कहते हैं कि साधना का अभ्यास इस प्रकार करना चाहिए जिससे जीवित स्थिति में ही मृत्यु के भय से छुटकारा मिल सके। जो लोग जीते जी मौत से भयभीत नहीं होते वे ही मुक्ति की अवस्था प्राप्त करते हैं। पूर्ण सत्य की अनुभूति किए बगैर मृत्यु के भय को जीता नहीं जा सकता।
जो व्यक्ति जीवनकाल में पूर्ण सत्य की अनुभूति कर सकने में सक्षम हो जाते हैं, मृत्यु काल में ईश-कृपा से उनकी वह उपलब्धि अपने-आप अनायास हो जाती है। गीता में भी कहा गया है कि मनुष्य जिस भाव का स्मरण करता हुआ अंतकाल में देह त्याग करता है, उसी भाव से भावित होकर वह सदा उसी भाव को प्राप्त होता है। इसीलिए लोग मृत्यु के मुहाने पर बैठे व्यक्ति के चित्त में सात्विक भावों को उत्पन्न करने के लिए कई धार्मिक विधि-विधान करते हैं, किंतु ऐसे सद्भाव व्यक्ति की मृत्यु के पूर्व किए गए सतत अभ्यास से ही चित्त में जागृत होते हैं।
मृत्यु के बाद दो प्रकार की गति होती है। जिस गति में पुनरावर्तन नहीं होता वह 'परा' गति है, जिस गति में कर्मफल भोगने के बाद पुन: मृत्युलोक में आना पड़ता है वह 'अपरा' गति है। परा गति के एक होने पर भी उसमें विभेद है। एक में मृत्यु के साथ ही भगवान के परमधाम में प्रवेश मिल जाता है तो दूसरे में मृत्यु के बाद कई स्तरों से होते हुए परम धाम में पहुंचा जाता है।
हां, इस स्तर पर अधोगति नहीं होती, क्रमश: ऊर्ध्व गति ही होती है। इस विभेद में पहली गति मृत्यु के बाद सद्योमुक्ति है और दूसरी गतिक्रम मुक्ति है।
एक अवस्था और है, जिसमें गति नहीं रहती। इस अवस्था में जीवनकाल में ही परमेश्वर का साक्षात्कार हो जाता है। यही जीवनकाल में सद्योमुक्ति यानी 'जीवन मुक्ति' है। जो पुरुष इस अवस्था को प्राप्त कर लेते हैं उनके लिए कुछ भी प्राप्त करना शेष नहीं रहता।
प्रारब्धवश शरीर चलता है और कर्मक्षय होने पर देहावसान हो जाता है। निधन के वक्त अंत:करण, वाह्यकरण और प्राणादि सभी अव्यक्त ईश्वरीय शक्ति में लीन हो जाते हैं। देहत्याग के साथ ही विदेह-मुक्ति का लाभ प्राप्त होता है।
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