Sunday, April 12, 2015

नमः शिवाय " { ४ } :

" नमः शिवाय " { ४ } :
किसी भी शब्द का उच्चारण केवल तभी शुद्ध हो सकता है जब उसका वह अर्थ समझ आ जाय जो मंत्र दृष्टा या शब्द निर्माता का अर्थ है। इसी को संस्कृत या संस्कारिक होना कहते हैं, संस्कृत किसी भाषा का नाम नहीं है क्योंकि जो भाषा मनुष्यों के विचारों को ध्वनि में, परिवर्तित करने में समर्थ है वही संस्कार ही संस्कृत है। जैसे रेडियो जो विद्युत चुम्बकीय तरंगों को ध्वनि में परिवर्तित करती है उसी तरह जीव भी मन के विचारों को वाणी में परिवर्तित कर उच्चारण करते हैं। जब रेडियो साफ नहीं सुना जाता तब उसे कोलाहल कहते हैं इसी तरह उच्चारण में अशुद्धता जीव के असंस्कृत होने का परिचय देती है।
..... नारायण ! सारे दुःखों और भयों को निवृत्त करता है इसलिए ॐ को" तार " या " तारक " कहते है । श्रुतिभगवती कहती है -
" सर्वे देवाः संविशन्ति इति विष्णुः । "
ओंकार ही विष्णु है । विष्णु का मतलब क्या ? जिसमें सब चीज़े संवेश करे , प्रवेश करे , जिसमें सब चीजें लीन हो जाएँ उस को " विष्णु " कहते हैं । कार्य हमेशा कारण में लीन होता है ,जैसे गहना ये स्वर्ण का कार्य है ,गहने को गला देंगे तो अपने कारण स्वर्णमें लीन हो जाएगा 1 कपड़ा मिट्टीसे बना है , कपड़ा मिट्टी काकार्य है , कपड़े को जला देंगे तो वापस राख अर्थात् मिट्टी बन जाएगी । जो चीज़ जिससे पैदा हुई है वह उसी में लीन होतीहै और इसीलिए कार्य के कण - कण में कारण व्यापक हो कर रहता है । गहने के कण - कणमें स्वर्ण है , कपड़े के कण - कणमें मिट्टी है । अत्यन्त स्पष्ट देखना हो तो किसी नदी , तालाब या समुद्र में देखें : पानी से लहर पैदा होती है, वापस लहर लीन किसमें होती है ?पानी में ही लीन होती है , और लऱ के कण - कण में क्या है ? केवल पानी ही है । कार्य कारण में लीन होता है और कारण कार्य के कण - कण में व्याक होता है । सारे ही देवता जिसमें संवेश कर जातेहैं , प्रवेश कर जाते हैं वह व्यापक ॐ - ओंकार ही विष्णु है ।
" दिव " धातु से बने हुए देवता शब्द का मतलब होता है जो चेतनहोवे , प्रकाश करे ।" दिव " धातु का अर्थ है प्रकाश , देवता अर्थात् प्रकाश । प्रकाश का मतलब भौतिक जगत् में भौतिक प्रकाश और चेतन जगत् में चेतन प्रकाश । भौतिक जगत् में सूर्य ,चन्द्र इत्यादि प्रकाशरूप हैं इसलिएइनको देवता कहा जाता है । इसी प्रकार से नक्षत्र , तारे इत्यादि भी प्रकाशरूप होने से देवता कहे जाते हैं। भौतिक प्रकाश भी किसी विशिष्ट शक्ति के द्वारा ही प्रकाश वाला होता है । भगवान् श्री वासुदेव श्रीकृष्ण ने श्रीगीता जी के गायन में इसीलिए कहा कि " जो सूर्य में तेज है , जो चन्द्रमामें तेज है , जो अग्नि में तेजहै उन सब को तुम मेरा ही तेज समझना । " सब भौतिक प्रकाश में भी परमात्मा का प्रकाश ही है ,प्रकाश क्या करता है ? जो चीज़ जैसी है उसको वैसी प्रकट कर देता है ।अगर आपके कमरे में बिजली न जल रही हो और रात के बारह बजे हों तो जो लोग वहाँ बैठेहुए है वे बैठे तो वैसे ही रहेंगे परन्तु फिर भी आप लोगों का चेऱा , आप लोगों का स्वरूप प्रकट नहीं होगा । चाहेजितनी आखें फाड - फाड़ कर देखते रहें , कोई दीखेगा नहीं । अंधेरे में चीज़ें ढ़क जाती है ,किसी चीज़ की वास्तविकता का पता लगतानहीं । दिन होने से या बिजली का लट्टु जलने से या दीपक जलने से प्रकाश होते ही जोचीज़ जैसी है वैसी प्रकट हो जाती है । प्रकाश किसी नई चीज़ को बनाता नहीं है ,चीज़ें तो वहाँ पहले से है , परन्तु उन चीजों को प्रकाशित कर देता है ,जो चीज़ जैसी है उनको वैसी उघाड़ देता है। यह जो उघाड़ने की शक्ति है , किसीभी चीज़ की वास्तविकता प्रकट करने की शक्ति है उसको भगवान् ने कहा कि मेरा तेजसमझना क्योंकि बिना परमात्मा के किसी भी चीज़ की वास्तविकता का पता लग नहीं सकता ।अतः जड़ जगत् में भी प्रकाश परमात्मा का प्रतीक है । न केवल सनातन धर्म में ,वरन् संसार के सभी मत - मतान्तरों में , मज़हबों में परमात्मा की प्रकाशरूपता कावर्णन आता है , चाहे ईसाई हो या मुसलमान , वे उसे प्रकाशरूप कहते हैं ।
किन्तु इस जड़ प्रकाश को जानके के लिए चेतन प्रकाश कीजरूरत है । वह चेतन प्रकाश हमारे अन्तःकरण में , मन में प्रकाशित होता है , मन में प्रकाशित होकर इन्द्रियों के द्वारा बाहर जाताहै । आचार्य श्रीभगवत्पाद् शङ्कर ने एक बड़ा ही सुन्दर दृष्टान्त दिया उस दीपक का जो किसी मटके सेढ़का हुआ है ; मटके के अन्दर अनेक छेद हैं , उन छेदों में से उस दीपक का प्रकाश बाहर निकलता है ।जो छेद तिकोना है वहाँ प्रकाश भी तिकोना दीखता है , गोल छेद में गोल दिखता है , चौकोर छेद में प्रकाश भी चौकोर दीखता है । छेद में लालरंग का काँच लगा दें तो प्रकाश लाल रंग का दीखता है , छेद में नीले रंग का काँच लगा दें तो प्रकाश नीले रंगका दीखता है । जिस रंग का काँच उस रंग का प्रकाश दीखता है । इन भेदों का कारण हैतिकोना छेद , चौकोर छेद ,गोल छेद , उनमें लगे लाल या हरे - पीले काँच परन्तु उनमें से जोनिकल रहा है वह दीपक का एकरूप प्रकाश ही है ।
" नाना छिद्रघटोदरस्थितमहादीप्रभाभास्वरं ज्ञानं यस्य तुचक्षुरादिकरणद्वारा बहिःस्पन्दते । "
इसी प्रकार से हमारे हृदय के अन्दर बड़ा भारी दीपक काप्रकाश है । मन के अन्दर वह प्रकाश प्रकाशित हो रहा है । हम लोगों का सिर , उलटा किया हुआ घड़ा है , मटकी है । ऊपर मटकी का गोल सिरा है , वही सिर है इसमें आँखे , कान , नाक , जीभ इत्यादि सबछेद हैं। जब वह ज्ञान इन छेदों के द्वारा निकलता है तो रूप आदि के ज्ञान की तरह प्रतीत होता है । है एक ज्ञान ही , आँखों के कारण वह रूप का ज्ञान , कानके कारण वहशब्द का ज्ञान , जीभ के कारण वहरस का ज्ञान , नाक के कारण वहगंध का ज्ञान , त्वक् के कारण वहस्पर्श का ज्ञान यों विभिन्न हो जाता है । इस प्रकार से इन छेदों के कारण रूप ,रस , गंध , शब्दऔर स्पर्श का फर्क होने पर एक ज्ञान ही है ।
ज्ञान चीज़ों को प्रकाशित कर देता है , जैसी है वैसा उन्हें प्रकट कर देता है । ज्ञान वस्तु को बदलता नहीं है , जैसी है वैसी प्रकट कर देता है, इसीप्रकार यह चेतन ज्ञान , जैसीवस्तु है वैसा ज्ञान करा देता है । किसी वस्तु को बदलता नहीं है । सूर्य चन्द्रादिमें जिस प्रकार से तेज परमात्मा ही है उसी प्रकार अन्तःकरण के अन्दर , मन के अन्दर जो ज्ञानरूप प्रकाश है यह मन कानहीं परमात्मा का प्रकाश है । इस प्रकार जड़प्रकाश रूप से जो पदार्थों को उद्भासित करता है , ज्ञानरूप से भी वही पदार्थों को उद्भासित करता है । चाहे सूर्य चन्द्रादि बाह्य देवता हों , चाहे आँख - कान आदि अध्यात्म देवता हों ,सारे एक मात्र उस परमेश्वर में हीप्रविष्ट होते है क्योंकि परमेश्वर के कारण ही तेज वाले हैं ।
" सामवेद " की - " केनोपनिषत् " में कथा आई है :
एक बार देवताओं और असुरों में संघर्ष हुआ , युद्ध हुआ । प्रायः असुर जबरे पड़ते हैं ! पर परमेश्वरकी सहायता से देवता जीतते हैं। परन्तु परमेश्वर आँख - मिचोली का खेल खेलता है ,सब कुछ करता है परन्तु करता हुआ कहीं भीदीखता नहीं । कार्य करने का अपना - अपना तरीका होता है । किसी के पास अत्यधिक धनहोता है पर वह धन को दीखाता नहीं और कोई जिसके पास नया - नया धन आया हुआ हो ,सीमित धन हो वह सबको दिखाता रहता है ।इसी तरह से कोई व्यक्ति व्यायाम करने वाला हो तो सबको कहता फिरता है "आजकल योगाभ्यास कर रहे हैं" , और जो व्यक्ति सबेरे पाँच सौदण्ड और दो हजार बैठक लगाने वाला है वह किसी को कुछ कहता नहीं। परमेश्वर के अन्दरपूर्ण सामर्थ्य और पूर्ण शक्ति है , अतः वह सब करता है परन्तु कुछ भी करने वाला दीखता नहीं अतः लोगों को भ्रमहो जाता है।
एक व्यापारी था । व्यापार के सिलसिले में , कहीं उसका रुपया अटका था , वसूल कर वापस आ रहा था । पहाड़ी इलाकों मेंछोटे - छोटे नाले होते हैं , अगरऊपर पहाड़ पर पानी बरस जाता है तो नाले इतने जोर से बहते हैं कि नदी जैसे हो जातेहैं। तीन - चार घन्टों के बाद जब पानी बह जाता हैतब फिर नाले सुख जाते हैं । जब वह गया था तब धूप थी , तक़ाजा लेकर वापस आया तब तक पानी खूब बरस गया था तो एकबहुत बड़े नाले में पानी बहुत ज़ोर से बह रहा था । शाम का समय हो गया था , नाले को देखकर घबराया , कि नाले को पार करता हूँ , तो बह न जाऊँ , इधर रहता हूँ तो जंगल का मामला है , इतने रुपये मेरे पास हैं , कोई चोर - डाकू आएगा तो सब लूट ले जाएगा । मनडाँवाडोल करने लगा , क्या करूँक्या न करूँ ? अन्त में उसनेहिम्मत करके हनुमान जी से प्रार्थना की हनुमान जी , हमको पार कर देना , हम आपको सौ रुपये का लड्डु चढ़ायेंगे । पानी बहुत आयाहुआ था । हनुमान जी पर विश्वास करके चल पड़ा । जब आधा नाला पार हो गया विवेक जाग्रतहुआ , अरे सौ रुपये की मन्नत मानली । पुनः प्रार्थना करने लगा हनुमान जी बड़ी महँगाई का जमाना है , सौ तो नहीं पचास रुपये का लड्डु जरुर चढ़ादूँगा । जब चौथाई नाला रह गया तब सोचने लगा पचास रुपये भी तो बहुत होते हैं ,कहने लगा हनुमान जी , आपको क्या फर्क पड़ता है । पच्चास तो नहींग्यारह रुपये का लड्डु जरूर चढ़ा दूँगा । जब बिल्कुल किनारे आ गया , टखने जितना पानी रह गया , किनारा सामने दीख रहा था , तबउसका विवेक पूरा जाग्रत हो गया , बोलाकोई हनुमानजी वनुमानजी नहीं हैं , अपनीमेहनत से पार हो कर आ गया । यह तो सब ऐसे ही पण्डो ने बना रखे हैं , क्या लड्डु वड्डु चढ़ाने हैं । पहाड़ के नालोंमें बड़ी चट्टाने होती है ; वहजिस पर चल रहा था वह चट्टान थी । भगवान् का तो विचित्र खेल होता है; वह तो समझ ही रहा था कि पार हो गया । पर वहचट्टान जहाँ ख़त्म होती थी वहाँ गड्ढा था , बड़ा गहरा पानी था , शामहो गई थी, अंधेरा तो था ही ,अगला कदम उसका उसी गड्ढे में पड़ा और वहचला ! परमेश्वर जब मदद करते हैं तब ऐसे छिप कर करते हैं कि आदमी को लगता है किमैंने अपनी बुद्धिमत्ता से कार्य कर लिया । भगवान् कैसे मदद कर देते हैं यहसामान्य दृष्टि से दीखता ही नहीं है।
इसी प्रकार भगवान् ने जब देवताओं को जिता दिया तबदेवता विचार करने लगे हम लोगों ने कितना जबरदस्त युद्ध किया । हम लोग जीत गए ।बहुत परिश्रम किया जिससे हमारी जीत हुई , हमारी ही महिमा यह है । परमेश्वर ने विचार किया , कि देवताओं और असुरों में फ़र्क ही यह है कि देवता अभिमान - रहित होते हैं , असुर अभिमानी होते हैं ! देवताओं को जिताया और इस जीत से अभिमान करने लगगए । अभिमान में आँएगे तो ये भी नष्ट हो जाँएगें । इसलिए इनका उपकार करें ।उन्होंने एक अत्यन्त विचित्र रूप धारण किया जो सामान्य कहीं दीखता नहीं ऐसा रूप लेकर वहाँ एक चट्टान के ऊपर आकर बैठ गए , जहाँ ये देवता बैठे हुए सलाह - मशविरा कर रहे थे , अपनी बड़ाई कर रहे थे । वहीं दूर एक पत्थर के ऊपरविचित्र रूप धारण करके भगवान् आ गए , उसी रूप को " यक्षस्वरूपायजटाधराय " आदि स्तोत्रोंमें " यक्ष स्वरूप" कहते हैं । अकस्मात् देवताओं की उधर नज़र पड़ी , सोचने लगे यह विचित्र रूप में कौन है ? कोईराक्षस तो नहीं बच गया है ? पता लगाना चाहिए । आपस में सलाह - मशविरा हुई कि कौन पता लगावे ?
" वैदिक देवताओं " में बहुत प्रधान देवता हैं - " अग्नि " । वेद का प्रारम्भ ही " अग्निमीडे पुरोहितम् " से हुआ , पहला शब्द ही " अग्नि" है और पहला मन्त्र अग्नि कीस्तुति करता है । अग्नि सब चीज़ों को जानता है क्योंकि सबका " साक्षी " है। सबने देवराज - इन्द्र से कहा आप अग्नि से कहिए किअग्नि जावें । इन्द्र राजा है , अग्निदेवसे उसने कहा जाओ , पता लगा कर आओकौन है वह विचित्र रूप में , क्या बात है। अग्निदेव वहाँ से चले । जब यक्षके सामने पहुँचे तब यक्ष को देख कर अग्निदेव की बोलती बन्द हो गई। प्रभावशाली आदमी के पास जाकर साधारण आदमी की बोली बन्द हो जाती है । गया तो था पता लगाने , पर वहाँ जाकर गुमसुम खड़े हो गये ? पूछने तो वह गये थे पर यक्ष ने ही उनसे पूछा तुम कौन हो ? अग्नि ने कहा - मैंअग्नि हूँ , अग्नि देवता । साथमें उन्होंने अपना ऐश्वर्य गिना दिया । मैं " जातवेदा " हूँ । अर्थात् संसार में जो कुछ है वह उस सब को जाननेवाला हूँ ! यक्ष को अन्दर ही अन्दर हँसी आनी ही थी कि अपनी उपाधि लिए घूमता है" जातवेदा " और पता है ही नहीं कि मैं कौन हूँ ! अग्नि कातो विचार था कि मेरी पदवी सुन कर यक्ष प्रभावित होगा , पर यक्ष ने उसकी मूर्खता देखकर आगे पूछा तुम क्या करसकते हो ? वह कहने लगा - " मैं सब को जला सकता हूँ । " यक्ष ने कहा अच्छा , ऐसी बात है , उसने वहाँ एक तिनका रख दिया , कहा सब कुछ जला सकते हो तो इसको जला कर दिखाओ , पता लगे जला सकते हो कि नहीं । अग्नि को बड़ा भारी गुस्सा आया कि यह मुझे इतना सा तिनका जलाने को कह रहा है । मैं " कालाग्नि " होकर संसार को जलाने वाला । जैसे कोई व्यक्ति आवे , उससे पूछे क्या पढ़े लिखे हो ? वह कहे आक्सफोर्ट का ट्राईपॉस अंग्रेज़ी भाषा में किया है । उससे कहेंअच्छा डॉग की स्पैलिंग कहो , तुमकोआती है कि नहीं ? तो वह अपना बड़ाअपमान महसूस करेगा कि पहली - दूसरी कक्षा का सवाल पूछ लिया । अग्नि ने सोचा इसकोतो मैं झट से जला दूँगा यह बात क्या करता है ! जब जलाने लगा तो सारा जोर मार लियापर वह तिनका न जला सका ! जिसने अपना अभिमान बतलाया हो कि आक्सपोर्ड का ट्राइपॉज हैऔर उसे डॉग की स्पैलिंग न आवे तो उसका क्या हाल होगा ? ऐसे ही अग्नि वहाँ से चूपचाप वापस चला गया , अत्यन्त अपने को अपमानित महसूस किया ।
देवताओं के पास जाकर सच्ची बात बताई कि मेरे साथ ऐसाफ़जीता हुआ । आदमी अपने फ़जीते को हमेशा छिपाता है । जा कर खाली इतना ही कहा कि मुझेपता नहीं लगा । अब देवताओं ने विचार किया कि " वायु देवता " को भेजें । वायु बड़ा प्रभावशाली देवता है यहाँ तक कि" वेद में एक जगह उसे प्रत्यक्ष ब्रह्म कहकर भी प्रणाम किया है " । वायु वहाँ गया वायु का भी वही हाल हुआ । वायु यक्ष को देखकर अभिभूत होगया , उससे कुछ पूछ - ताछ नहींकर पाया । यक्ष ने ही पूछा तुम कौन हो ? उसने कहा - " मैं वायु हूँ " , " मातरिश्वा " हूँ । यक्ष ने कहा करते क्या हो ? क्या है तुम्हारी ताकत ? क्याकर सकते है ? वायु कहने लगा -" पृथ्वी में जो कुछ है सब उड़ासकता हूँ " । वह छोटा सातिनका तो वहाँ पहले से पड़ा ही हुआ था , यक्ष ने कहा ज़रा इसको उड़ा तो दो । वायु को भी अपमान महसूस हुआ कि तिनका कोउड़ाने को कह रहा है , पर उसनेसारा ज़ोर लगा लिया फिर भी तिनके को टस - से - मस नहीं कर सका , उड़ाने की बात तो और है । अपमानित महसूस करकेवह भी वापस आ गया ।
जब देवताओं के समीप पहुँचा तो अग्नि ने इशारे से पूछाक्या हुआ , तो वायु ने इशारे सेकह दिया तेरी भी चुप ओर मेरी भी चुप । प्रकट में उसने यही कहा कि मुझे पता नहींलगा जी , सारी बात नहीं बताई ।इन्द्र ने विचार किया कि यदि अग्नि और वायु इसका पता नहीं लगा सके तो मैं स्वयंवहाँ जाऊँ । इन्द्र वहाँ चल पड़े ।
नारायण! देवराज इन्द्र को आते देख" यक्ष ने विचार किया कि देवताओंका राजा होने से इसको बहुत ही ज्यादा घमण्ड है । देवताओं को ही घमण्ड हो रहा है यह तो उसका राजा है। " यक्षस्वरूप" - परमेश्वर तुरन्त लुप्त हो गे ,अन्तर्धान हो गे । अग्नि और वायु देव सेतो बात की इन्द्र से बात भी न की । परन्तु इन्द्र के अन्दर विवेक पैदा हुआ ,इन्द्र के अन्दर श्रद्धा जागी , उसे तीव्र जिज्ञासा हुई कि यह क्या था ?जिसे मैं देखने आया , जिसका पता अग्नि और वायु नहीं लगा सके ,वह कौन था ? मन में श्रद्धा हुई , कि वह अवश्य कुछ था ? यह नहीं हुआ कि मेरे आते ही गायब हो गया , मेरे से डर गया, भाग गया। उसकी जगह उसमें यह जागृति हुई कि , यहाँ कुछ था, वह क्याहै , उसका पता लगाना है। यहश्रद्धा का रूप है । परमात्मा है , इसकाहम पता लगावें , यह हुआ श्रद्धाका रूप । भगवान् कहीं दीखता तो है नहीं - यह है अविश्वास का रूप । इन्द्र के मनमें श्रद्धा हुई , इन्द्र ने वहाँ श्रद्धापूर्वक मन ही मन विचार किया - यह कौन था , क्या था ? उसने देखा कि " भगवती हैमवती उमा "
अत्यन्तसुन्दर स्वर्ण के गहनों को पहने हुए वहाँ खड़ी हुई हैं जहाँ वह यक्ष था । इन्द्र ने उनसे पूछाये कौन था ? " भगवती श्रीहैमवती उमा " ने सर्वप्रथम उसको बतलाया ये साक्षात् भगवान् थे , परमेश्वर थे , जिनकीसामर्थ्य से तुम लोग जीत गए और जिनको तुम जीतने के बाद भूल गए , वही परमेश्वर ये थे । इस प्रकार "भगवती उमा " के कहने से सबसे पहले इन्द्र ने परमेश्वर का ज्ञानप्राप्त किया।
" उमा - हैमवती " क्या है ? इस पर आगे की श्रृंखला में विचार करेंगे !

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