Sunday, April 12, 2015

शिव

शिव
(१) गायत्री मन्त्र के ३ पाद हैं-स्रष्टा रूप ब्रह्मा, तेज रूप में दृश्य विष्णु जिसका रूप सूर्य है, तथा ज्ञान रूप शिव। इसी प्रकार ॐ के भी ३ भाग हैं, चतुर्थ अव्यक्त है जिसे अर्द्धमात्रा कहते हैं।
(२) केवल शिव रूप में, गायत्री का प्रथम पाद मूल सङ्कल्प है जिससे सृष्टि हुयी, द्वितीय पाद तेज का अनुभव है, तृतीय पाद ज्ञान है। तीव्र तेज रुद्र है, शान्त रूप शिव है। सौर मण्डल में १०० सूर्य व्यास (योजन) तक ताप क्षेत्र या रुद्र है। इसके बाद चन्द्र कक्षा से शिव क्षेत्र आरम्भ होता है, जिससे पृथ्वी पर जीवन है। अतः शिव के ललाट पर चन्द्र है, मूल स्थान को सिर या शीर्ष कहते हैं। शनि कक्षा तक या १००० व्यास दूरी तक शिव, उसके बाद शिवतर १ लाख व्यास तक तथा सौरमण्डल की सीमा १५७ लाख व्यास तक शिवतम क्षेत्र है। ये विष्णु के ३ पद हैं जो ताप, तेज और प्रकाश क्षेत्र हैं, या अग्नि-वायु-रवि हैं। उसके बाद ब्रह्माण्ड सूर्य के प्रकाश की सीमा है अर्थात् इसकी सीमा पर सूर्य विन्दु-मात्र दीखता है, उसके बाद वह भी नहीं दीखता। यह सूर्य रूप विष्णु का परम-पद है।
या ते रुद्र शिवा तनूरघोरा ऽपापकाशिनी। तया नस्तन्वा शन्तमया गिरिशन्तामि चाकशीहि॥
(वाजसनेयी सं. १६/२, श्वेताश्वतर उपनिषद् ३/५)
नमः शिवाय च शिवतराय च (वाजसनेयी सं. १६/४१, तैत्तिरीय सं. ४/५/८/१, मैत्रायणी सं. २/९/७)
यो वः शिवतमो रसः, तस्य भाजयतेह नः। (अघमर्षण मन्त्र, वाजसनेयी सं. ११/५१)
सदाशिवाय विद्महे, सहस्राक्षाय धीमहि तन्नो साम्बः प्रचोदयात्। (वनदुर्गा उपनिषद् १४१)
शत योजने ह वा एष (आदित्य) इतस्तपति (कौषीतकि ब्राह्मण उपनिषद् ८/३)
स एष (आदित्यः) एक शतविधस्तस्य रश्मयः ।
शतविधा एष एवैक शततमो य एष तपति (शतपथ ब्राह्मण १०/२/४/३)
युक्ता ह्यस्य (इन्द्रस्य) हरयः शतादशेति । सहस्रं हैत आदित्यस्य रश्मयः (इन्द्रः=आदित्यः) जैमिनीय उपनिषद् ब्राह्मण १/४४/५)
असौ यस्ताम्रो अरुण उत बभ्रुः सुमङ्गलः ।
ये चैनं रुद्रा अभितो दिक्षु श्रिताः सहस्रोऽवैषां हेड ईमहे ॥ (वा.यजु.१६/६)
इदं विष्णुर्विचक्रमे त्रेधा निदधे पदम्। समूळ्हमस्य पांसुरे॥ (ऋक् १/२२/१७)
तद् विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः। दिवीव चक्षुराततम्। (ऋक् १/२२/२०)
ख व्योम खत्रय ख-सागर षट्क-नाग व्योमाष्ट शून्य यम-रूप-नगाष्ट-चन्द्राः।
ब्रह्माण्ड सम्पुटपरिभ्रमणं समन्तादभ्यन्तरा दिनकरस्य कर-प्रसाराः। (सूर्य सिद्धान्त १२/ ९०)
ज्ञान रूप में गुरु-शिष्य परम्परा का प्रतीक वट है। जैसे वट वृक्ष की शाखा जमीन से लग कर अपने जैसा वृक्ष बनाता है, उसी प्रकार गुरु अपना ज्ञान देकर शिष्य को अपने जैसा मनुष्य बनाता है। मूल वृक्ष शिव है, उससे निकले अन्य वृक्ष लोकभाषा में दुमदुमा (द्रुम से द्रुम) हैं। दुमदुमा हनुमान् का प्रतीक है।
वटविटपसमीपे भूमिभागे निषण्णं, सकलमुनिजनानां ज्ञानदातारमारात्।
त्रिभुवनगुरुमीशं दक्षिणामूर्तिदेवं, जननमरणदुःखच्छेददक्षं नमामि॥११॥ (दक्षिणामूर्ति स्तोत्र)
(३) काल रूप-अव्यक्त विश्व से व्यक्त विश्व होने पर ताप, तेज आदि के भेद हुये जो इनकी कला हैं। भेदों में परिवर्तन का अनुभव काल है। परिवर्तन की क्रिया विष्णु, तथा उसका अनुभव या माप शिव है। निर्माण या परिवर्तन यज्ञ है, अतः शिव और विष्णु दोनों को यज्ञ कहा गया है। परिवर्तन के अनुसार ४ प्रकार के काल तथा ४ पुरुष हैं-
(क) क्षर पुरुष-नित्य काल-जो स्थिति एक बार चली गयी वह वापस नहीं आती है, बालक वृद्ध हो सकता है, वृद्ध बालक नहीं। अतः इसे मृत्यु भी कहते हैं।
(ख) अक्षर पुरुष-जन्य काल-क्रियात्मक परिचय अक्षर है। यज्ञ चक्र से काल की माप होती है अतः इसे जन्य कहते हैं। प्राकृतिक चक्रों दिन, मास, वर्ष से काल की माप होती है।
(ग) अव्यय पुरुष-पुरुष में परिवर्तन का क्रम अव्यय है, क्योंकि कुल मिला कर कोई अन्तर नहीं होता, एक जगह जो वृद्धि है उतना दूसरे स्थान पर क्षय होता है। अतः इसे अक्षय काल कहते हैं। कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो (गीता ११/३२)
सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः । अनेन प्रसविष्यध्वमेषवोऽस्त्विष्ट कामधुक् ॥१०॥
एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः ….॥१६॥ (गीता, ३) कालः कलयतामहम् ॥(गीता, १०/३०)
(घ) अतिसूक्ष्म या अति विराट् हमारे अनुभव से परे है अतः वह परात्पर पुरुष तथा उसका काल परात्पर काल है (भागवत पुराण ३/११)।
(५) काल के शिव रुद्र रूप-विश्व की क्रियाओं का समन्वय नृत्य है। जब क्रियाओं का परस्पर मेल होता है तो वह लास्य है, अतः इससे रास रूप सृष्टि होती है। जब क्रियाओं में ताल-मेल नहीं होता तो वह शिव (रुद्र) का ताण्डव होता है जिससे प्रलय होता है। वर्ष में संवत्सर को अग्नि रूप कहते हैं, इसका आरम्भ सम्वत् जलाने से होता है। धीरे धीरे अग्नि खर्च होती रहती झै। जब बिल्कुल खाली हो जाती है, तो फाल्गुन मास होता है। फल्गु = खाली (फल्ग्व्या च कलया कृताः= असत् से सत् की सृष्टि हुयी-गजेन्द्र मोक्ष)। यह खाली बाल्टी जैसा है अतः इसे दोल पूर्णिमा भी कहते हैं। सम्वत्सर रूप सृष्टि का अन्त शिव का श्मशान है, जिसके बाद पुनः सम्वत् जला कर नया वर्ष आरम्भ होता है। अतः फाल्गुन मास शिव मास है। मास में शुक्ल पक्ष में चन्द्र का प्रकाश बढ़ता है अतः यह रुद्र रूप है। कृष्ण पक्ष शिव है। कृष्ण पक्ष में भी रात्रि को जब चतुर्दशी तिथि होगी तब शिवरात्रि होगी, क्यों कि १४ भुवन हैं, जो तेज शान्त होने से उत्पन्न हुये हैं। शान्त या शिव अवस्था में ही सृष्टि होती है। जिस विचार से सृष्टि सम्भव है वह सङ्कल्प है-तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु (यजुर्वेद ३४/१-५)। अतः फाल्गुन कृष्ण पक्ष १४ (रात्रि कालीन) तिथि को महाशिवरात्रि होती है।
(६) लिङ्ग-लीनं + गमयति = लिंग। ३ प्रकार के लिंग हैं-
मूल स्वरूप लिङ्गत्वान्मूलमन्त्र इति स्मृतः ।
सूक्ष्मत्वात्कारणत्वाच्च लयनाद् गमनादपि ।
लक्षणात्परमेशस्य लिङ्गमित्यभिधीयते ॥ (योगशिखोपनिषद्, २/९, १०)
(क) स्वयम्भू लिङ्ग-लीनं गमयति यस्मिन् मूल स्वरूपे। जिस मूल स्वरूप में वस्तु लीन होती है तथा उसी से पुनः उत्पन्न होती है, वह स्वयम्भू लिंग है। यह एक ही है। (ख) बाण लिंग-लीनं गमयति यस्मिन् दिशायाम्-जिस दिशा में गति है वह बाण लिंग है। बाण चिह्न द्वारा गति की दिशा भी दिखाते हैं। ३ आयाम का आकाश है, अतः बाण लिंग ३ हैं। (ग) इतर लिंग-लीनं गमयति यस्मिन् बाह्य स्वरूपे-जिस बाहरी रूप या आवरण में वस्तु है वह इतर (other) लिंग है। यह अनन्त प्रकार का है, पर १२ मास में सूर्य की १२ प्रकार की ज्योति के अनुसार इसे १२ ज्योतिर्लिंगों में विभक्त किया गया है।
आकाश में विश्व का मूल स्रोत अव्यक्त लिंग है, ब्रह्माण्डों के समूह के रूप में व्यक्त स्वयम्भू लिंग है। ब्रह्माण्ड या आकाशगंगा से गति का आरम्भ होता है, अतः यह बाण-लिंग है। सौर मण्डल में ही विविध सृष्टि होती है अतः यह इतर लिंग है।
भारत में अव्यक्त स्वयम्भू लिंग भुवनेश्वर का लिंगराज है, जो जगन्नाथ धाम की सीमा है। वेद में उषा सूक्त में पृथ्वी परिधि का १/२ अंश = ५५.५ कि.मी. धाम है, जगन्नाथ मन्दिर से उतनी दूरी पर एकाम्र क्षेत्र तथा लिंगराज है। व्यक्त स्वयम्भू लिंग ब्रह्मा के पुष्कर क्षेत्र की सीमापर मेवाड़ का एकलिंग है। त्रिलिंग क्षेत्र तेलंगना है, जो अब नया राज्य बना है। जनमेजय काल में यह त्रिकलिंग का भाग था। १२ ज्योतिर्लिंग भारत के १२ स्थानों में हैं।
शरीर में मूल्धार में स्वयम्भू लिंग है क्योंकि यहां के अंगों से प्रजनन होता है। शरीर के भीतर श्वास और रक्त सञ्चार हृदय के अनाहत चक्र से होते हैं अतः यह बाण लिंग है। विविध वस्तुओं का स्वरूप आंख से दीकता है तथा मस्तिष्क द्वारा बोध होता है, अतः इसके आज्ञा चक्र में इतर लिंग है।
योनिस्थं तत्परं तेजः स्वयम्भू लिङ्ग संस्थितम् । परिस्फुरद् वादि सान्तं चतुर्वर्णं चतुर्दलम् ।
कुलाभिधं सुवर्णाभं स्वयम्भू लिङ्ग संगतम् । हृदयस्थे अनाहतं नाम चतुर्थं पद्मजं भवेत् ।
पद्मस्थं तत्परं तेजो बाण लिङ्गं प्रकीर्त्तितम् । आज्ञापद्मं भ्रुवो र्मध्ये हक्षोपेतं द्विपत्रकम् ।
तुरीयं तृतीय लिङ्गं तदाहं मुक्तिदायकः । (शिवसंहिता, पटल ५)
(७) शब्द लिंग-अव्यक्त शब्दों को व्यक्त अक्षरों द्वारा प्रकट करना भी लिंग (Lingua = language) है। लिंग पुराण में अलग अलग उद्देश्यों के लिये अलग अलग लिपियों का उल्लेख है-
शुद्ध स्फटिक संकाशं शुभाष्टस्त्रिंशदाक्षरम् । मेधाकरमभूद् भूयः सर्वधर्मार्थ साधकम् ॥८३॥
गायत्री प्रभवं मन्त्रं हरितं वश्यकारकम् । चतुर्विंशति वर्णाढ्यं चतुष्कलमनुत्तमम् ॥८४॥
अथर्वमसितं मन्त्रं कलाष्टक समायुतम् । अभिचारिकमत्यर्थं त्रयस्त्रिंशच्छुभाक्षरम्॥८५॥
यजुर्वेद समायुक्तम् पञ्चत्रिंशच्छुभाक्षरम् । कलाष्टक समायुक्तम् सुश्वेतं शान्तिकं तथा॥८६॥
त्रयोदश कलायुक्तम् बालाद्यैः सह लोहितम् । सामोद्भवं जगत्याद्यं बृद्धिसंहार कारकम् ॥८७॥
वर्णाः षडधिकाः षष्टिरस्य मन्त्रवरस्य तु । पञ्च मन्त्रास्तथा लब्ध्वा जजाप भगवान् हरिः ॥८८॥
(लिङ्ग पुराण १/१७)
गायत्री के २४ अक्षर-४ प्रकार के पुरुषार्थ के लिये।
कृष्ण अथर्व के ३३ अक्षर-अभिचार के लिये।
३८ अक्षर-धर्म और अर्थ के लिये (मय लिपि के ३७ अक्षर=अवकहडा चक्र + ॐ)
यजुर्वेद के ३५ अक्षर-शुभ और शान्ति के लिये-३५ अक्षरों की गुरुमुखी लिपि।
साम के ६६ अक्षर-संगीत तथा मन्त्र के लिये।
(८) दिगम्बर-ज्ञान अव्यक्त होता है अतः शिव को दिगम्बर कहा गया है। क्रिया व्यक्त होती है-उसमें भीतरी गति कृष्ण तथा बाह्य गति जो दीखती है वह शुक्ल है। अतः क्रिया या यज्ञ रूप विष्णु का शरीर कृष्ण पर उनका वस्त्र श्वेत है। हम ज्ञान या क्रिया रूप की ही उपासना करते हैं ( २ प्रकार की निष्ठा), पदार्थ रूप ब्रह्मा की नहीं। अतह शैव और वैष्णव के समान दिगम्बर और श्वेताम्बर मार्ग जैन धर्म में हैं।
लोकेऽस्मिन् द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ।
ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्। (गीता ३/३)
नित्याय शुद्धाय दिगम्बराय तस्मै नकाराय नमः शिवाय।१।
दिव्याय देवाय दिगम्बराय तस्मै य काराय नमः शिवाय।५। (शिव पञ्चाक्षर स्तोत्र)
शुक्लाम्बरधरं विष्णुं शशिवर्णं चतुर्भुजम् ।
प्रसन्नवदनं ध्यायेत् सर्वविघ्नोपशान्तये॥ (विष्णु स्तोत्र)
(९) महादेव-किसी पुर या वस्तु का प्रभाव क्षेत्र महर् है। आकाश में यह सौर मण्डल का बाहरी आवरण है। इसके देवता महादेव हैं। जिस मनुष्य में यज्ञ रूपी वृषभ रव करता है, वह महादेव के समान पूजनीय है। अतः यज्ञ संस्था आरम्भ करने वाले पुरु को सम्मान के लिये पुरु-रवा कहा गया और भोजपुरी में आज भी सम्मान के लिये रवा सम्बोधन होता है। मनुष्य रूप में शिव के ११ वें अवतार को भी ऋषभ देव कहा गया (कूर्म पुराण, अध्याय १०), जो ३ प्रकार के यज्ञों असि-मसि-कृषि का पुनरुद्धार करने के कारण स्वायम्भुव मनु (ब्रह्मा) के वंशज कहे गये हैं। यह इस युग में जैन धर्म के प्रथम तीर्थङ्कर हुये। महर् की सीमा महावीर है जो हनुमान् रूप में शिव के पुत्र या अवतार हैं। जब अपना युग समाप्त होता है तब पुत्र का आरम्भ होता है। अतः तीर्थङ्कर परम्परा के अन्तिम को भी महावीर कहा गया।
(१०) प्राण रूप-किसी भी पिण्ड में स्थित ब्रह्म ॐ है। प्राण रूप में गति होने पर वह रं है। उसके कारण क्रिया होने पर वह कं (कर्त्ता) है। शान्त अवस्था शं है जिसमें सृष्टि बनी रहती है। तीनों का समन्वय है शंकर = शं + कं + रं। ब्रह्म को ॐ तत्सत् कहते हैं, ॐ गतिशील होने पर रं है। व्यक्ति का निर्देश (तत्) नाम से होता है अतः व्यक्ति के प्राण निकलने पर उसे ॐतत्सत् के स्थान पर राम(रं)-नाम सत् कहते हैं।
प्राणो वै रं प्राणे हीमानि भूतानि रमन्ते। (बृहदारण्यक उपनिषद् ५/१२/१)
प्राणो वै वायुः। (मैतायणी उपनिषद् ६/३३)
ॐ तत्सदिति निर्देशः ब्रह्मणः त्रिविधः स्मृतः (गीता १७/२३)
(११) मृत्युञ्जय-नित्य काल के रूप में शिव मृत्यु हैं अतः मृत्यु को जीतने के लिये उनके महामृत्युञ्जय मन्त्र का पाठ होता है।
त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्। उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्॥
(ऋग्वेद ७/५९/१२, अथर्व १४/१/१७, वाजसनेयी यजुर्वेद ३/६०, तैत्तिरीय सं. १/८/६/२)
हम ३ अम्बक (सृष्टि के ३ स्रोत, पृथ्वी-आकाश के ३ जोड़े) रूप में शिव की पूजा करते हैं, जिससे हमें सुगन्धि (पृथ्वी तत्त्व का गुण गन्ध है, भौतिक सम्पत्ति की वृद्धि सुगन्धि है) मिले तथा उससे अपनी पुष्टि हो। शिव के ज्ञान तथा प्रसाद से मनुष्य मृत्यु के बन्धन से वैसे ही मुक्त हो जाता है जैसे वट वृक्ष से उसका फल स्वतः गिर जाता है।
३ अम्बकों (पूर्ण विश्व, ब्रह्माण्ड, सौर मण्डल) का क्षेत्र गौरी है, जिनको त्र्यम्बका कहते हैं-
सर्वमंगल माङ्गल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके।
शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणी नमोऽस्तु ते। (दुर्गा सप्तशती ११/१०)
_________________
ऊँ कारं बिन्दु संयुक्तं नित्यं ध्यायन्ति योगिनः ।
कामदं मोक्षदं चैव ऊँकाराय नमो नमः ।
नमन्ते ऋषयो देवाः नमन्त्यप्सर सामगणाः ।
नराः नमन्ति देवेशं नकाराय नमो नमः ।
महादेवं महात्माननम् महाध्यान-परायणम् ।
महापापहरम् देवम् मकाराय नमो नमः ।
शिवम् शान्तम् जगन्नाथम् लोकानुग्रहकारकम् ।
शिवमेकपदम् नित्यं शि-काराय नमो नमः ।
वाहनं वृषभो यस्य वासुकी कण्ठभूषणम् ।
वामे शक्तिधरं देवम् वाकाराय नमो नमः ।
यत्र-यत्र स्थितो देवः सर्व-व्यापी महेश्वरः ।
यो गुरु सर्व देवानां य-काराय नमो नमः ।
ऊँ नमः शिवाय नमो नमः ।
ऊँ नमः शिवाय नमो नमः ।
ओम् नमः शिवाय नमो नमः ।
ओम् नमः शिवाय नमो नमः । ।।।।।
______________
वेद में स्वर्ग, नरक और सन्यास-स्वः = स्वर्ग लोक।
यह ३ पृथ्वियों के लिये ३ प्रकार के हैं।
३ पृथ्वी और उनके ३ आकाश (द्यौ = स्वः) मिलाकर ७ लोक होते हैं।
या ते धामानि परमाणि यावमा या मध्यमा विश्वकर्मन्नुतेमा । (ऋग्वेद १०/८१/४)
इन धामों में जिस क्षेत्र की कोई सीमा या घेरा है वह पृथ्वी है, उसे माता कहा गया है (माता के गर्भ में जन्म होता है)। उसके चारो तरफ का आकाश पिता है।
परिमण्डलः (गोलाकारः) उ वाऽअयं (पृथिवी) लोकः। (शतपथ ब्राह्मण ७/१/१/३७)
बीच में अन्तरिक्ष के बाद तृतीय लोक द्यौ है-द्यौः वै तृतीयं रजः। (शतपथ ब्राह्मण ६/७/४/५)
३ माता तथा ३ पिता-
तिस्रो मातॄस्त्रीन् पितॄन् बिभ्रदेक ऊर्ध्वतस्थौ नेमवग्लापयन्ति ।
मन्त्रयन्ते दिवो अमुष्य पृष्ठे विश्वमिदं वाचमविश्वमिन्वाम् ॥ (ऋग्वेद १/१६४/१०)
३ भूमि और उनके द्यौ के बीच के ३ अन्तरिक्ष-
सौर मण्डल में मित्र, परमेष्ठी (आकाशगंगा) में वरुण), आकाशगंगाओं के बीच में अर्यमा-
तिस्रो भूमीर्धारयन् त्रीरुत द्यून्त्रीणि व्रता विदथे अन्तरेषाम् ।
ऋतेनादित्या महि वो महित्वं तदर्यमन् वरुण मित्र चारु ॥ (ऋग्वेद २/२७/८)
भूमि-आकाश के ३ युग्म-
१. पृथ्वी ग्रह-मैत्रेय मण्डल (सूर्य का गुरुत्व क्षेत्र)
२. ----- मैत्रेय-जनः लोक (परमेष्ठी, बर्ह्माण्ड)
३. ---- ----- ब्रह्माण्ड-स्वयम्भू या सत्यलोक।
इनकी परिभाषा सूर्य-चन्द्र के प्रकाश के अनुसार विष्णु पुराण में है-
रवि चन्द्रमसोर्यावन्मयूखैरवभास्यते । स समुद्र सरिच्छैला पृथिवी तावती स्मृता ॥
यावत्प्रमाणा पृथिवी विस्तार परिमण्डलात् ।
नभस्तावत्प्रमाणं वै व्यास मण्डलतो द्विज ॥ (विष्णु पुराण २/७/३-४)
(१) जो क्षेत्र सूर्य-चन्द्र दोनों से प्रकाशित है वह पृथ्वी ग्रह है। इसमें नदी, समुद्र, पर्वत हैं।
(२) सूर्य का प्रकाश जहां तक आकाशगंगा से अधिक है, वह सौरमण्डल है। इसकी ग्रह-कक्षायें अन्तरिक्ष हैं। इनसे बने क्षेत्रों को द्वीप तथा उनके बीच के भागों को समुद्र कहा गया है। सूर्य के चारों तरफ ५० कोटि योजन का प्रकाशित भाग लोक और उसके बाद १०० कोटि योजन तक के ग्रह अलोक (अप्रकाशित) हैं। यह नेपचून तक के ग्रह है। प्लूटो को ६०,००० बालखिल्यों में कहा है जो औसतन ६० गुणा दूरी (पृथ्वी-सूर्य की तुलना में) हैं। लोक-अलोक की सीमा को लोकालोक पर्वत कहा है।
(३) सूर्य प्रकाश की अन्तिम सीमा को ब्रह्माण्ड कहा है जहां वह विन्दुमात्र दीखता है। यह सूर्य रूपी विष्णु का परम-पद है। इसमें भी मध्य के घूमते वलय क्षेत्र को आकाशगंगा अर्थात् नदी कहते हैं। विष्णु के ३ पद सौरमण्डल के भीतर हैं-जो ताप (१०० सूर्यव्यास या योजन दूर तक), तेज (१००० योजन दूर तक) और प्रकाश (१ लाख योजन तक) के क्षेत्र हैं।शत योजने ह वा एष (आदित्यः) इतस्तपति । (कौषीतकि ब्राह्मण ८/३)
सहस्रं हैत आदित्यस्य रश्मयः। (जैमिनीय ब्राह्मण उपनिषद् १/४४/५)
भूमेर्योजन लक्षे तु सौरं मैत्रेय मण्डलम् । (विष्णु पुराण २/७/५)
इदं विष्णुर्विचक्रमे त्रेधा निदधे पदम् । (ऋक् १/२२/१७)
तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः। (ऋक् १/२२/२०
नरक पृथ्वी के ही क्षेत्र हैं जो खराब आचरण या जलवायु के क्षेत्र हैं। बिना ऋत का क्षेत्र निर्ऋति है, इसकी दिशा भारत से नैर्ऋत्य कोण (दक्षिण-पश्चिम) में है। इसका अपभ्रंश नेग्रिटो है। गर्म क्षेत्र में नीची भूमि नरक है (डेड सी, यम का क्षेत्र-यमन, अम्मान, सना = संयमनी)। ऊंची भूमि त्रिविष्टप = तिब्बत स्वर्ग है। उसी का पश्चिमी विष्णु विटप कश्मीर है। शीत क्षेत्र में ऊंची भूमि नर्क है (नार्वे का स्थानीय नाम नोर्गे), तथा नीची भूमि स्वर्ग (स्वीडेन को स्वर्गे कहते हैं)।ऋग्वेद, मण्डल १०, सूक्त १४, १५ में यम का विशद वर्णन है। उसमें आकाश के यमलोक तथा मरणोपरान्त पितरों की गति का भी उल्लेख है।
जिन ऋषियों ने वेद मन्त्रों का दर्शन किया उन्हींने पुराण भी लिखॆ जिनके बाद मॆं भी संस्करण हुये अतः उनको वेद-विरुद्ध मानना उचित नहीं है। सन्यासी के लिये वेद में हंस शब्द है, जिसे परमहंस भी कहा है। वह हंस की तरह चलता रहता है, एक स्थान या विषय से बन्धा नहीं रहता। नारद परिव्राजक आदि उपनिषदों में इसकी व्याख्या है।
____________________
सनातन धर्म क्या है? एक सन्त इसी धर्म के नियमों के अनुसार सन्त बन कर उसका चोला डाले हैं पर सदा सनातन धर्म की संस्थाओं का व्यंग्य-विरोध करते रहते हैं। उनका कहना है कि यह सनातन है तो इस पर खतरा कैसे है? सदा अच्छी चीजों पर ही खतरा रहता है-घर की सफाई बार-बार करते हैं पुनः गन्दा हो जाता है। देव मात्र ३३ हैं, असुर ९९, प्रायः असुर जीत जाते हैं पर उनका मार्ग श्रेष्ठ नहीं है। वैवस्वत यम भारत का पश्चिम सीमा (अमरावती से ९० अंश पश्चिम संयमनी = यमन, सना) के राजा थे। उन्होंने कठोपनिषद् में नचिकेता से दोनों का विवेचन किया है-श्रेय (स्थायी या सनातन लाभ) तथा प्रेय (तात्कालिक लाभ या उसका लोभ)। श्रेय मार्ग पर चलनेवाले सनातनी हैं, उनको सम्मान के लिये श्री कहते हैं। जो हमें प्रेय दे सके वह पीर है या दक्षिण भारत में पेरिया। अन्य अर्थ हैं-
(१) सनातन पुरुष की उपासना-सनातनस्त्वं पुरुषो मतो मे (गीता ११/१८) या भूत-भविष्य-वर्त्तमान में सर्वव्यापी-पुरुष एवेदं सर्वं यद् भूतं यच्च भाव्यं (पुरुष सूक्त)। या उसके शब्द रूप वेद की उपासना -भूतं भव्यं भविष्यं च सर्वं वेदात् प्रसिद्ध्यति। (मनुस्मृति १२/९७)।
(२) सनातन या अमृत तत्त्व की उपासना-मृत्योर्मा अमृतं गमय आदि। जो निर्मित होता है वह बुलबुला जैसा क्षणभङ्गुर है, वह मूल स्रोत से मुक्त होता है अतः उसे मुच्यु या परोक्ष में मृत्यु कहा है। उसके बदले मूल स्रोत की ही निष्ठा। वेद में इसे केवल सनात् भी कहा है-सनादेव शीर्यते सनाभिः। (ऋक् १/१६४/१३, अथर्व ९/९/११) अनापिरिन्द्र जनुषा सनादसि (ऋक् ८/२१/१३, अथर्व २०/११४/१, साम १/३९९, २/७३९), सनाद् राजभ्यो जुह्वा जुहोमि (ऋक् २/२७/१, वाज यजु ३४/५४, काण्वसं ११/१२, निरुक्त १२/३६)। मूल तत्त्व से जो बुद्-बुद् निकलता है उसे द्रप्सः (drops) या स्कन्द (निकलना, गिरना) भी कहा है। आकाशगंगा, तारे, ग्रह-सभी द्रप्सः हैं।
(३) स्वयं यज्ञ द्वारा उत्पादन कर उपभोग करना देवों का कार्य है। इसके विपरीत दूसरों का अपहरण करना असुर वृत्ति है-यज्ञेनयज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्। ते ह नाकः महिमानः सचन्तः यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः। यज्ञ द्वारा इच्छित वस्तु का उत्पादन होता है-अनेन प्रसविष्यध्वं एष वोऽस्तु इष्टकामधुक् (गीता ३/१०)। लूटा माल खत्म हो जाता है पर यज्ञ का चक्र सदा चलता रहता है-एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः (गीता ३/१६)। अतः यज्ञ को चलाते रहना सनातन धर्म है। केवल इसका बचा भाग लेना चाहिये जिससे यह चक्र बन्द नहीं हो-यज्ञशिष्टामृत भुजः (गीता ४/३१) यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः (गीता ३/१३) सनातन है। असुरों द्वारा इसी लूट प्रवृत्ति के कारण सनातन धर्म पर सदा खतरा रहता है।
(४) अदिति उपासना-पृथ्वी कक्षावृत्त का २७ नक्षत्रों में विभाजन दिति है पर उस चक्र में निरन्तन गति अदिति है। जैसे सम्वत्सर चक्र सदा चलता रहता है, जिस विन्दु पर एक सम्वत्सर समाप्त होता है वहीं से नया आरम्भ होता है-यह कालचक्र के अनुसार अर्थ हैअदितिर्जातम् अदितिर्जनित्वम् (ऋग्वेद १/८९/१०)प्राचीन नियम था अदिति का नक्षत्र पुनर्वसु आने पर रथयात्रा होगी। देवों का वर्ष इसी से आरम्भ होता था। पुनर्वसु नक्षत्र में सूर्य आने से वर्ष (अदिति) का अन्त भी होता है और नये वर्ष (अदिति) का आरम्भ भी, अतः कहा गया है-अदितिर्जातम्, अदितिर्जनित्वम्। सूर्य पुनर्वसु नक्षत्र में ५ से १८ जुलाई तक रहता है, इस अवधि में रथयात्रा या बाहुड़ा निश्चय होगा। जो सनातन तत्त्व अदिति की उपासना करता है वह आदित्य या सनातनी है। दिति का अर्थ काटना है। उनके उपासक दैत्य विश्व को दो भागों में काट देते हैं-उनका भगवान् ठीक है बाकी गलत हैं अपने भगवान मत में धर्म परिवर्तन नहीं तो हत्या करना। उनके प्रचारक या पैगम्बर के पहले सभी गलत था। सनातन मत वाले ज्ञान या सभ्यता कि निरन्तरता को समझते हैं।
______________________________
ईशावास्यमिदं सर्वं यत् किञ्च जगत्यां जगत्।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः मा गृधः कस्यस्विद् धनम्॥ (ईशावास्य उपनिषद् प्रथम मन्त्र)
यहां ’तेन’ पूर्व पंक्ति के ’जगत्यां जगत्’ का विशेषण है।
ब्रह्म का वह रूप जो सभी प्राणियों के हृदय में रह कर नियन्त्रण करता है-’ईश’ है।
ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन् सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया।
जैसे माया यन्त्र (रोबोट) उसके भीतर की मशीन से चलता है, वैसे ही ईश (ईश्वर) सभी प्राणियों के हृदय में रह कर उनको नियन्त्रित करता है। व्यक्ति रूप में यह ईश है, उसका व्यापक रूप ईशा है।
यह ईश की तृतीया विभक्ति नहीं है जैसा कुछ लोगों को लगता है।
इसी प्रकार परिमित पिण्ड भूमि है, उसका प्रभाव क्षेत्र भूमा है-
यो वै भूमा तत् सुखम्, नाल्पे सुखमस्ति,
भूमैव सुखं-छान्दोग्य उप. (७/२३/१)।
सीमाबद्ध पुर के भीतर पुरुष है, असीम के साथ मिल कर या आधार सहित पूरुष है।
जगत् और जगत्यां जगत् क्या हैं? सीमा के भीतर अपने आप में पूर्ण रचना विश्व है। इसके १३ स्तर हैं अतः विश्व शब्द १३ का द्योतक है। शरीर का १ सेल भी विश्व है। यह जन्म होते ही सभी धातुओं का संग्रह (कलन) करने लगता है अतः कलिल = सेल है।
अनाद्यनन्तं कलिलस्य मध्ये विश्वस्य स्रष्टारमनेक रूपम् (श्वेताश्वतर उप. ५/१३)।
मनुष्य शरीर भी एक विश्व है, उससे बड़े विश्व पृथ्वी, सौर मण्डल, ब्रह्माण्ड, तपः लोक (दृश्य जगत्) क्रमशः कोटि-कोटि गुणा बड़े हैं (विष्णु पुराण २/७/३-४)। मनुष्य से छोटे विश्व ७ हैं जो क्रमशः १-१ लाख भाग छोटे है। इन विश्वों के भीतर जो क्रिया होती है वह जगत् है। जगत् के जीव सर्ग १४ प्रकार के हैं। जगत् के कर्म अव्यक्त हैं।

No comments:

Post a Comment