Saturday, April 11, 2015

विवेक

संत अनाम टीले पर बैठे हुए अस्त होते सूर्य को देख रहे थे कि एक व्यक्ति आया और अभिवादन करके उनके सामने चुपचाप खड़ा हो गया।
अनाम ने मुस्कुराते हुए पूछा मेरे लिए कोई सेवा। व्‍यक्‍ित ने जिज्ञासापूर्ण दृष्टि से अनाम की ओर देखते हुए कहा- आप बड़े शांत, प्रसन्न और सुखी प्रतीत होते हैं। मुझे लगता है कि आप शांति और प्रसन्नता के भंडार है।' संत ने कहा, आपका प्रयोजन?
आगंतुक ने कहा कि, 'मैं संसार का सर्वाधिक धनी व्यक्ति हूं। दो वर्ष पहले जब मैं विश्व भ्रमण के लिए निकला, तो मेरे एक मित्र ने शांति और सुख लाने को कहा था। संसार की बड़ी से बड़ी फर्मों में, विश्व के बड़े से बड़े धर्मस्थलों में, संतों और ऋर्षियों के आश्रम में, कहीं भी ये वस्तुएं मुझे नहीं मिलीं। क्या आप मेरे लिए किसी भी कीमत में ये वस्तुएं दे सकते हैं।
संत ने कहा, अवश्य। पर क्या तुम्हारे पास कागज और कलम है? आगंतुक ने दोनों चीजें निकलाकर संत को दे दीं। संत ने कागज पर कुछ लिखा और उससे कहा- इसमें शांति, प्रसन्नता और सुख की नुस्खा लिखा है।
धन्यवाद कहकर वह आगंतुक अपने आप चला गया। उसे खोलकर पढ़ते ही धनिक के मित्र ने कहा, मुझे शांति मिल गई। प्रसन्नता तथा सुख भी। दरअसल, कागज में लिखा था कि, जिसके अंतःकरण में विवेक जागृत हो जाता है और संतोष की धारा बहती है, वहीं शांति निवास करती है। प्रसन्नता और सुख शांति के प्रसाद हैं। 
संक्षेप में
शांति, प्रसन्‍नता और सुख कहीं किसी दुकान में नहीं मिलते हैं, जहां से उन्‍हें खरीदा जा सके। अंत:करण में विवेक जागृत करने से व्‍यक्‍ित के हृदय में संतोष की धारा बहती है। शांति वहीं निवास करती है।

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