शिवलिङ्ग का शास्त्रसम्मत प्रतीकात्मक अर्थ -
लिङ्ग शब्द के कई अर्थ होते है जिनमें से सबसे प्रसिद्ध अर्थ है - चिह्न या प्रतीक। “लिगि गतौ” यह धातु “जानना” इस अर्थ में भी प्रयुक्त होती है। जिसके द्वारा जाना जाये, पहचाना जाये, उसे “लिङ्ग” कहते हैं। न्याय की भाषा में कहा जाये, तो जिस धुएं को देख कर अग्नि का अनुमान किया जाता है, उस धुएं को “लिङ्ग” कहा जा सकता है, क्योंकि उससे अग्नि को जाना जाता है। इसी प्रकार योगदर्शन की भाषा में बुद्धि को लिङ्ग कहा जाता है, क्योंकि उससे सब कुछ जाना जाता है या उसको हम सब के द्वारा जाना जाता है, जबकि उसकी कारणभूता प्रकृति को नहीं जाना जा सकता, अतः उसे “अलिङ्ग” या अज्ञेय कह देते हैं। निर्गुण निराकार वेदप्रतिपाद्य शिवतत्त्व को जिस चिह्न या प्रतीक द्वारा जाना जा सके, ध्यान में बैठाया जा सके, उपासना का विषय बनाया जा सके, उसे ही “शिव लिङ्ग” कहते हैं।
यह शिवलङ्ग वास्तव में उस सर्वव्यापी चेतनतत्त्व का प्रतीक है, जो हमारे शरीर में विद्यमान है तथा सभी चेतनात्मिका मनोवृत्तियों के रूप में अभिव्यक्त हो रहा है, जिसे ऋग्वेद के उपनिषद् “प्रज्ञानं ब्रह्म” कह देते हैं। यह अर्थ स्कन्द पुराणान्तर्गत सूत संहिता (यज्ञवैभव खण्ड में २८ वां शिवलिङ्ग स्वरूप कथन नामक अध्याय) तथा उस पर वेदान्त के विश्व प्रसिद्ध विद्वान् श्री विद्यारण्य मुनि (ईसा की १२वीं शताब्दी में दक्षिण में विजय नगर हिन्दू साम्राज्य के संस्थापक तथा शृङ्गेरी शंकराचार्य पीठ के १२ वें शंकराचार्य, पंचदशी आदि वेदान्त के प्रसिद्ध ग्रन्थों के रचयिता, तथा वेदों के प्रसिद्ध भाष्यकार सायणाचार्य के मार्गदर्शक व बड़े भाई) की तात्पर्यदीपिका टीका के आधार पर प्रस्तुत किया जा रहा है। इस अर्थ के अतिरिक्त पुरुष के गुप्ताङ्ग परक अर्थ में कोई भी शास्त्रीय आधार नहीं है, वह आधुनिक लोगों द्वारा फैलायी जा रही भ्रान्त व दूषित कुधारणा है, जिसका तिरस्कार प्रत्येक प्रबुद्ध सनातन धर्मावलम्बी को करना चाहिये।वास्तविकता तो यह है कि निर्गुण निराकार शिवतत्त्व का कोई लिंङग अर्थात् चिह्न नहीं, पर फिर भी उपासना ध्यान आदि शास्त्रीय व्यवहारों की सिद्धि के लिये अनेक चक्रों में शिवलिङ्ग की स्थापना तथा उसकी उपासना आगम ग्रन्थों में बतलायी गयी है –
शिवस्य लिङ्गं कथयन्ति केचिद् बहुप्रकारं व्यवहारदृष्ट्या।
न तत्त्वदृष्ट्या परमेश्वरस्य स्वयंप्रभस्यास्य न चास्ति लिङ्गम्॥
(स्कन्दपुराण सूत संहिता)
शिवलिङ्ग के नीचे का जो भाग है, जिसे योनि भी कहते हैं, उसका अर्थ होता है – मानव-गुप्ताङ्ग तथा गुदा-मार्ग के मध्य का हीरे के आकार का भाग, जो ध्यान करने के लिये बैठते समय शरीर का आधार होता है, इसी को आगमशास्त्रों में मूलाधार चक्र भी कहते हैं। (देखें शिवसंहिता ५.५७) साधना की अवस्था में सर्वप्रथम शिवतत्त्व की अवस्थिति का ध्यान मूलाधार चक्र में प्रतिष्ठित करके ही किया जाता है, उसके उपरान्त उदरस्थ मणिपूर चक्र में, अनाहत चक्र में तथा भ्रूमध्य में अवस्थित आज्ञाचक्र में प्रतिष्ठित करके ध्यान किया जाता है। इस प्रकार पूरा शरीर ही शिवस्वरूप हो जाता है।
शिवलिङ्ग को कुण्डली मार कर लपेटा सर्प कुण्डलिनी शक्ति (माया, प्रकृति) का प्रतीक है, जो परमात्मा की आद्या शक्ति तथा इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का सृजन करने वाली शक्ति है, इस प्रकार योनि नहीं, अपितु सर्प “शक्ति” का प्रतीक है। हमारे शरीर में यह मूलाधार चक्र से निकल कर रीड़ की हड्डी व मेरुतन्त्र के रूप में सिर के अन्तर्गत विद्यमान मस्तिष्क तक जा रही है। सर्प के सहस्र फण वास्तव में उसी सहस्रार चक्र या मानवीय मस्तिष्क का प्रतीक हैं, जिसमें चैतन्य तत्त्व (चित्) की चेतना (चित्त) के रूप में अभिव्यक्ति होती है।
अज्ञानियों में अज्ञान के गहन अन्धकार के प्रभाव से यह सोयी रहती है, शिवलिङ्ग की उपासना इसी शक्ति को जागृत करने के लिये की जाती है। यही शिवलिङ्गोपासना का शास्त्रसम्मत सार-रूप निरूपण है। जिस प्रकार जल डालने से बीज की प्रसुप्त अङ्कुरण शक्ति को जागृत किया जाता है, उसी प्रकार शिवलिङ्ग की उपासना इस प्रसुप्त शक्ति को जागृत करके हमारे जीवन में अद्भुत आध्यात्मिक शक्ति तथा दिव्य चेतना का संचार कर देती है। यही शिवलिङ्गोपासना का शास्त्रीय रहस्य है॥
“ॐ नमस्ते रूद्र” (यजुर्वेद)॥
लिङ्ग शब्द के कई अर्थ होते है जिनमें से सबसे प्रसिद्ध अर्थ है - चिह्न या प्रतीक। “लिगि गतौ” यह धातु “जानना” इस अर्थ में भी प्रयुक्त होती है। जिसके द्वारा जाना जाये, पहचाना जाये, उसे “लिङ्ग” कहते हैं। न्याय की भाषा में कहा जाये, तो जिस धुएं को देख कर अग्नि का अनुमान किया जाता है, उस धुएं को “लिङ्ग” कहा जा सकता है, क्योंकि उससे अग्नि को जाना जाता है। इसी प्रकार योगदर्शन की भाषा में बुद्धि को लिङ्ग कहा जाता है, क्योंकि उससे सब कुछ जाना जाता है या उसको हम सब के द्वारा जाना जाता है, जबकि उसकी कारणभूता प्रकृति को नहीं जाना जा सकता, अतः उसे “अलिङ्ग” या अज्ञेय कह देते हैं। निर्गुण निराकार वेदप्रतिपाद्य शिवतत्त्व को जिस चिह्न या प्रतीक द्वारा जाना जा सके, ध्यान में बैठाया जा सके, उपासना का विषय बनाया जा सके, उसे ही “शिव लिङ्ग” कहते हैं।
यह शिवलङ्ग वास्तव में उस सर्वव्यापी चेतनतत्त्व का प्रतीक है, जो हमारे शरीर में विद्यमान है तथा सभी चेतनात्मिका मनोवृत्तियों के रूप में अभिव्यक्त हो रहा है, जिसे ऋग्वेद के उपनिषद् “प्रज्ञानं ब्रह्म” कह देते हैं। यह अर्थ स्कन्द पुराणान्तर्गत सूत संहिता (यज्ञवैभव खण्ड में २८ वां शिवलिङ्ग स्वरूप कथन नामक अध्याय) तथा उस पर वेदान्त के विश्व प्रसिद्ध विद्वान् श्री विद्यारण्य मुनि (ईसा की १२वीं शताब्दी में दक्षिण में विजय नगर हिन्दू साम्राज्य के संस्थापक तथा शृङ्गेरी शंकराचार्य पीठ के १२ वें शंकराचार्य, पंचदशी आदि वेदान्त के प्रसिद्ध ग्रन्थों के रचयिता, तथा वेदों के प्रसिद्ध भाष्यकार सायणाचार्य के मार्गदर्शक व बड़े भाई) की तात्पर्यदीपिका टीका के आधार पर प्रस्तुत किया जा रहा है। इस अर्थ के अतिरिक्त पुरुष के गुप्ताङ्ग परक अर्थ में कोई भी शास्त्रीय आधार नहीं है, वह आधुनिक लोगों द्वारा फैलायी जा रही भ्रान्त व दूषित कुधारणा है, जिसका तिरस्कार प्रत्येक प्रबुद्ध सनातन धर्मावलम्बी को करना चाहिये।वास्तविकता तो यह है कि निर्गुण निराकार शिवतत्त्व का कोई लिंङग अर्थात् चिह्न नहीं, पर फिर भी उपासना ध्यान आदि शास्त्रीय व्यवहारों की सिद्धि के लिये अनेक चक्रों में शिवलिङ्ग की स्थापना तथा उसकी उपासना आगम ग्रन्थों में बतलायी गयी है –
शिवस्य लिङ्गं कथयन्ति केचिद् बहुप्रकारं व्यवहारदृष्ट्या।
न तत्त्वदृष्ट्या परमेश्वरस्य स्वयंप्रभस्यास्य न चास्ति लिङ्गम्॥
(स्कन्दपुराण सूत संहिता)
शिवलिङ्ग के नीचे का जो भाग है, जिसे योनि भी कहते हैं, उसका अर्थ होता है – मानव-गुप्ताङ्ग तथा गुदा-मार्ग के मध्य का हीरे के आकार का भाग, जो ध्यान करने के लिये बैठते समय शरीर का आधार होता है, इसी को आगमशास्त्रों में मूलाधार चक्र भी कहते हैं। (देखें शिवसंहिता ५.५७) साधना की अवस्था में सर्वप्रथम शिवतत्त्व की अवस्थिति का ध्यान मूलाधार चक्र में प्रतिष्ठित करके ही किया जाता है, उसके उपरान्त उदरस्थ मणिपूर चक्र में, अनाहत चक्र में तथा भ्रूमध्य में अवस्थित आज्ञाचक्र में प्रतिष्ठित करके ध्यान किया जाता है। इस प्रकार पूरा शरीर ही शिवस्वरूप हो जाता है।
शिवलिङ्ग को कुण्डली मार कर लपेटा सर्प कुण्डलिनी शक्ति (माया, प्रकृति) का प्रतीक है, जो परमात्मा की आद्या शक्ति तथा इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का सृजन करने वाली शक्ति है, इस प्रकार योनि नहीं, अपितु सर्प “शक्ति” का प्रतीक है। हमारे शरीर में यह मूलाधार चक्र से निकल कर रीड़ की हड्डी व मेरुतन्त्र के रूप में सिर के अन्तर्गत विद्यमान मस्तिष्क तक जा रही है। सर्प के सहस्र फण वास्तव में उसी सहस्रार चक्र या मानवीय मस्तिष्क का प्रतीक हैं, जिसमें चैतन्य तत्त्व (चित्) की चेतना (चित्त) के रूप में अभिव्यक्ति होती है।
अज्ञानियों में अज्ञान के गहन अन्धकार के प्रभाव से यह सोयी रहती है, शिवलिङ्ग की उपासना इसी शक्ति को जागृत करने के लिये की जाती है। यही शिवलिङ्गोपासना का शास्त्रसम्मत सार-रूप निरूपण है। जिस प्रकार जल डालने से बीज की प्रसुप्त अङ्कुरण शक्ति को जागृत किया जाता है, उसी प्रकार शिवलिङ्ग की उपासना इस प्रसुप्त शक्ति को जागृत करके हमारे जीवन में अद्भुत आध्यात्मिक शक्ति तथा दिव्य चेतना का संचार कर देती है। यही शिवलिङ्गोपासना का शास्त्रीय रहस्य है॥
“ॐ नमस्ते रूद्र” (यजुर्वेद)॥
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