Sunday, April 12, 2015

" नमः शिवाय " { ५ } :




" नमः शिवाय " { ५ } :
नारायण ! आइये , “ उमा – हेमवती “ क्या है इस पर चर्चा करते हैं :
" उमा - हैमवती " क्या है ? "
उमा" शब्द को यदि आप देखें तो इसमें तीन अक्षर हैं -" उ " , " म " और " अ " ॐ में भीयही तीन शब्द है " अ " , " उ " और " म" ॐ के बारे में विचार आता है कि किस अवस्था में इसका उच्चारणकरें , कौन उच्चारण करे , कैसे करे?परन्तु " उमा " का उच्चारण करने में कोई विचार करने की जरूरत नहीं है । " उमा " कोई भी बोल सकता है । जब लगातार आपबोलेंगे " उ " - " म" - " अ " , " उ" - " म " - " अ" तो " अ " - " उ " - " म " यों" ॐ " हो जाएगा अतः " उमा " का उच्चारण करने से ॐ हो जाता है । इसलिए आचार्य शङ्कर कहते कि" उमा " ओंकार ही है । जैसे " हैमवती उमा " के द्वारा यक्ष का पता चला , वैसे ही ओंकार के द्वारा परमात्मा का पता चलता हैक्योंकि उमा ओंकार रूप ही है । है परमेश्वर अपने स्वरूप में , परन्तु ओंकार की मूर्ति में ज्ञात हो जाता है। जैसे इन्द्र को यह ज्ञान हुआ कि परमेश्वर की शक्ति से ही सब देवता शक्ति वालेहैं , वैसे ही यहाँ कह रहे हैँ" सर्व देवाः शंविवन्ति इतिविष्णुः " सुर्य चन्द्रादिजो बाह्य देवता हैं आँख , कान ,नाक आदि जो अन्दर के ज्ञान - देवता हैं ,सारे ओंकार स्वरूप जो परमात्मा है उसकाध्यान करने पर उसका ज्ञान करा देते हैं इसलिए विष्णु कहा ।
जैसेओंकार विष्णु रूप है वैसे ही ब्रह्मा रूप भी है । " सर्वाणिबृंहयतिति ब्रह्म " , " बृहण " का अर्थ होता है - किसी भी चीज़ को बढ़ाना । ओंकार की ब्रह्मा - रूपताश्रद्धापूर्वक समझनी पड़ेगी । बड़ा लम्बा चौड़ा पेड़ दीखता है। " उद्दालक आरुणि " - अपने पुत्र को समझाने के लिएउसको व्यावहारिक प्रयोग करके बतलाते हैं ; कहते हैं सामनेबड़ा भारी बरगद का पेड़ दीख रहा है । बरगद का पेड़ बहुत बड़ा हुआ करता है , कलकत्ता में एक बरगद का पेड़ है वह एक किलोमीटर मेंफैला हुआ है ! उन्होंने कहा कि उसका एक फल ले कर आ । बरगद के पेड़ का फल तो छोटा -सा ही होता है , लेकर आ गया ।उन्होंने कहा इसको तोड़ , तोड़ा ।क्या दीखता है इसमें ? बहुत हीछोटे बीज़ होते है बरगद के । लडका बोला ये छोटे - छोटे बीज हैं । कहा इसके अन्दरदेख क्या दीखता है ? वह बोला, इतना छोटा है क्या दीखेगा ! पिता ने कहा , ओर ध्यान से देख । उसने बीज़ तोड़कर देखा ,तो भी क्या दीखना था । पहले ही बीज़ बहुतछोटा होता है वही यह सारा बरगद का पेड़ है । इस बात श्रद्धाके द्वारा समझो। तुम चाहे जितनाबरगद के बीज को देखो तुमको वहाँ कुछ भी नहीं दीखेगा , परन्तु यदि श्रद्धा करते हो , उस बीज़ को तुम खाद के साथ ज़मीन में डाल दो , पानी देते जाओ , एक दिन पूरा पेड़ खड़ा हो जाएगा । उसके अन्दर पत्ते ,डालियाँ , जटाएँ , तना , मूल , फूल , फल इत्यादि सारे प्रकट हो जाएँगे । बीज़ में वृक्ष है इसका पता किस से चलरहा है ? श्रद्धा से । श्रद्धाकरके बोना आदि करोगे तब तो वृक्ष पैदा होगा , और यदि उसकी जगह केवल कहो कि समझ नहीं आया तो उससेक्या होना है ! स्थूल बड़ाहुआ करता है , कलकत्ता में एकबरगद का पेड़ है वह एक किलोमीटर में फैला हुआ है ! उन्होंने कहा कि उसका एक फल लेकर आ । बरगद के पेड़ का फल तो छोटा - सा ही होता है , लेकर आ गया । उन्होंने कहा इसको तोड़ , तोड़ा । क्या दीखता है इसमें ? बहुत ही छोटे बीज़ होते है बरगद के । लडका बोलाये छोटे - छोटे बीज हैं । कहा इसके अन्दर देख क्या दीखता है ? वह बोला , इतना छोटा है क्या दीखेगा ! पिता ने कहा , ओर ध्यान से देख । उसने बीज़ तोड़कर देखा ,तो भी क्या दीखना था । पहले ही बीज़ बहुतछोटा होता है वही यह सारा बरगद का पेड़ है । इस बात श्रद्धा के द्वारा समझो । तुमचाहे जितना बरगद के बीज को देखो तुमको वहाँ कुछ भी नहीं दीखेगा , परन्तु यदि श्रद्धा करते हो , उस बीज़ को तुम खाद के साथ ज़मीन में डाल दो ,पानी देते जाओ , एक दिन पूरा पेड़ खड़ा हो जाएगा । उसके अन्दर पत्ते ,डालियाँ , जटाएँ , तना , मूल , फूल , फल इत्यादि सारे प्रकट हो जाएँगे । बीज़ में वृक्ष है इसका पता किस से चलरहा है ? श्रद्धा से । श्रद्धाकरके बोना आदि करोगे तब तो वृक्ष पैदा होगा , और यदि उसकी जगह केवल कहो कि समझ नहीं आया तो उससेक्या होना है ! स्थूल प्रकाशः । "
इसओंकार को विष्णु भी कहते हैं , ब्रह्मा भी कहते हैं और इसीको प्रकाशरूप भी कहते हैं। सारे ही अन्दर के स्थान , अर्थात्आँख , नाक , कान , हृदय - जहाँ अन्तःकरण रहता है ; और जो बाहर सूर्यचन्द्रादि ध्येय हैं , जिनका ध्यान किया जाता है , उन सब से यह ओंकार अलग है - इह प्रकार से समझना है । उसके प्रकाश से सूर्यचन्द्रादि प्रकाशित हैं , इसी प्रकार से ही आपके अन्तःकरणआँख , नाक , कान आदि सब प्रकाशित हैं ।परन्तु वह इन सब से अलग है । ये तो उसके बिना कुछ नहीं है परन्तु सब के बिना भी वहतो सब कुछ है , क्योंकि वही तो बीज़ है । ठीक जैसे बरगद केपेड़ के बीज़ है तो बाकी सब चीज़ निकल आएँगी । परन्तु बाकी सब चीज़ हों और बीज नहीं होतो वृक्ष नहीं उगेगा । ठीक इसी प्रकार से ओंकार के द्वारा प्रतिपादित परमात्माअन्दर - बाहर के प्रकाशों से अलग है । उससे सब प्रकाशित होता है , उसके बिना कोई प्रकाश नहीं हो सकता । सूर्य चन्द्रादि जो ध्यान के विषयहैं उन सबसे ओंकार अलग है, कैसे ? तोप्रदीप की तरह । जैसे दीपक रखा हुआ है मटके { घड़े } के नीचे जो तीकोना , चौकोर , गोलप्रकाश आ रहा है उन सब से अलग प्रदीप है । प्रदीप के बिना उन सब के अन्दर कोई प्रकाश नहीं । वैसे ही दीपक की तरह सबको प्रकाशित करता है इसलिए उसको प्रकाशरूप भी कहा है , वही प्रकाशरूप है वही कारण होने से व्यापक अर्थातविष्णुरूप है , उसी में से सबनिकलता है इसलिये ब्रह्मा - रूप है ।
ॐ की ब्रह्मा - विष्णु - प्रकाश रूपताओं का वर्णन कर श्रुति गाती है : -
" प्रकाशेभ्यःसदोमित्यन्तं शरीरे विद्युद्वद् द्योतयति मुहर्मुहुरिति विद्यद्वत् ,
प्रतीयां दिशं भित्वा सर्वाँल्लोकान् व्याप्नोतिव्यापयतीति व्यापनाद् व्यापी महादेवः । "
सूर्यादि प्रकाशों द्वारा परमेश्वर का ही प्रकाश जड़रूपमें प्रतीत हो रहा है और मन - इन्द्रियादि द्वारा वही परमेश्वर ज्ञानरूप मेंप्रकाशित हो रहा है । दोनों रूपों में प्रकाशित परमात्मा ही हो रहा है । सबप्रकाशों को देखना पहला कदम , इनमेंजो एक प्रकाश स्वरूप उसे समझना दूसरा कदम है । शास्त्रों ने उपासना का विधान कियाहै क्योंकि उसके अभ्यास से हम अपनी इच्छा पर नियन्त्रण कर सकते हैं। इच्छा मेंजीव की स्वतन्त्रता है । मन की कामना से एकमेक हो रखी है इसलिये अविवेकी इनका फर्क नहींपहचान पाता । कामना में वासना की अधिनता से परतंत्रता है , मन की अधीनता है जबकि इच्छा वह है जो वासना के ,मन के अधीन नहीं है । अज्ञानदशा में हममन से इतनी ज्यादा घनिष्ट एकता रखते हैं कि उससे हम अलग हैं यह समजना अत्यन्त कठिनहै । है तो खुद को स्थूल शरीर से अलग जाना पाना भी कठिन परन्तु मृत्यु का हमेंज्ञान होते रहने से कम - से - कम हमें यह परोक्ष ज्ञान तो हो जाता है कि हम शरीरसे अलग हैं । शरीर से मैं सर्वथा भिन्न हूँ - यह वास्तव में अपरोक्ष तो सरलता सेनहीं ही हो पाता , परोक्ष बोध भीमृत्यु आदि के विचार से ही होता है । शरीर से एकता तो अपरोक्ष प्रतीत होती है , भेद का परोक्ष ज्ञान हो पाता है । शास्त्र केव गुरुओं के वाक्यों से एवं युक्ति से समझ तो आता है कि मैं शरीर से अलग हूँ परप्रतीति तो मैं की शरीर से एक होकर ही बनी रहती है । स्थूल शरीर से अलगाव कापरोक्ष ज्ञान हो जाता है लेकिन मन से अपने भेद का परोक्ष ज्ञान भी अत्यन्त कठिन हैमन को अपने से अलग करके जानना भी मन से ही संभव है , कुछ भी जानने के लिए हमारे पास साधन मन ही है । इसअन्तर का प्रभाव है कि शरीर के विकारों को ये मेरे विकार है ऐसा हम महसूस नहींकरते जब कि मन के विकार हमें अपने ही विकार लगते हैं । शरीर के विकारों के कारण तोअपने में विकार प्रतीत होता है जैसे पैर नहीं चल रहा इसलिये मैं लगंड़ा हूँ ,आँख देख नहीं रही इसलिये मैं अन्धा हूँअर्थात् शरीर के विकारों से अपने को विकृत समझते हैं लेकिन लगता है कि शरीर के कारणविकार है , सचमुच में मैं विकृतनहीं हूँ। पैर बिगड़ जाये तो ऐसा नहीं लगता कि मैं खराब हो गया वरन् लगता है मैं तोठीक हूँ, पैर में खराबी आ गई ।खराब कहें , विकृत कहें - एक हीबात है - नारायण । एक के अनुभव के कारण पैर के विकार से यह तो लगता है कि मैं लगंड़ा होगया परन्तु मैं बिगड़ गया , मैंखराब हो गया , - ऐसा नहीं लगता ।अथवा वह व्यक्ति बिगड़ गया - ऐसा नहीं है । वह लगंड़ा हो गया - यह तो लगता है ,अन्धा हो गया - ऐसा लगता है । परन्तु वहविकलांग हो गया इतने मात्र से बिगड़ गया , खराब हो गया - ऐसी प्रतीति नहीं होती है । परन्तु मन कामी हो जाता है तबक्या लगता है ? मन क्रोधी होजाता है तब क्या लगता है ? मैंक्रोधी हो गया , मैं विक्षिप्तहो गया मुझ में बिगाड़ आ गया , मुझमें खराबी आ गई । इसी प्रकार किसी दूसरे में हम काम , क्रोध , लोभ आदि देखते हैं तो क्या लगता है - ये आदमी बिगड़ गया । घर में कई बार आपअनुभव करोगे ; कई लोग वहाँ बृद्धबैठे होंगे , उनका पैर नहीं चलताअथवा कमर में दर्द रहता है तो घर बाले यही कहते हैं कि उम्र हो गई है , आप आराम किया करिये , यही कहते हैं । परन्तु कभी किसी को डाँट दें क्रोध करदें , तो खाली यह नहीं कहते किशान्त रहा करिये , क्या कहते है ?इतना सत्संग सुनकर आते हैं अभी तक आपकाक्रोध गया नहीं ! रोज़ सुनते हैं पर कोई अन्तर हुआ नहीं । उनको लगता है कि मन मेंखराबी आई तो आप में खराबी आ गई । शरीर में खराबी आई तोशरीर के कारण आप खराब लग रहे हो , लेकिनसचमुच आप बिगड़े नहीं हो । परन्तु मन के बिगड़ने से ऐसा लगता है आप सचमुच बिगड़ गए ।खुद अपने को और दूसरे को भी ऐसा लगता है । इसका कारण है कि मन से अलग करके अपने कोपरोक्षरूप से भी जान नहीं रहे । अन्यथा , जैसे शरीर अपने नियमों से चलता है ऐसे मन अपने नियमों से चलता है ,जैसे शरीर के विकारों से मैं नहींबिगड़ता ऐसे मन के विकारों भी मैं नहीं बिगड़ता । उड़द की दाल , भैंस के दूध का दही ज्यादा खा लो तो खुब नींदज्यादा आती है । जैसे नींद आने का कारण वह खाना है ठीक इसी प्रकार हमारे मन मेंजन्म - जन्मान्तर से और यहाँ भी बचपन से जो वासनाएँ हैं उनके अनुसार ही मन भी अपनाकाम करता है ।
मनको बदल नहीं सकते - यह नहीं कह रहे हैं । जैसे कोई कमज़ोर है पर धीरे - धीरेव्यायाम करे , दण्ड बैठक करे , तो कुछ- न - कुछ अधिक बलवान् हो जाएगा इसी प्रकार से मन को सुधारा जा सकता है । परन्तुजैसे एक दिन में कोई सोचे मैं कमज़ोर हूँ और गामा पहलमान से लड़ने वाला बन जाऊँ तोनहीं बन सकता । ऐसे ही तत्काल मन में भी परिवर्तन नहीं लाया जा सकता । आखिर अनेकोंलोग टेनिस खेलते हैं , बैडमिन्टन खेलतेहैं , क्रिकेट खेलते हैं ,कोई एक ही तो ऐसा होता है जो सबसेज्यादा जीतता है । ठीक से समझेंगे , विचार की बात बतला रहा हूँ । सबसे ज्यादा जीतने वाला भी ऐसा नहीं है किकिसी - न - किसी जगह उसका दाव खाली न चला जाए । क्रिकेट के बल्लेबाज़ की कितनी भीअच्छाई होवे लेकिन एक सीमा है , सौमें दो चार बार तो चूकेगा ही , कितनाही बढ़िया दाव खेलने वाला गामा पहलवान हो कहीं - न - कहीं तो दाव चूकेगा ही । कितनाही बढ़िया टैनिस , बैडमिन्टनखेलने वाला हो, कहीं - न - कहींतो चिड़िया उसके साथ दगा करेगी ही । सबसे अच्छा होने पर भी सब समय नहीं जीतता औरसबसे अच्छे एक दो ही होंगे । इन सब क्षेत्रों में तो हम मान लेंगे कि सब लोग खेलनेवाले एक जैसे कैसे हो जाएँ । परन्तु मन के विषय में हम ऐसा नहीं मानते । कोई एक -आध ऐसा होगा जो काम , क्रोधादिविकारों को सबसे ज्यादा दबा लेगा और जो ज्यादा दबाने वाला है वह भी कभी - कभीचूकेगा । सब लोग अत्यधिक बल से मन को सर्वथा नियन्त्रित करने वाले नहीं हो सकतेक्योंकि बचपन से ही अभ्यास का फर्क है , मन की वासनाओं का फर्क है । यदि चाहे कि कभी न चूके तो बिना दुख हुए औरकुछ नहीं होना है क्यों कि क्योंकि बीच - बीच में कभी न कभी तो दावचूकोगे ही । सबसे ज्यादा जो जीतता है वैसा मैं क्यों नहीं ? ये अगर सोचोगे तो दुःखी ही होते रहोगे । खेल में अब्बलतो एक ही होगा , पर इसका मतलब यहनहीं है कि दूसरे खेल नहीं रहे हैं । ठीक इसी प्रकार काम - क्रोधादि विकारों कोसाधना में लगे सभी लोग दूर कर रहे हैं , किसी का सर्वाधिक दूर होता है , किसी का उससे कम दूर होता है । सर्वाधिक दूर होने वाला भी कभी - कभी चूकताहै ।
ज्ञानबतलाता है कि जैसे शरीर के विकारों से आप विकृत नहीं वैसे ही मन के विकारों से आपविकृत नहीं , जैसे शरीर के खराब होने से आप खराब नहीं होजाते , बिगड़ नहीं जाते , उसी प्रकार मनके बिगड़ जाने से , मन के खराब हो जाने से आप न खराब होते होन बिगड़ते हो । इसलिए कभी कदाचित मन चूक खया , तो हम अपनेस्वरूप से च्युत हो गे ऐसी बात नहीं है , स्वरूप तो जैसा हैवैसा ही रहेगा । परन्तु मन के साथ इतना ज्यादा एकीकरण हो रखा है , इसीलिए मन का नियन्त्रण सीखना जरूरी है क्योंकि रहना तो मन के साथ है ,जैसे शरीर के साथ रहना है । आप जानते हो मैं शरीर से अलग हूँ ,परन्तु जानने पर भी जब तक शरीर के साथ होतब तक शरीर का सुख - दुःख होगा ही । इसलिए यथासंभव शरीर को ठीक रखोगे । अगर कहींका जल - वायु अनुकूल नहीं पड़ता और बीमार रहते हो आप तो दूसरे दूसरे देश चले जातेहो । ठीक इसी प्रकार जहाँ का वातावरण मन के अनुकूल नहीं पड़े उस वातावरण से मनुष्यको दूर भी जाना पड़ सकता है । शरीर खराब हो जाए फिर भी हमें इसी जल - वायु में रहनाहै यह आग्रह रहा तो शरीर का सुख - दुःख भोगना पड़ेगा । इसी प्रकार मन की परिस्थितिहै । मन को धीरे - धीरे ठीक करना है शरीर अलग होने पर भी , क्योंकि शरीर में जब तक रहेंगे तब तक उसके सुख - दुःखसे सम्बन्ध भी होगा , इसीलिएजैसे शरीर को ठीक रखने का प्रयत्न करते हैं , वैसे ही मन के साथ जब तक रहेंगे तब तक मन के सुख -दुःख से सुख - दुःख होगा , मन कोठीक रखेंगे तो उसमें सुख - दुःख कम होंगे । नहीं होंगे हम यह नहीं कह रहे हैं ।
सुख दुःख पर श्रुतिभगवती क्या कहती है इस पर आगे विचार करेंगे :
नारायण स्मृतिः !

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