Wednesday, April 8, 2015

वैदिक रुद्र और पौराणिक शिव

वैदिक रुद्र और पौराणिक शिव ! " { १ }
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नारायण ! भारत का धार्मिक जगत् जिन दिवताओं के प्रकाश से प्रकाशित है , उनमें भगवान् श्री रुद्र का अपना विशिष्ट स्थान है । परवर्ती काल में यही शिव हैं । इनका चरित्र चरित - दोनों ही इतना विचित्र और वैविध्यपूर्ण है कि इनके स्वरूप का कोई एकान्तिक निर्धारण करना अत्यन्त दुष्कर है । इनकी तुलना में किसी अन्य वैदिक वैदिक अथवा पोराणिक देवता का स्वरूप कहीं अधिक स्पष्ट है किन्तु यह जटिल देव कितने जटिल हैं - यह समझना और समझाना नितान्त सम्भव नहीं है । एक ओर वे अपने रूप से प्रलयाग्निसदृश असह्य भीषण और संहारक हैं , अपने प्रचण्ड ताण्डव से ब्रह्माण्ड को क्षुब्ध तथा भय - कम्पित कर देते हैं , किन्तु दूसरी ओर वे कल्याणमय अर्थात् शिव तथा मङ्गलप्रदाता अर्थात् शङ्कर भी हैं । वैदिक रुद्र " तीव्ररोष " हैं और पौराणिक शिव " आशुतोष " अबढ़रदानी ।
नारायण ! अतिधन्य ऋग्श्रुति में गौरवर्ण के तेजस्वी युवक के रूप में वर्णित हैं जो धनुर्बाण से सुसज्जित होकर भ्रमण करते हैं । इनको तेजोयुक्त और सूर्य व स्वर्णके तुल्य दीप्तिमान् कहा गया है ।
ऋगवेद कहता है : -
" त्वेषं रूपं तवसा निह्वामहे । "
" शुक्रोभिः पिपिशे हिरण्यै । "
स्वर्णाभूषणों की आभासे इनका शरीर दमकता रहता है । कनकनिर्मित रंगबिरंगा निष्क धारण करना इन्हें विशेष प्रिया है । कहीं - कहीं ये बभ्रु अर्थात् भूरा वर्ण के , स्थिर - दृढ़ अंगों वाले युवक कहे गये हैं । इनके शुभ हाथ कोमल और शीतल कहे गये हैं । रुद्र का वाहन रथ है और इनका आयुध धनुर्बाण है । रुद्र के धनुष का नाम पिनाक है । एक स्थान पर इनके हाथ में वज्र का उल्लेख है " तवस्तमः तवसां वज्रबाहो " । " तडित् " भगवान् श्री रुद्र का विशेष आयुध है और इससे बचाने की प्रार्थना की गई है " या तो विद्युदवसृष्टा विस्परि क्ष्मया चरति परि सा वृणक्तु नः " ।
नारायण ! वैदिक देवताओं में रुद्र ही एकमात्र ऐसे देवता हैं जिनके भीम और उग्र रूपका उल्लेख किया गया है । इनके लिए जिन विशेषणों का प्रयोग किया है उनमें भीम , उग्र और उपहत्रु मुख्य है। सर्वत्र स्तोता भयपूर्वक रुद्र की स्तुति करने में प्रवृत्त होता है । वह रुद्र से अपने बन्धु - बान्धवों, पशुओं का वध न करने की प्रार्थना करता है । एक मन्त्र में रुद्र के आयुध और दुर्बुद्धि को अपने { स्तोता } के सम्बन्ध में न प्रवृत्त होने की स्तुति की गई है " परि णो हेतो रुद्रस्य वृज्याः परि त्वेषस्य दुर्मतिः मही गात् " । स्तोता रुद्र से सदैव प्रार्थना करता है कि वे क्रुद्ध न हों । एक स्थान पर ऋषि रुद्र को उनका यज्ञभाग देकर विना किसी हिंसा किए हुए मूँजवान पर्वत के उस पार चले जाने की प्रार्थना करता है । अथर्वेद में, रुद्र के चार प्रमुख अस्त्र - ज्वर , विष , खाँसी और तडित् कहे गये हैं । स्तोता इन अस्त्रों को अपने से कहीं दूर रखने तथा विद्युत को अन्यत्र गिराने की प्रार्थना करता है ।
नारायण ! रुद्र के स्वरूप का अपर पक्ष भी श्रुतियों में वर्णित है । वे अत्यन्त उदार , कृपालु , कल्याणमय और रोगों के अपहर्ता श्रेष्ठ वैद्य वताये गये है । वे उदार दाता { मीढवान् } और परम उदार { मीढुष्टम } कहे गये हैं । संसार के सभी औषधियाँ उनके अधिकार में है जिसका उपयोग वे अपने भक्तों के कल्याण में करते हैं " यो विश्वस्य क्षयति भेषजस्य " , " भिषक् - तमं त्वां भिषदां श्रृणोमि " । ऋषि उन्हें सभी वैद्यों में श्रेष्ठ कहते हैं ।
नारायण ! वैदिक वाङ्मय में रुद्र की उत्पत्ति के साथ ही इस प्रश्न का गहरा सम्बन्ध है कि इस देवता का नाम " रुद्र " क्यों पड़ा ? अर्थात् " रुद्र " शब्द की व्युत्पत्ति क्या है ? इस विषय में वैदिक वाङ्मय में अनेक मत और तत्पोषक आख्यान है । रुद्र शब्द के व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ से हमें रुद्र के आधिभौतिक स्वरूप का बोध भी होगा ।
नारायण ! " तैत्तरीय संहिता " में निबद्ध एक लधुवृतान्त के अनुसार , एक बार असुरों से संग्राम से पूर्व देवों ने अपना वसु अर्थात् धन अग्नि के पास निक्षिप्त कर दिया । संग्राम के पश्चात् देवों ने अग्नि से जब अपना धन वापस मांगा तो उस धन को वापस न देने की इच्छा वाला वह अग्नि रोने लगा । रोने के कारण अग्नि ही रुद्र कहलाया –
" देवासुराः संयत्ता आसन् । ते देवा अग्नौ वामं वसी संन्यदधत । तदग्निर्न्यकामयत तेनापाक्रमत्तद्देवा अवरुरुत्समाना अन्वायन । तदस्य सहसा आदित्सन्त । स अरोदीत् यदरोदीत् तद् - रुद्स्य रुद्रत्वम् ॥ "
नारायण ! " शतपथ ब्राह्मण " में रुद्र के नामकरण के सम्बन्ध में कई स्थानों पर निर्देशन प्राप्त होते हैं । शतपथ ब्राह्मण के दो स्थलों पर उल्लेख है कि प्रजापति से एक कुमार की उत्पत्ति हुई । पैदा होते ही वह रोने लगा । प्रजापति द्वारा रोने का कारण पूछने पर उसने कहा कि नामकरण के लिए रो रहा हूँ । तब प्रजापति ने उसे आठ नाम दिये । रोने के कारण उसका नाम रुद्र पड़ा -
" कुमारः अजायत । स अरोदीत् तस्माद् रुद्रः । "
शतपथ ब्राह्मण के स्थल पर कहा गया है कि दश प्राण और आत्मा को मिलाकर एकादश को रुद्र कहते है क्योंकि ये शरीर छोड़कर निकलते समय सगे सम्बन्धियों को रुलाते हैं -
" कतमे रुद्रा इति । दशमे पुरुषे प्राणाः । आत्मैकादशः । ते यदा अस्मात् मर्त्याच्छरीराद् उत्क्रामन्ति अथ रोदयन्ति । यद् - रोदयन्ति तस्माद् रुद्राः । "
नारायण ! शतपथ ब्राह्मण के ही एक अन्य स्थल पर आयी कथा के अनुसार सृष्टि निर्माण से श्रान्त प्रजापति को छोड़कर सभी देवता चले गये , केवल " मन्यु " नहीं गया । इससे प्रजापति रो पड़े । उनके जो आँसू भूमि और मन्यु पर गिरे उन्हीं से रुद्र की उत्पत्ति हुई -
" तद् यद् रुदितात् समभवन् तस्माद् रुद्राः । "

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