लंका स्वर्ण से बनी नगरी थी. इस बनाने का आदेश भगवान शिव ने विश्वकर्मा को दिया था. लेकिन ऐसा क्या हुआ था जिससे भगवान शिव को लंका नगरी बनाने के लिए मजबूर होना पड़ा था.
एक बार भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी भ्रमण के लिए कैलाश पर्वत पहुँचे. दोनों को आता देख भगवान शिव विह्वल हो उठे. उन्होंने अपने कमर पर लिपटे गजचर्म को अपने सर्प से कौपीन (कमरबंद) की भाँति लपेट लिया. नजदीक आते ही भगवान शिव ने विष्णु को गले से लगा लिया. परंतु गरूड़ को देखकर शिव-सर्प संकुचित हो गया जिससे उनकी कौपीन खिसक कर गिर गई.
भगवान शिव को नग्न अवस्था में देख लक्ष्मी और पार्वती बड़ी लज्जित हुई और सिर झुकाकर खड़ी हो गई. स्थिति सामान्य होते ही शिव विष्णु से और लक्ष्मी पार्वती से बातें करने लगी. उस दौरान लक्ष्मी शीत से ठिठुर रही थी. जब उनसे न रहा गया तो उन्होंने पार्वती से कहा कि आप राजकुमारी होते हुए भी इस हिम-पर्वत पर इतने ठंड में कैसे रह रहीं हैं?
कुछ दिन बीतने के बाद भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी के निमंत्रण पर भगवान शिव और पार्वती बैकुण्ठ गए. वहाँ मोतियों की माला और अन्य वैभव देख पार्वती चकित हुए बिना न रह सकी. बातचीत के दौरान लक्ष्मी जी ने कैलाश पर शीत से ठिठुरने वाली घटना का ज़िक्र कर दिया
लक्ष्मी की बात को व्यंग्य समझ माता पार्वती आहत हो गई और भगवान शिव से अपने लिए भी घर बनाने की ज़िद करने लगी. उसके पश्चात शिव ने विश्वकर्मा को सुवर्ण जड़ित दिव्य भवन निर्मित करने को कहा. विश्वकर्मा ने शीघ्र ही लंका नगर की रचना की जो शुद्ध सोने से बनी थी. पार्वती के निवेदन पर उस नगर का प्रतिष्ठा महोत्सव मनाया गया जिसमें समस्त देवी देवताओं को बुलाया गया.
विश्रवा नामक महर्षि ने उस नगर की वास्तुप्रतिष्ठा की. पार्वती ने लक्ष्मी को अपना भवन विशेष चाव से दिखाया. लेकिन जब भगवान शिव ने महर्षि विश्रवा से दक्षिणा माँगने को कहा तो उन्होंने वो नगरी ही माँग ली. शिव ने तत्काल ही स्वर्णनगरी उन्हें दक्षिणा में दे दी. इससे पार्वती बड़ी क्रोधित हुई और उन्होंने विश्रवा को श्राप देते हुए कहा कि तेरी यह नगरी भस्म हो जाए. पार्वती के श्राप के कारण ही रावण द्वारा रक्षित वह लंका हनुमान ने फूँक डाली थी.
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