Wednesday, April 8, 2015

वैदिक रुद्र और पौराणिक शिव ! " { २ }

! श्री गुरुभ्यो नमः !!
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वैदिक रुद्र और पौराणिक शिव ! " { २ }
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नारायण ! ऋग्वेद , 1 . 114 . 1 तथा 2 . 1 . 6 मन्त्रों की व्याख्या में वेदभाष्यकार भगवान् श्रीसायण ने " रुद्र " का अर्थ दुःख या कष्य लेकर " रुद्र " का अर्थ कष्ट का अपनोदन करनेवाला लिखा है । महाभारत शान्तिपर्व { अध्याय 284 } में भी इसी प्रकार की व्युतपत्ति दी हुई है । अथर्वशिरस् उपनिषद् में " रुद्र " का एक रोचक व्यत्पत्ति देते हुए कहा गया है कि अपने भक्तों को शीघ्र ही उपलभ्य होने के कारण इन्हें रुद्र कहा जाता है -
अथ कस्मादुच्यते रुद्र यस्माद् ऋषिभिर्मान्यैर्भक्तैः दुतमस्य रूपमुपलभ्यते ।
मत्स्यपुराण " रुद्र " को " रुद्र " = रोना और " द्रु " = भागना इन दो धातुओं के योग से व्युत्पन्न करता हुआ एक मनोरञ्जक घटना का वर्णन करता है । ब्रह्मा ने सुरभि अर्थात गाय का रूप धारण करके उनके पास गयी हुई अपनी पत्नी से पुत्रों को उत्पन्न किया । वे पुत्र रुद्र कहलाये क्योंकि वे उत्पन्न होते ही ब्रह्मा की निन्दा करते हुए इधर - उधर भागने लगे –
ते रुदन्तो द्रवन्तश्च गर्हयन्तः पितामहम् ।
रोदनाद् द्रवणाच्चैव रुद्रा इति ततः स्मृताः ॥
इनके अतिरिक्त रुद्र की दो व्युतपत्तियाँ और प्राप्त होती है - " रोदयति अपराधिनो जनान् दण्डादिभिरिति रुद्रः । यद्वा , रुत् ज्ञानं { प्रकाशं } लाति राति इति रुद्रः । " इसके अनुसार अपराधियों को दण्ड देकर रुलाने वाला रुद्र है । अथवा ज्ञान प्रदाता रुद्र है ।
नारायण ! पाश्चात्य विद्वानों ने भी रुद्र की व्युत्पत्ति प्रदर्शित की है । " पिशेल " , " ग्रासमैन " और " बॉर्थ " ने " रुत् " धातु का प्रारम्भिक अर्थ चमकना अथवा प्रकाशित होना मानते हुए " रुद्र " का अर्थ प्रकाशमान् अथवा तेजस्वी किया है । " पिशेल " इस धातु का एक अर्थ " भूरा होना " भी मानता है , अतः रुद्र का अर्थ भूरा अर्थात् " बभ्रु " या लाल वर्ण अथात् लोहित करते हैं । " बॉथ " ने इस व्युत्पत्ति का समर्थन किया है । यद्यपि रुद्र का यह वर्ण श्रुतियों में कहा गया है किन्तु " रुत् " धातु के ये अर्थ कहीं भी उपलब्ध नहीं है ।
नारायण ! रुद्र के भौतिक स्वरूप की जिज्ञासा में वैदिक एवं परवर्ती वाङ्मय का अनुशीलन करने से ज्ञात होता है कि हमारी आर्ष परम्परा में " अग्नि " को ही रुद्र माना गया है । इस मान्यता के पर्याप्त अन्तःसाक्ष्य उपलब्ध हैं । तदनुसार भाष्यकारों ने रुद्र की व्युत्पत्तियाँ भी दी है । अत्यन्त विस्तृत इस प्रकरण को हम संक्षेपतः यहाँ प्रस्तुत करने का प्रयत्न करेंगे ।
नारायण ! अग्नि और रुद्र के तादात्म्य को स्थापित करनेवाला ऋग्वेद { 2 . 1 . 6 } का यह मन्त्र अतिमहत्त्वपूर्ण है –
" त्वमग्ने रुद्रो असुरो महो दिवस्त्वं शधों मारुतं पृक्ष ईशिषे । "
वेदभाष्यकार भगवान् आचार्य श्रीसायण ने इस मन्त्र का भाष्य करते हुए , रुद्र की जो व्युत्पत्ति प्रदर्शित की है और उसे " तैत्तिरीय संहिता " के उद् - धारण से पुष्ट किया है , तदनुसार " रुत् " का अर्थ दुःख , दुःख का हेतु पापादि है । उसे दूर करनेवाले रुद्र हैं और वह अग्नि ही है - " रुद् दुःखं दुःखहेतुर्वा पापादिः । तस्य द्रावयिता एतन्नमको देवो असि, रुद्रो वे एष यदग्निः इत्यादिषु { तैत्तिरीय संहिता , 5 . 4 . 3 } अग्रेः रुद्रशब्देन व्यवहारत् । " पुनः भगवान् श्रीसायण ने यहीं रुद्र की एक और रोचक व्युत्पत्ति दी है - " यद्वा , त्वं रुद्रः । रौति । मामनिष्ट्वा नराः दुःखे पतिष्यन्ति । रुद्रस्तादृशो असि । " अर्थात् लोगों को डराने के कारण भी यह देव रुद्र कहलाता है कि मुझमें आहुति न डालकर अर्थात् मेरा पूजन न करके मनुष्य दुःख में पड़कर रोते हैं ।
नारायण ! श्रुति के अनेक ऋचाओं में " रुद्र " अग्नि के विशेषण के रूप में प्रयुक्त है । अग्नि और रुद्र की एकात्मता की दृष्टि से अधोलिखित मन्त्र अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है जिसमें अग्नि को " दुर्गोंका विनाशक " और " उग्र " कहा गया है । ये दोनों ही कथन रुद्र के लिए भी प्रयुक्त होते हैं । परवर्ती साहित्य में रुद्र अर्थात् शिव द्वारा " त्रिपुरदाह " का उत्स यही है –
य उक्र इव शर्यहा तिग्मश्रृङ्गो न वंशगः ।
अग्ने पुरो रुरोजिथ ॥
इस ऋचा का भाष्य करते हुए अतिधन्य वेदभाष्यकार भगवान् श्रीसायण ने लिखा है - " रुद्रो वै एष यदग्निरिति श्रुतेः रुद्रकृतमपि त्रिपुरदहनम् अग्निकृतमेव अत्यग्निः स्तूयते । "
अथर्वेद में ऋषि सर्वसमर्थ अग्निरूपी रुद्र को प्रणाम करते हैं –
य इमा विश्वा भुवनानि चक्लृपे तस्मै रुद्राय नमो अस्तु अग्नये ॥
तैत्तिरीय संहिता में भी अग्नि को रुद्र कहा गया है । हमने अपने पूर्वल्लिखित उद्धरण में देवों द्वारा अपना निक्षिप्त धन वापस लेने का जो दिया है उसके वापस लेने का प्रयत्न करने पर रोने के कारण ही अग्नि का नाम रुद्र पड़ा । इसी संहिता में पुनः एक अन्य स्थान पर अग्नि को रुद्र कहा गया है - " रुद्रो वै रुद्रः सो अग्नि , " अग्निर्वै रुद्रः " , " अग्नि वे स देवः । " पशुनां पती रुद्र अग्निरिति " , " अथातः शतरुद्रियं जुहोति । अत्रेव सर्वोऽग्निः संस्कृतः । स एषो अत्र रुद्रो देवता " ।
नारायण ! भगवान् श्रीरुद्रदेव को " तडित् " से सम्बद्ध करके देखने पर , गड़गड़ाती हुई तेज चमक वाली मेघनिर्गत विद्युत का " रुद्र " { चिल्लाने , रोने या डराने वाला } नाम सङ्गत प्रतीत होता है । साथ ही यह भी संभावना होती है कि उग्र अर्थात् प्रचण्ड अग्नि की चटचटाहट की अन्वर्थता भी इस नाम में सङ्गत हो । भीषण रूप से तीव्र लपटों के साथ दहकती हुई अग्नि की संज्ञा रुद्र हो सकती है । " निरुक्तकार - श्रीयास्क " ने " रुद्र " शब्द की व्युत्पत्ति में इसी तथ्य का संकेत देते हैं - " रुद्रो रौरीति सतः रोरूयमाणो द्रवतीति वा रोदयतेर्वा " , " अग्निरपि रुद्र उच्यते । "
" बृहद्देवताकार " के मत में विद्युत रूप अन्तरिक्षस्थानीय अग्नि ही रुद्र है –
अरोदीदन्तरिक्षे यद् विद्युद् - वृष्टिं ददनृणाम् ।
चतुर्भिऋर्षिभिस्तेन रुद्र इत्यभिसंज्ञितः ॥ "
नारायण ! अग्नि से रुद्र का तादात्म्य सिद्ध करने में , " भगवान् आचार्य श्रीसायण " द्वारा ऋग्वेद के 1 . 114 . 1 मन्र पर किये गये " भाष्य " में प्रदर्शित " रुद्र " की यह व्युत्पत्ति अत्यन्त साधक है –
" रुणाद्धि आवृणोति इति रुद्र { क्विप् } अन्धकारादिः । तद् दृणाति निवारयति इति रुद्र ।"
" वायु पुराण " { 21 . 25 तथा 31 . 23 } में अग्नि को " कालरुद्र " कहा गया है । तथा " विष्णुपुराण " में " प्रलयकालाग्नि " को रुद्र कहा गया है - " ततः कालग्निरद्राऽसौ भुत्वा । "

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