Sunday, April 12, 2015

नमः शिवाय " { २ } :



" नमः शिवाय " { २ } :
ओंकार में तीन अक्षरों की कल्पना की जाती है अ , उ ,म् । संस्कृत के सन्धि - नियमोंके अनुसार अ ओर उ का मिलकर ओ रूप बनता ही है । अतः ओ में अ और उ की कल्पलना बहुतसहज है । अकार का उच्चारण स्थान कण्ठ और उकार का ओष्ठ है । हमारे द्वारा उच्चारितसब ध्वनियाँ कण्ठ , ओष्ठ और इसके मध्य के स्थानों वाली ही होती हैअर्थात् या कण्ठ से निकलती है या ओष्ठ से या इनके मध्य के किसी स्थाना से । इसलियेअकार और उकार से सभी स्वर - व्यंजनों का संग्रह हो जाता है । जिस ध्वनि में नासिकाका प्रयोग होता है उसका संग्रह करने के लिये मकार है । ङ्र . ञ , न् ,म् अनुस्वार और अनुनासिक { जो अर्धचन्द्र से सूचित होती है } - इन ध्वनियों में नासिका का उपयोग स्पष्ट है । ओम् मेंमकार का ग्रहण इन सभी ध्यनियों के अन्तर्भाव के प्रयोजन से है । इस प्रकार ओंकारसभी ध्वनियों को , ध्वनिमात्र को बताता है ।
इतनाही नहीं , भगवान् श्रीआचार्य सुरेश्वर { सुरेश्वराचार्य } ने कहा है " सकारं च हकारं च लोपयित्वाप्रयोजयेत् " , यदि " सोऽहम्" में सकार और हकार का लोप कर देंतो ओ और म् यों ॐ ही बच जाता है । सकार तत्पद को कहता है , परमेश्वर को बताता है क्योंकि तत् - शब्द परोक्ष कोविषय करता है , परोक्ष चीज़ कोतत् { = वह } कहते हैं । नित्य अपरोक्ष जो हमारा अपनास्वरूप है उसे अहम् { = मैं }बताता है । परोक्ष परमेश्वर और अपरोक्तमैं - इन दोनों में सर्वथा अभेद है इस बात को ॐ बताता है । व्यष्टि - समष्टि कीएकता ॐ का अभिप्राय समझ आता है ।
उक्तरहस्य को समझाने वाला होने से ॐ को चार पादों वाला बताया गया है । इसके तीन पाद्व्यष्टि - समष्टि के रूप में ये हैं - विश्व - वैश्वानर , तैजस- हिरण्यगर्भ और प्राज्ञ - ईश्वर । विश्व - तैजस - प्राज्ञ व्यष्टि अवस्था कोबताते हैं और वैश्वानर - हिरण्यगर्भ - ईश्वर समष्टि अवस्था को कहते है । इनकीपरस्पर एकता अकार - उकार - मकार बताते हैं । चौथा पाद वह है जिसमें इनकी एकताप्रतिष्ठित है । वह चैतन्य ही है । जो चैतन्य जाग्रद् अवस्था में शरीर - इन्द्रिय- मन की उपाधि में प्रतीत होता है वही चैतन्य स्वप्न में केवल मन से , मन के संस्कारों से सृष्टि - स्थिति - लय करता हृ प्रतीत होता है ,वही चैतन्य सुषुप्ति में यह कुछ भी न करते हुए केवलआनन्द से स्थित होते हुए अज्ञान को प्रकाशित करते हुए प्रतीत होता है । सुषुप्तिसे उठकर यह महसूस करते और कहते भी हैं कि " वहाँ मैंने कुछ नहीं जाना " अर्थात् वहाँ केवल अज्ञान था यही सत्यापितकरते हैं । इन तीनों अवस्थाओं से उस चैतन्य का व्यतीभवन होता है परन्तु स्वरूप सेवह चैतन्य निर्विकार एक सा ही रहता है । माला की मणियों में धागे की तरह उक्ततीनों में एक जैसा रहने वाला होने से चैतन्य को तुरीय अर्थात् चौथा कहते हैं ।तीनों में रहने वाला होने से उन तीनों से अलग है इसलिये चौथा है । इस चौथी वस्तुसामान्य रूप से अवस्था नहीं कह सकते फिर भी समझने - समझाने के लिये इसे इसी तरहबतलाना पड़ता है ।
अकार , उकार , मकार औरतुरीय - इन चार पादों में चारों वेदों की दृष्टि करनी है , मानो वे ही इस ओंकार के चार पैर हैं । इस प्रकार यहअक्षर परब्रह्म है एवं उपासना के लिये यही अपर है ।
तीसरे वाक्य से प्रारम्भकर इन्हीं मात्राओं के बारे में विस्तार करते हैं –
" पूर्वाऽस्य मात्रा पृथिव्याकारः सऋग्भिऋग्वेदो ब्रह्मा वसवो गयात्री गार्हपत्यः ॥ 3 ॥ "
" द्वितीयाऽन्तरिक्षं स उकारः सयजुर्भिर्यजुर्वेदो विष्णू रुद्रास्त्रिष्टुब् दक्षिणाऽग्निः ॥ 4 ॥ "
" तृतीया द्योः स मकारः स सामभिः सामवेदो रुद्रआदित्या जगत्याहवनीयः ॥ 5 ॥"
सबसे पहली मात्रा अकार पृथ्वीरूप है , वेदो में वह ऋग्वेदरूप है , ब्रह्मा उसके देवता हैं , आठ वसु इसके उपदेवता हैं । बृहदारण्यक उपनिषद्में तैतीस देवता बताये गये हैं - आठ वसु , बारह आदित्य , ग्यारहरुद्र , इन्द्र और प्रजापति ।वसु - रुद्र - आदित्य देवताओं के समुह हैं , गण हैं । इन गण - देवताओं में से वसुओं का संबंध अकारसे है , रुद्रों का संबंध उकारसे और आदित्यों का संबंध मकार से है । अकार में गायत्री छंद की दृष्टि करनी है औरगार्हपत्य - नामक अग्नि की दृष्टी करनी है । इस तरह प्रधान वैदिक देवताओं के साथवैदिक यज्ञों की प्रधान तीनों अग्नियों की दृष्टि भी ॐ में करने का यहाँ विधानकिया जा रहा है । अकार आदि तीन मात्राओं के बारे में सातवें वाक्य में पुनःकुछविशेषताएँ कही गई है -
" प्रथमा रक्त पीता महद्ब्रह्मदैवत्या ।
द्वितिया विद्युमती कृष्णा विष्णुदैवत्या ।
तृतीया शुभाशुभाशुक्ला रुद्रदैवत्या ।
अकार में रक्त - पीत अर्थात् गेरू रंग की दृष्टी करनीहै । लाल - पीला मिलने से गेरु रंग बन जाता है । महान् ब्रह्मा अकार के देवता हैं। यद्यपि पहले भी ब्रह्मा को देवता कहा तथापि यहाँ पुनः कहकर बताया कि अपनी शक्तिसमेत ब्रह्मा इसके देवता हैं । संस्कृत भाषा में देव की शक्ति को भी देवता कहतेहैं । जैसे मानव - पशु - वनस्पति आदि सभी पृथ्वी पर रहते हैं ऐसे संस्कृत वर्णमालाके सब व्यंजन स्वभावतः अकार के सहारे बोले जाते हैं । अतः अकार और पृथ्वी कीसमानता से अकार में पृथ्वी - दृष्टि उचित है । अन्य भाषाओं में विभिन्न स्वरों कासहारा लेते हैं - जैसे अंग्रेजी में बी , सी आदि में " ई" का सहारा है तो " एच " , " जे " आदि में " ए" का और " आर " में " आ " या उर्दू मे बे, ते , आदि में " ए " का और जीम आदि में " ई" का सहारा है - अर्थात् सहारे मेंएकरूपता नहीं है किन्तु संस्कृत में क ख आदि ह - पर्यन्त सब व्यंजन " अ " का ही सहारा लेते हैं । अत एव ककार आदि में अकार को हीउच्चारणार्थ बताया गया है । व्यंजन को स्वर के सहारे के बिना अकेले उच्चारण करना कठिन होता है । उच्चारण के लिये उससेपहले या बाद में स्वर रखने से सुविधा होती है । स्वर पर व्यंजन " चढ़ा " ऐसी इस विषय में कल्पना की जाती है । इसलिये सब व्यंजन- अकार पर चढ़े है यह मानकर उसमें पृथ्वी - दृष्टि सहज हो जाती है क्योंकि पृथ्वीपर भी सब चढ़े हैं , उसी पर रहतेहैं ।
अकार प्रथम अक्षर है और वेदों में ऋग्वेद को प्रथम गिनतेहैं अतः अकार में ऋग्वेद दृष्टि उत्पन्न है । सृष्टि - स्थिति - प्रलय का चक्र हैअतः इनमें से किसी को भी पहला मानकर गणना की जा सकती है अर्थात् सृष्टि - स्थिति -प्रलय कहें , स्थिति- प्रलय - सृष्टि या प्रलय - सृष्टि कहें - बात एक ही है फिर भी प्रायः शास्त्रमें और सामान्य समझ की भी दृष्टि से सृष्टि से ही प्रारम्भ किया जाता है । सृष्टिके देवता ब्रह्मा इसलिये प्रथम हैं , उनकी प्रथमाक्षर अकार मेंही दृष्टि करना ठीक ही है । गणों में रहने वाले देवताओं की गणना में भी प्रायःवसुओं को पहले गिनते हैं अतः पहले अक्षर अ - से उन्हे एक किया गया है ।
.. नारायण ! यजुर्वेदादिमें " गायत्री - त्रिष्टुप- जगतीच्छन्दांसि " ऐसाक्रम सुना जाने से छंदों में गायत्री का प्राथम्य स्पष्ट है । यह चौबीस अक्षरों का छंद होता है , इसकी दृष्टि अकार में करनी है । गृहपति अर्थात्अग्निहोत्री गृहस्थ जिस अग्नि को हमेशा कायम रखता है , जिसमें से आग लेकर हवनकुण्ड में आग जलाते हैं तथापकाने आदि के लिये भी उसी से आग लेते हैं उस विधिवत् ग्रहण की हुई अग्नि कोगार्हपत्य अग्नि कहते हैं , इसकीभी दृष्टि अकार में करनी है । अकार का रंग रक्त - पीत या गैरिक है । शब्द में हमलोग तो रंग नहीं देख सकते पर शास्त्र में बताया गया है और ऋषियों द्वारा देखा गयाहै अतः ऐसा ही इसका चिन्तन करना चाहिये । जो लिपि पर ध्यान करते है उनके लिये सरलही है कि तत्तद् रंगोँ के अक्षरों को देखें । जो ध्वनि पर ध्यान करें वे तत्तद्ध्वनि के समकालन ही तत्तद् रंगों का ध्यान भी करें जैसे अन्य सरूप वस्तुओं काध्यान करते हैं । यों अकार के ध्यान का वर्णन हुआ ।
दूसरा अक्षर उकार है । कण्ठ की अपेक्षा इसका उच्चारण -स्थान ऊँचा है इसलिये इसका सम्बंध अंतरिक्ष से माना गया है , वह भी पृथ्वी से ऊँचा है । जैसे वेदों मेंयजुर्वेद दूसरा गिना जाता है ऐसे ओम् के अक्षरों में उकार दूसरा है अतः उ - मेंयजुर्वेद - दृष्टि बतायी है। इसके देव विष्णु हैं क्योंकि येस्थिति के अधिष्ठाता होने से सृष्टि - स्थिति - लय के क्रम में दूसरे ठहरते हैं ।ग्यारहों रुद्रों का भी उकार से संबंध है क्योंकि गणदेवताओं के क्रम में येद्वितीय स्थान पर गिने जाते हैं । इसी तरह छंदों में द्वितीय जो त्रिष्टुप् उसकाइस द्वितीयाक्षर उकार से संबंध संगत है । अग्नियों में उ - का सम्बन्ध दक्षिणाग्निसे है। चमकदार काला रंग विष्णु का प्रसिद्ध है , उ - के देवता विष्णु हैं ही अतः उ - का रंग भी चमकदारकाला ही माना जाये यह ठीक है । अपनी स्थिति - शक्ति के साथ ही विष्णु उकार से एकहैं यह स्पष्ट करने के लिये " विष्णुदैवत्य" ऐसा कह दिया ।
तीसरा अक्षर मकार सबसे ऊर्ध्व , अंतिम है , इसके उच्चारण में नासिका भी काम आती है जो मुख से ऊँची है , इसलिये इसका संबंध अंतरिक्ष से भी ऊँचेद्युलोक से है । ऐसे ही वेदों में तीसरे सामवेद का इस तीसरे अक्षर से अभेद है ।सृष्टि - स्थिति - लय क्रम में तीसरे अर्थात् लय के अधिष्ठाता होने से रुद्र ,अ - उ के बाद तीसरे इस मकार के देव हैं।उकार के उपदेवों में बताये रुद्र तो ग्यारह के समूह में रहने वाले हर , बहुरुप आदि देवता हैं जबकि यहाँ प्रलयाधिष्ठाता रुद्र को देव बता रहे हैं। बारहों आदित्यों का भी म से इसीलिये संबंध स्पष्ट है कि वसु - आदि क्रम में वेभी तृतीय स्थान पर गिने जाता है। म को छन्दों जगती से और अग्नियों में आहवनीय सेएक समझना चाहिचे । जिसमें आहुतियाँ अर्पित की जाती है उसे आहवनीय अग्नि कहते हैं ।म का रंग सफेद हैं । भगवान् सदाशिव - शङ्कर सफेद बताये ही गये हैं । यहाँ म का रंगशुभ और अशुभ दोनों कहा क्योंकि लोक में सफेद को दोनों माना जाता है , शान्ति स्वच्छता आदि के लिये सफ़ेद रंग शुभार्थहै एवं कफ़न , विधवाओं द्वारापहना जाने वाला आदि के रंग के रूप में यह अशुभ भी प्रसिद्ध है । म प्रलयरूप हैजिसमें शुभ - अशुभ दोनों लीन हुये हैं , जब सृष्टि प्रारम्भ होगी तब दोनों पुनः इसमें से प्रकट होंगे । कुछ लोगसमझते हैं कि पहले शुभ था , बादमें अशुभ हुआ , कुछ आधुनिकों की मान्यता है कि पहले शुभ होता है , धीरे- धीरे अशुभ आता है , किंतुवैदिक शुभ - अशुभ को साथ ही आने वाला मानते हैं , असुर और आदित्य दोनों कश्यप महर्षि के पुत्र कहे हैं ।इसी दृष्टि से शुभ - अशुभ दोनों के द्योतक सफेद रंग का मकार का वर्ण बताया । शक्तिके केसाथ रुद्र अर्थात् माया- विशिष्ट चेतन से इसके ऐक्य का चिन्तन करना चाहिये । म -का शुद्ध चेतन से संबंध नहीं वरन् मायाविशिष्ट से है ।
छठे - सातवें वाक्यों में चौथी मात्रा का वर्णन है -
" याऽवसानेऽस्य चतुर्थ्यर्धमात्रा सा सोमलोकओंकारः साऽथर्वणैर्मन्त्रैरथर्ववेदः संवतकोऽग्निः मरुतो विराड् एकर्षिं भास्वतीस्मृता ।।6॥ "
" याऽवसानेऽस्य चतुर्थ्यर्धमात्रा सा विद्युमतीसर्ववर्णा पुरुषदैवत्या ।। 7 ।।"
यह अन्तिम मात्रा अवसान में है अर्थात् जब ओंकार काउच्चारण समाप्त हो गया , उसकेबाद जो उसकी गूंज बचती है जिसे कहीं नाद , नादान्त आदि शब्दों से कहते हैं , वह यहाँ बची हुई मात्रा कही जा रही है । जाग्रत की उपाधि के चैतन्य से ,स्वप्न की उपाधि के चैतन्य से औरसुषुप्ति की उपाधि के चैतन्य से जब जाग्रद् आदि उपाधियाँ हट जाती है तब केवलचैतन्य बच जाता है , ऐसे ही ॐ कीध्वनि हट जाने पर यह नाद बचता है इसलिये इस चौथी मात्रा से वह चैतन्यमात्र द्योतितहै । इस चौथी को ही अर्धमात्रा भी कहा गया है । क्योंकि उच्चारण समाप्त होने केबाद की यह मात्रा है इसलिये इसमें आगे की कोई बंदिश न होने से इसे आधी मात्रा कहाहै । प्राणायाम के साथ ओंकार के ध्यान के प्रयोग में इसी गूँज की लम्बाई बढ़ातेजाते हैं , इस दृष्टि से यहप्लुत भी कही गयी है। इसका सोमलोक से अभेद चिंतनीय है । उमा , पार्वती सहित भगवान् सदाशिव - शङ्कर जहाँ रहते हैं उसे सोमलोक कहते हैं । तीनों लोकों को पारकर जो अंतिम सत्यलोक है , वही" अपरब्रह्म " का स्थान है जिसे नादान्त का स्थान कहा जा रहाहै । सोम - शब्द को दो तरह समझा जाता है : उमा के साथ - इस अर्थ को सोम - शब्दस्पष्ट ही कहता है " उमयासह " । " सोऽहम् " में " ह " को हटा दें औरमकार के बाद का अकार भी हटा दें तब भी सोम बचता है अतः जीव - ईश्वर की एकता भी इससेसूचित होती है । नादान्त इसी अद्वैत चेतन का बोधक होने से इसे सोमलोक से एक कहा ।नादान्त के अभिप्राय का लोकन . दर्शन , इस सोमस्थिति में ही संभव है । जीव - ईश्वर की एकता में ही परब्रह्मअपरोक्ष प्रकट होता है , वहीसृष्टि का अधिष्ठानरूप है , उसीके साक्षात्कार से सृष्ट्यादि प्रपंच का बाध होता है ।
इस चौथी मात्रा का संम्बंध चौथे " अथर्ववेद " से है । ओंकार इसका छंद है । अर्धमात्रा अक्षररूप नहींहै अतः अक्षरधर्म जो छंद उसका इससे संम्बंध समझना कठीन है परन्तु शाब्दिक दृष्टिसे जिससे कुछ ढँका रहता है अर्थात् ढाँकने वाले को छंद कहते हैं । ओंकार सेनादान्त ढंका है क्योंकि अ - उ - म् के बाद की ही गूँज नादान्त है , चाहे - कोई गूँज तो नहीं । अ -उ - म् का ढक्कन हटने पर ही यह गूँज प्रकट होती है अतः इसका छंद ओंकार को समझनासंगत है । इसका " संवर्तकाग्नि" से एक्य है । प्रलय काल सबको लीनकरने वाली अग्नि का नाम " संवर्तक" है । जो यह गूँज होती है इसकेअन्दर अकार - उकार - मकाररूप जाग्रत् - स्वप्न - सुषुप्ति उपाधियाँ समाप्त हो जातीहै मानो यही उन्हे अपने में लीन कर लेती हो , ग्रस्त कर लेती हो । जैसे ब्रह्मा , विष्णु , रुद्र अ - उ - म् के देव हैं ऐसे इस मात्रा के देव केरूप में " संवर्तकाग्नि" कही गई है अतः यह इसका देवता है। गूँज में प्राण की प्रधानता है । जितना अधिक प्राण लेकर प्रारम्भ करेंगे उतना हीवह अधिक निकल पायेगा इसलिये मरुत ही इसके गणदेव हैं । जैसे अकारादि के" वसु " आदि हैं वैसे नादान्त के " मरुत " गणदेव या उपदेव हैं । मरुत संख्या 49 उनंचास बताये गये हैं ।
हवनीय अग्नि की जगह विराड् " एकर्षि " है जैसे अकारादि की गार्हपत्यादि अग्नियाँ बताई।विराड् अर्थात् विश्व का समष्टिरूप ही " एकर्षि " है अर्थात् वह एक ही ऐसा है जहाँ सब चीज़ों का ज्ञान होता है । स्वप्न मेंस्वप्न का तो ज्ञान होता है पर जाग्रत् का नहीं जबकि जाग्रत् में जाग्रत् का ही नहीं स्वप्नका भी ज्ञान होता है । स्वप्न में यह कभी नहीं लगता कि " मैं अब सपना देख रहा हूँ और जाग्रत् में ऐसा -ऐसा था " पर जग्रत् में ऐसीप्रतीति होती है कि " स्वप्नमें ऐसा - ऐसा था " । इसीप्रकार सुषुप्ति में जाग्रत् - स्वप्न की प्रतीति नहीं होती जबकि जाग्रत् में" मैं वहाँ बड़े आनन्द से था" यों सुषुप्ति की भी प्रतीति होतीही है । इसलिये जाग्रत् , विराड्ही वह अग्नि है जिसमें सभी ज्ञान हो सकते हैं , अतएव इसे " एकर्षि अग्नि " कहा ।
इस नादान्त का रंग बताया भास्वत् विद्युमत सर्ववर्ण ;इसमें ज्ञान ही पूर्णरूप से है ,यह ज्ञानरूप ही है अतः इस मात्रा कोऋषियों "भास्वति" कहा । अवस्थात्रय में रहने वालेआत्मा का स्वरूप ज्ञान ही है । जाग्रदादि तीनों अवस्थाएँ जानी ही जाती है । जबअवस्थाओं का लोप होता है तब शुद्धचेतन को बिजली { विद्युत } की तरह वह ज्ञानमात्र कौंध जाता है , उसके लिये वह मानो चमक जाता है । इसी से इसे" विद्युमति " भी कहा । इसमें सभी वर्ण , रंग हैं , सभी इसमें लीन हो जाते हैं । इसमें पुरुषशक्ति मौजूदहै । " पुरु " अर्थात् शरीर में शयन करने वाला पुरुष है , हृदय में इसकी प्राप्ति होती है यह " सामवेद " की " दहरविद्या " में भीप्रकट है । उसी को इस नादान्त की शक्ति कहा है , वह इसके द्वारा प्रकट होती है और इसी में पायी जाती है।
" स एष ह्योंकारः चतुरक्षरः चतुश्चतुष्पादः चतुःशिरः चतुश्चतुर्धा मात्रा स्थूलमेतद्ध्रस्वदीर्घप्लुपम् ।। 8 ।।
जिस ओंकार का वर्णन कर आये हैं वह अकारादि भेद से चारअक्षरों वाला है अर्थात् अ - उ - म् और अर्धमात्रा इसके चार अक्षर हैं । यह चारपादों वाला भी है , विश्व -विराट् , तैजस - हिरण्यगर्भ ,प्राज्ञ - ईश्वर और तुरीय इसके चार पादहैं । चारों अग्नियाँ इसके चार सिर हैं । इस प्रकार इसकी चार मात्राएँ हैं । योंबताया गया ओंकार स्थूल है इसके ह्रस्व - दीर्घ - प्लुत भेद हैं । जाग्रत् सेसम्बद्ध हुए ओंकार को स्थूल , स्वप्नसे सम्बद्ध को ह्रस्व , सुषुप्तिसे सम्बद्ध को दीर्घ और तुरीय से सम्बद्ध को प्लुत कहते हैं । मात्रा - समय ,खण्ड को भी कहते हैं । काल की प्रथममात्रा स्थूल , दूसरी ह्रस्व यासूक्ष्म , तीसरी दीर्घ और चौथीप्लुत है ।
अब प्रणवोच्चारण का ढंग बताते हैं -
" ॐ ॐ ॐ इति त्रिरुक्त्वा चतुर्थः शान्त आत्मा प्लुतप्रणव - प्रयोगेण समस्तमोमितिप्रयुक्तमात्मज्योतिः सकृदावर्तते ।। 9 ।। "
ओंकार का स्वरूप समझकर पहले ओंकार का उच्चारण करते हुएअकार और उसके अर्थ की तरफ ध्यान केन्द्रित करें , द्वितीय ओंकार का उच्चारण करते हुए उकार और अर्थ काध्यान करें तथा तृतीय ओंकार का उच्चारण करते हुए मकार और उसके अर्थ का ध्या करें।इस प्रकार तीन मात्राओं का ध्यान कर जो चौथी मात्रा , लंबा चलने वाला " नाद " है उसे शान्त आत्मा समझकर यह ध्यान करें कि जैसे तुरीय शांति में संपन्नहो जाता है ऐसे ही सारा नाम - रूपात्मक जगत् अंत में एकमात्र ब्रह्म में ही लीन होजाता है । इस प्रकार प्लुत प्रणव का प्रयोग करने पर उसकी समाप्ति में" नादरूप ज्योति " अर्थात् नाद के ज्ञान का अनुसन्धान करने सेआत्मज्योति निरावृत हो जाती है और अभ्यास दृढ हो जाने पर वह हमेवा प्रकाशित होतीरहती है । क्योंकि वास्तव में आत्मा में ध्वनि नहीं इसलिये वह सदा शान्त है । इसकीप्राप्ति का साधन " प्रणवनाद" है यह सुस्पष्ट है ।
अब " ॐ " के और नामसमझायेंगे : -
" सकृदुच्चारितमात्रेणऊर्ध्वमुन्नामयतीत्योंकारः । प्राणान् सर्वान् प्रलीयत इति प्रलयः । प्राणान्सर्वान् परमात्मनि प्रणामयतीत्येतस्मात् प्रणवः । चतुर्धाऽवस्थि इतिसर्वदेववेदयोनिः सर्ववाच्यवस्तु प्रणवात्मकम् ।। 10 ।। "
एकबार प्लुत उच्चारण करते हुए मूलाधार से ब्रह्मरंध्र पर्यन्त प्राण के साथ प्रणव कोऊपर की और ले जाने से यह मायोपाधिक ब्रह्म की प्राप्ति करा देता है । सारे प्राणोंको अपने में प्रलीन कर लेने से ओंकार ही प्रलय भी है । सब प्राणों को परमात्मा मेंभली - भाँति एक कर देने से यह प्रणव है । सारे प्राण , इन्द्रियाँपरमात्मा से पृथक् कुछ नहीं , उससे सर्वथा एक है , यह प्रणव के विचारपूर्ण ध्यान से स्पष्ट हो जाता है । जैसे संगीत मेंतल्लीन व्यक्ति के लिये संगीत से अतिरिक्त और कुछ नहीं रह जाता वैसे ईश्वर सेअतिरिक्त और कुछ न रहे इस स्थिति को प्रणव करा देता है । ओंकार , प्रलय और प्रणव - इन तीन कलनाओं से , कल्पनाओं से जबरहित हो जाता है तब वह चौथा शांत बचता है । ॐ का स्थूलांश ओंकर , सूक्ष्मांश प्रलय और कारणांश प्रणव है तथा चौथा शान्तरूप । यों चार तरह सेयह अवस्थित है । चार तरह से अवस्थित होने पर भी वास्तव में ॐ एक हीहै , स्वरूप से एक है , कल्पना से चार तरह का है । ॐ के वाच्य सारेदेवता हैं , इसमें सभी देवता कहदिये जाते है अतः पूजा पद्धिति में यदि किसी देवता का मंत्र पता न हो तो" ॐ नमः " कहकर उसकी पूजा की जा सकती है । शब्दरूप सेओंकार ही वेद का कारण है। जितनी भी चीज़े शब्द से कही जा सकती है वे सब प्राणरूप हीहैं । प्रणव और ब्रह्म से अतिरिक्त न कोई अभिधेयजात अर्थात् नामी है , रूप प्रपञ्च है और न कोई अभिधानजात है अर्थात्नाम , वाचक , शब्दप्रपंच है । यही इस अथर्वोपनिषत के प्रथमखण्ड में प्रतिपादि है ।
" ॐ कामहत्त्व " : -
ॐकार सारे देवताओं और सारे वेदों का प्रतिपादक है । " सर्ववाच्यवस्तु प्रणवातत्मकम् " जो कुछ भी वाच्य है सारी वाच्यवस्तु ओंकार रूप है । ब्रह्मरूप प्रणव से अतितिरक्त न अभिधान है , न अभिधेय है । वाच्य का मतलब होता है जो वाणी से कहा जा सकता है, वाणी के द्वारा जो प्रतिपाद्य है । अर्थात् नाम रूपात्मक सृष्टि । सारीसृष्टि ओंकार रूप ही है । शब्द और अर्थ का आपस में क्या संबंध है ? इसके बारे में अनेक दर्शनों ने अनेक प्रकार से विचार किए हैं ।" घट " का नाम सुनते ही " घट " का ज्ञान होता है । शब्द के उच्चारण के साथ ही शब्द के अर्थ का भान होताहै , प्रतीति होती है । यह शब्दकी एक विचित्र शक्ति है । ऐसी विचित्र शक्ति है कि अत्यन्त असत्य अर्थ का भी भानकरा देता है । अत्यन्त असत्य अर्थ का भान मायने क्या ? मेरे कोई बहन पैदा ही नहीं हुई , मैं अपने बाप का अकेला लड़का हूँ । जब मेरी कोईबहन पैदा नहीं हुई तो बहनोई कहाँ से आयेगा । बहन होगी तभी तो बहनोई होगा । कोईव्यक्ति मुझ से कहता है अबे साले तो अत्यंत असत्य वस्तु है । मेरा कोई बहनोई नहींतो मैं किसी का साला नहीं । फिर भी गुस्सा आ जाता है । किस बात पर गुस्सा आता है ?यह मेरा बहनोई कैसे बन गया ? अरे बन ही नहीं सकता , जैसे बाँझ को बेटा नहीं हो सकता वैसे मैं साला नहीं होसकता । परन्तु असत्य अर्थ का भी शब्द से भान हो जाता है । मुझे साला कहा तो गुस्साआ जाता है लड़ाई झगड़ा हो जाता है । अत्यन्त असत्य अर्थ का भी भान शब्द कर देता है ।
शब्द की एक अद्भुत सामर्थ्य इसलिये मानी गई है जिससे वह अर्थों का ज्ञान करा देता है ।प्राचीनकाल से इसीलिए हम लोग शब्द के विषय में बड़ा विचार करते रहे हैं । मनुष्य केबंधन और मोक्ष , सुख और दुःख का सर्वाधिक कारण शब्द ही है ।हमको जितनी चीज़े याद रहती है वे अधिकतर शब्द के रूप में ही याद रहते हैं । अगरकिसी चीज़ की सुगन्धि को हम यथावत् याद करना चाहें तो प्रतीति नहीं होती , अगर किसी चीज़ का स्पर्श ठीक - ठीक याद करनाचाहें तो याद नहीं आता । दो ही चीज़े हमें स्पष्ट याद आती है - या तो रूप या नाम ।किसी का चेहरा स्पष्ट याद आ जाता है अथवा उसका नाम स्पष्ट याद आ जाता है । स्पर्श ,गंध आदि बाकी चीज़े स्पष्ट भान नहीं होती। अतः उपनिषदों ने जहाँ कहीं संसार का वर्णन किया है , वहाँ " नाम रूपात्मक सृष्टि कही है " यद्यपि यह ठीक है कि रूप शब्द का अर्थ व्यापक है" रूप्यते अनेन " इस व्युत्पत्ति से अंध आदि भी रूप है क्योंकिपदार्थों का निरूपण करते है तथापि मनुष्य के अन्दर यह शक्ति प्रायः कार्यकारी नहींहोती कि गंधादि से किसी का सही निरूपण कर या समझ सके । " आरक्षी विभाग " , " पुलिस डिपार्टमेन्ट " में कुत्ते रखे जाते हैं जो सुगन्ध से चोर कोपकड़ लेते हैं परंतु मनुष्यों में यह शक्ति प्रायः नहीं है ; कदाचित् किसी में हो तो बात दूसरी है , परंतु चेहरा देख लेते है तो सभी पहचान लेते है। इसीलियेयदि बत्ती जल जाए तो चोर को पहचानने जाने का डर होता है जान से भी मार देता है ।परंतु किसी चोर को यह डर नहीं रहता कि मेरी गंध पहचान लेंगे । हमारे एक परिचितसज्जन हमसे कहने लगे स्वामी जी एक अलाती , टार्च अपने पास रखा कीजिए , रात - बिरात कोई आए तो दिख जाए । हमने कहा तुम बीमा बेचे हुए हो हम बीमाबेचे हुए तो हैं नहीं । अगर चोर को पता लग गया कि हमने उसे पहचान लिया है तो वहमार कर जाएगा और अंधेरे में सिर्फ चोरी कर के चला जाएगा , उसको पहचाने जाने का डर नहीं लगेगा तो वह मार - पीट भीनहीं करेगा। गंध , स्पर्श आदि काभय चोर को नहीं होता है रूप का ही डर होता है कि कहीं पहचाना न जाऊँ । इसीलिए रूपमें गन्ध आदि का समावेश होने पर भी मनुष्य की दृष्टि से प्रधानता को मानकर रूप -शब्द का ही प्रयोग करते हैं । नाम और रूप की विशेषता इसीलिए दी गई ।

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