंका-विजय का आशीर्वाद देना तथा शंख चूड़, गजासुर, दुन्दुभि निहदि जैसे दुष्टों का दमन कर जगत का कल्याण करना आदि । सृष्टि के कल्याण में शिव की क्रियाशीलता को जानकर महापुराणकार ने गुणानुवाद करते हुए लिखा-
आद्यन्त मंगलम जात समान भाव-
मार्यं तमीशम जरा मरमात्य देवम् ।
पंचाननं प्रबल पंच विनोदशीलं
संभावये मनसि शंकर माम्बिकेशं ।।
अर्थात् जो आदि से अंत तक नित्य मंगलमय है, जिनकी समानता कहीं भी नहीं है, जो आत्मा के स्वरूप को प्रकाशित करने वाले परमात्मा है, जिनके पाँच मुख हैं और जो खेल ही खेल में अनायास जगत की रचना, पालन, संहार, अनुग्रह एवं तिरोभाव रूप पाँच प्रबल कर्म करते रहते हैं, उन सर्वश्रेष्ठ अजर-अमर ईश्वर अम्बिका पति भगवान शंकर का मैं मन हीं मन चिन्तन करता हूँ ।
आज का मनुष्य चिर आनंद के वनिस्पत तात्कालिक आनंद की ओर अग्रसर है, जो कि शुद्ध बुद्धि निर्मित है, जिन्हें सामान्य अर्थ में वस्तुवादी, पदार्थवादी या बुद्धिवादी कहा जाता है । उनका सारा आधार विकृत बुद्धिवाद को लेकर है, जिसने चेतना व संवेदना के टुकड़े-टुकड़े कर दिए हैं, इसीलिए जगत् के दुःख की समस्या हल नहीं हो पाती । प्रत्येक वर्ग भ्रमित होता है, जिससे मानवता नष्ट होती है । इसका समाधान शिव-तत्त्व में है । शिवम् संदेश देता है कि मानव अपनी सब भूलें ठीक कर ले । यह जो महाविषमता का विष फैला है, वह अपनी कर्म की उन्नति से सम हो जाये, सब युक्ति बने, सबके भ्रम कट जाये, शुभ मंगल ही उनका रहस्य हो । इस स्थिति का रेखांकन इन पंक्तियों में किया है-
समरस से जड़ या चेतन, सुन्दर साकार बना था ।
चेतना एक विलसती, आनन्द अखण्ड घना था ।।
भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक जगत् के द्योतक त्रिगुणों को पुराणों में त्रिपुर का रूप दिया गया है, जिससे सृष्टि पीड़ित है । शिव इसी त्रिपुर का वध करके सृष्टि की रक्षा करते हैं । स्पष्ट है त्रिगुण, त्रिपुर या त्रैत की यह भेद बुद्धि ही संसार के दुःख का कारण है और इन तीनों का सामंजस्य या तीनों का समत्व ही आनंद का साधन है ।
समग्रतः भगवान शिव मात्र पौराणिक देवता ही नहीं, अपितु वे पंचदेवों में प्रधान अनादि सिद्ध परमेश्वर हैं एवं निगमागम आदि सभी शास्त्रों में महिमामण्डित महादेव हैं । वेदों ने इस परम तत्त्व को अव्यक्त, अजन्मा, सबका कारण, विश्व-प्रपंच का स्रष्टा, पालक एवं संहारक कहकर उनका गुणगान किया है । श्रुतियों ने सदाशिव को स्वयम्भू, शांत, प्रपंचातीत, परात्पर, परम तत्त्व कहकर स्तुति की है । समुद्र मंथन से निकल कालकूट का पान कर जगत् का कल्याण करने वाले शिव स्वयं कल्याण स्वरूप हैं । इस कल्याणकारी रूप की उपासना उच्च कोटि के सिद्धों, आत्मकल्याणकारी साधकों एवं सर्व साधारण आस्तिक जनों, सभी के लिए परम मंगलमय, परम कल्याणकारी, सर्व सिद्धिदायक और सर्व श्रेयस्कर है ।
लिंगाष्टकम
ब्रह्ममुरारिसुरार्चितलिङ्गम ,निर्मलभासितशोभितलिङ्गम् ।
जन्मजदुःखविनाशकलिङ्गम्,तत्प्रणमामि सदाशिवलिङ्गम् ॥१॥
देवमुनिप्रवरार्चितलिङ्गम् ,कामदहम् करुणाकरलिङ्गम्।
रावणदर्पविनाशनलिङ्गम् ,तत्प्रणमामि सदाशिवलिङ्गम् ॥२॥
सर्वसुगन्धिसुलेपितलिङ्गम् ,बुद्धिविवर्धनकारणलिङ्गम् ।
सिद्धसुरासुरवन्दितलिङ्गम् ,तत् प्रणमामि सदाशिवलिङ्गम् ॥३॥
कनकमहामणिभूषितलिङ्गम् ,फणिपतिवेष्टितशोभितलिङ्गम् ।
दक्षसुयज्ञविनाशनलिङ्गम् ,तत् प्रणमामि सदाशिवलिङ्गम् ॥४॥
कुङ्कुमचन्दनलेपितलिङ्गम् ,पङ्कजहारसुशोभितलिङ्गम्।
सञ्चितपापविनाशनलिङ्गम् ,तत् प्रणमामि सदाशिवलिङ्गम् ॥५॥
देवगणार्चितसेवितलिङ्गम् ,भावैर्भक्तिभिरेव च लिङ्गम् ।
दिनकरकोटिप्रभाकरलिङ्गम् ,तत् प्रणमामि सदाशिवलिङ्गम् ॥६॥
अष्टदलोपरिवेष्टितलिङ्गम् ,सर्वसमुद्भवकारणलिङ्गम्।
अष्टदरिद्रविनाशितलिङ्गम् ,तत् प्रणमामि सदाशिवलिङ्गम् ॥७॥
सुरगुरुसुरवरपूजितलिङ्गम् ,सुरवनपुष्पसदार्चितलिङ्गम्।
परात्परं परमात्मकलिङ्गम् ,तत् प्रणमामि सदाशिवलिङ्गम् ॥८॥
लिङ्गाष्टकमिदं पुण्यं यः पठेत् शिवसन्निधौ ।
शिवलोकमवाप्नोति शिवेन सह मोदते ॥
ॐ तत्पुरुषाय विद्म्हे महादेवाय धीमहि। तन्नो रुद्रः प्रचोदयात।।
अघोरेभ्योSथ घोरेभ्यो घोरघोरतरेभ्य: ।
सर्वेभ्य सर्वशर्वेभ्यो नमस्तेSस्तु रूद्ररुपेभ्य: ।।
ॐ ईशानः सर्वविध्यानामीश्वर: सर्वभूतानां ब्रम्हाधिपति र्ब्रम्हणोधपति र्ब्रम्हा शिवो मे अस्तु सदाशिवोम।।
ॐ मृत्युन्जाय, रूद्राय, नीलकंठाय, संभवे।
अमृतेशाय सर्वाय महादेवाय ते नम:॥
साभार :- ૐ~ शिव - तांडव ~ૐ

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