Monday, April 13, 2015

सप्त ऋषि

रात्रि के समय आकाश में लाखों-करोड़ो तारे टिमटिमाते हैं। कुछ हमें खुद से पास लगते हैं तो कुछ बहुत ज्यादा दूर लगते हैं। कुछ तारों का आकार छोटा है तो कुछ का बड़ा है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि इन अनगिनत सितारों में कुछ तारे ऐसे भी हैं जिनकी अपनी एक महत्ता है, कुछ नाम है और कुछ पहचान है। जिस तरह से हमारी पृथ्वी एक सौरमण्डल का हिस्सा है, उसी प्रकार से आकाश में मौजूद सितारों को भी विशेष मण्डलों में बांटा जाता है।
बेशक विद्न्यान्ने ऐसे  कई मण्डलों की खोज की है जो विभिन्न सितारों का एक मण्डल बनाते हैं, लेकिन आधुनिक विज्ञान से हज़ारों वर्ष पूर्व रचित वेदों में कुछ खास तारा मण्डलों का ज़िक्र किया गया था। इनमें से सबसे खास है सप्तर्षि मण्डल। एक ऐसा मंडल जो सात ऋषियों के सूत्र में बंधा है।
विद्न्यान द्वारा सप्तदर्शी  तारा मण्डल को ‘अरसा मेजर’, ‘ग्रेट बेयर’ एवं ‘बिग बेयर’ यानी कि बड़ा भालू भी कहा गया है। लेकिन वेदों में इसे सात ऋषियों की तस्वीर दिखाने वाला सप्तर्षि तारा मण्डल कहा गया है। इन मण्डल में मौजूद सात ऋषि मिलकर एक तारा मण्डल बनाते हैं, लेकिन कैसे बना यह मण्डल?
हिन्दू धर्म में ज्ञान  प्राप्ति के लिए चार महान ग्रंथ शामिल किए गए हैं - ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद। यह सभी वेद कई अनुसंधानों में समय-समय पर सहायक साबित होते रहे हैं। इन सभी ग्रंथों में मन्त्रों की रचना करने वाले महान कवियों को ऋषि माना गया है। इन्हीं मंत्रों की रचना करने में जिन ऋषियों ने महान ऋषि होने की पद्वी हासिल की थी, उन्हें ही सप्तर्षि तारा मण्डल में शामिल किया गया था। लेकिन वे कौन हैं?
सप्तदर्शी तर मंडल  सात महान ऋषियों से बना है, लेकिन वे कौन हैं, उनके नाम क्या है और किस आधार पर उन्हें इस विशेष तारा मण्डल का हिस्सा बनाया गया यह जानना बहुत जरूरी है। यदि वेदों के माध्यम से इन सात ऋषियों की जानकारी हासिल करने की कोशिश की जाए तो यह एक मुश्किल कार्य है।
लेकिन वेदो के बाद रचे  गए उपनिषदों में इसका जवाब शामिल किया गया है। वेदों का अध्ययन करने पर जिन सात ऋषियों या ऋषि कुल के नामों का पता चलता है, वे इस प्रकार है: वशिष्ठ, विश्वामित्र, कण्व, भारद्वाज, अत्रि, वामदेव और शौनक।
मन जाता की यह  ऋषि या इन्हीं के वंशज भी आगे सप्तर्षि तारा मण्डल का हिस्सा बने लेकिन हर एक मनवंतर में आप ऋषि मण्डल में एक अलग ऋषि को पाएंगे। पर मन्वन्तर है क्या?
मन्वन्तर यानि की  मनु + अंतर, एक ऐसा समय जो एक मनु के जीवन की व्याख्या करता है। सृष्टि के रचयिता भगवान ब्रह्मा द्वारा अपने संकल्प से मनु का निर्माण किया गया था। मनु ने ही अपनी समझ से यह संसार बनाया, इसके भीतर रहने वाले जीव बनाए। इन सबकी रचना करते हुए मनु जितने साल जीवित रहे उस प्रत्येक काल को मन्वन्तर कहा गया है।
जैसे ही एक मनु  मृत्यु हुई तो ब्रह्मा जी द्वारा सृष्टि को चलाने के लिए दूसरे मनु की रचना की गई। इन्हीं मन्वन्तरों के आधार पर विभिन्न ऋषियों का उल्लेख किया गया है जिन्हें सप्तर्षि तारा मण्डल में स्थान हासिल है। पुराणों में भी सप्तऋषि मण्डल के सात ऋषियों की नामावली शामिल की गई है।
विष्णु पुराण के अनुसार  इस मन्वन्तर के सप्तऋषि इस प्रकार हैं: वशिष्ठकाश्यपो यात्रिर्जमदग्निस्सगौत। विश्वामित्रभारद्वजौ सप्त सप्तर्षयोभवन्।। अर्थात् सातवें मन्वन्तर में सप्तऋषि इस प्रकार हैं: वशिष्ठ, कश्यप, अत्रि, जमदग्नि, गौतम, विश्वामित्र और भारद्वाज।
उपरोक्त बताई गयी नामवायलि  के अलावा पुराणों में भी सप्तर्षियों से संबंधित नामावली है - केतु, पुलह, पुलस्त्य, अत्रि, अंगिरा, वशिष्ठ तथा मारीचि। ये जानना बेहद रोचक होगा कि वेदों में सप्तर्षि तारामण्डल के जिन सात ऋषियों का वर्णन दिया गया है, वे कौन हैं तथा उनका क्या महत्व है।
सबसे पहले वसिष्ट जो अयोध्या के राजा दशरथ के कुलगुरु माने जाते हैं। इनका मार्गदर्शन राजा दशरथ के लिए अति महत्त्वपूर्ण था। दूसरे ऋषि हैं विश्वामित्र जिन्हें पौराणिक कथाओं में कामधेनु गाय के लिए युद्ध करने के संदर्भ से ज्यादा जाना जाता है। गुरु वशिष्ठ तथा विश्वामित्र में ही कामधेनु गाय के लिए युद्ध हुआ था।
तीसरे ऋषि कण्व  जिन्हें वैदिक काल का ऋषि कहा जाता है। माना गया है कि इस देश के सबसे महत्वपूर्ण यज्ञ सोमयज्ञ को कण्वों ने व्यवस्थित किया था। चौथे ऋषि भारद्वाज हैं जिन्हें वैदिक दृष्टि से उच्च पद्धति का ऋषि माना जाता है। एक पौराणिक कथा के अनुसार वनवास के समय श्री राम इनके आश्रम भी गए थे।

पांच वे ऋषि हे अत्र्री  जो कि भगवान ब्रह्मा के पुत्र, सोम के पिता और अनुसूया के पति थे। अत्रि ऋषि के संदर्भ में यह मान्यता है कि इनके कारण ही अग्निपूजकों के धर्म पारसी धर्म का सूत्रपात हुआ था। छठे ऋषि वामदेव वे हैं जिन्होंने इस देश को संगीत प्रदान किया है। इस मण्डल के आखिरी तथा सातवें ऋषि शौनक द्वारा दस हजार विद्यार्थियों के गुरुकुल को चलाकर कुलपति का विलक्षण सम्मान हासिल किया गया था।
इन सभी ऋषियोंके कार्य कार्य तथा समझदारी के बल पर इन्हें एक खास तारा मण्डल में शामिल किया गया है। लेकिन आकाश में इनका स्थान कहां है? दरअसल सप्तर्षि तारामण्डल पृथ्वी के उत्तरी गोलार्ध के आकाश में नज़र आता है। यह तारामण्डल पूरे वर्ष आकाश में नहीं होता, बल्कि इसे देखने की एक समय सीमा है। तो कब देख सकते हैं आप सप्तर्षि तारामण्डल?
इस मंडल को आप  फाल्गुन-चैत्र महीने से श्रावण-भाद्रपद महीने तक आकाश में सात तारों के समूह के रूप में देख सकते हैं। यह सभी सितारे एक-दूसरे के समीप ही नज़र आते हैं। इसमें चार तारे चौकोर तथा तीन तिरछी लक़ीर में रहते हैं।
यदि काल्पनिक रेखाओ  से इन तारों को जोड़ा जाए तो यह एक प्रश्न चिन्ह के आकार की भांति दिखता है। इसके अलावा यह एक आकाश में उड़ रही पतंग की तस्वीर भी दिखाता है, जो आखिरी तीन सितारों से एक डोर भी बना रही है। अंत में यह तारामण्डल एक चम्मच का आकार भी बनाता है, जिसका बड़ा भाग नीचे की तरफ है।

यह आश्चर्य जनक ही हे कि किस प्रकार से वेदों में अपना एक अहम स्थान बनाने वाले ऋषियों को एक तारामण्डल में शामिल किया गया जिसके फलस्वरूप आज भी कलयुग में वे आकाश में रहकर पूरे विश्व में अपनी रोशनी फैलाते हैं। लेकिन केवल रोशनी देना ही उनका कार्य नहीं है, बल्कि यह विभिन्न रूप से हमारा मार्गदर्शन भी करते हैं।
इसका सबसे बड़ा उदहारण  है समुद्र यात्रा के समय विभिन्न सितारों का प्रयोग करना। यह समुद्री यात्रा करने का बहुत ही पुराना एवं पारम्पारिक तरीका माना गया है। जिस प्रकार से ध्रुव तारा जिसे अंग्रेजी में पोल स्टार के नाम से जाना जाता है, अनेक नाविकों को सही रास्ता दिखाने में कामयाब रहा है, उसी प्रकार से समुद्र यात्रा के लिए सप्तर्षि तारा मण्डल का भी इस्तेमाल किया गया।

सप्तदर्शी तारा  मंडल अपने मण्डल में सात तारों के होने के कारण काफी बड़ा दिखाई देता है। इसका आकार भी काल्पनिक रेखीयकरण करने से बहुत बड़ा बन जाता है, जिसके फलस्वरूप नाविकों को यह आसानी से दिखाई दे जाता है।   

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