Sunday, April 12, 2015

नमः शिवाय " { ३ } :

" नमः शिवाय " { ३ } :
" ॐ का महत्त्व " : -
ॐकार सारे देवताओं और सारे वेदों का प्रतिपादक है । " सर्ववाच्यवस्तु प्रणवातत्मकम् " जो कुछ भी वाच्य है सारी वाच्यवस्तु ओंकार रूप है । ब्रह्मरूप प्रणव से अतितिरक्त न अभिधान है , न अभिधेय है । वाच्य का मतलब होता है जो वाणी से कहा जा सकता है, वाणी के द्वारा जो प्रतिपाद्य है । अर्थात् नाम रूपात्मक सृष्टि । सारीसृष्टि ओंकार रूप ही है । शब्द और अर्थ का आपस में क्या संबंध है ? इसके बारे में अनेक दर्शनों ने अनेक प्रकार से विचार किए हैं ।" घट " का नाम सुनते ही " घट " का ज्ञान होता है । शब्द के उच्चारण के साथ ही शब्द के अर्थ का भान होताहै , प्रतीति होती है । यह शब्दकी एक विचित्र शक्ति है । ऐसी विचित्र शक्ति है कि अत्यन्त असत्य अर्थ का भी भानकरा देता है । अत्यन्त असत्य अर्थ का भान मायने क्या ? मेरे कोई बहन पैदा ही नहीं हुई , मैं अपने बाप का अकेला लड़का हूँ । जब मेरी कोईबहन पैदा नहीं हुई तो बहनोई कहाँ से आयेगा । बहन होगी तभी तो बहनोई होगा । कोईव्यक्ति मुझ से कहता है अबे साले तो अत्यंत असत्य वस्तु है । मेरा कोई बहनोई नहींतो मैं किसी का साला नहीं । फिर भी गुस्सा आ जाता है । किस बात पर गुस्सा आता है ?यह मेरा बहनोई कैसे बन गया ? अरे बन ही नहीं सकता , जैसे बाँझ को बेटा नहीं हो सकता वैसे मैं साला नहीं होसकता । परन्तु असत्य अर्थ का भी शब्द से भान हो जाता है । मुझे साला कहा तो गुस्साआ जाता है लड़ाई झगड़ा हो जाता है । अत्यन्त असत्य अर्थ का भी भान शब्द कर देता है ।
शब्दकी एक अद्भुत सामर्थ्य इसलिये मानी गई है जिससे वह अर्थों का ज्ञान करा देता है ।प्राचीनकाल से इसीलिए हम लोग शब्द के विषय में बड़ा विचार करते रहे हैं । मनुष्य केबंधन और मोक्ष , सुख और दुःख का सर्वाधिक कारण शब्द ही है ।हमको जितनी चीज़े याद रहती है वे अधिकतर शब्द के रूप में ही याद रहते हैं । अगरकिसी चीज़ की सुगन्धि को हम यथावत् याद करना चाहें तो प्रतीति नहीं होती , अगर किसी चीज़ का स्पर्श ठीक - ठीक याद करनाचाहें तो याद नहीं आता । दो ही चीज़े हमें स्पष्ट याद आती है - या तो रूप या नाम ।किसी का चेहरा स्पष्ट याद आ जाता है अथवा उसका नाम स्पष्ट याद आ जाता है । स्पर्श ,गंध आदि बाकी चीज़े स्पष्ट भान नहीं होती। अतः उपनिषदों ने जहाँ कहीं संसार का वर्णन किया है , वहाँ " नाम रूपात्मक सृष्टि कही है " यद्यपि यह ठीक है कि रूप शब्द का अर्थ व्यापक है" रूप्यते अनेन " इस व्युत्पत्ति से अंध आदि भी रूप है क्योंकिपदार्थों का निरूपण करते है तथापि मनुष्य के अन्दर यह शक्ति प्रायः कार्यकारी नहींहोती कि गंधादि से किसी का सही निरूपण कर या समझ सके । " आरक्षी विभाग " , " पुलिस डिपार्टमेन्ट " में कुत्ते रखे जाते हैं जो सुगन्ध से चोर कोपकड़ लेते हैं परंतु मनुष्यों में यह शक्ति प्रायः नहीं है ; कदाचित् किसी में हो तो बात दूसरी है , परंतु चेहरा देख लेते है तो सभी पहचान लेते है। इसीलियेयदि बत्ती जल जाए तो चोर को पहचानने जाने का डर होता है जान से भी मार देता है ।परंतु किसी चोर को यह डर नहीं रहता कि मेरी गंध पहचान लेंगे । हमारे एक परिचितसज्जन हमसे कहने लगे स्वामी जी एक अलाती , टार्च अपने पास रखा कीजिए , रात - बिरात कोई आए तो दिख जाए । हमने कहा तुम बीमा बेचे हुए हो हम बीमाबेचे हुए तो हैं नहीं । अगर चोर को पता लग गया कि हमने उसे पहचान लिया है तो वहमार कर जाएगा और अंधेरे में सिर्फ चोरी कर के चला जाएगा , उसको पहचाने जाने का डर नहीं लगेगा तो वह मार - पीट भीनहीं करेगा। गंध , स्पर्श आदि काभय चोर को नहीं होता है रूप का ही डर होता है कि कहीं पहचाना न जाऊँ । इसीलिए रूपमें गन्ध आदि का समावेश होने पर भी मनुष्य की दृष्टि से प्रधानता को मानकर रूप -शब्द का ही प्रयोग करते हैं । नाम और रूप की विशेषता इसीलिए दी गई ।
सृष्टि नाम रूपात्मक है । शब्द में कौन सी शक्ति है कि किसीभी पदार्थ को उपस्थापित कर देती है ? " वेदान्त शास्त्र " मेंशब्द की शक्ति" अचिन्त्य " मानी है । " भगवान्श्रीसुरेश्वराचार्य" कहते हैं कि - एक आदमी नींद में सो रहा है । वहाँ तुमढोल भी बजाते हो तो वह उठता नहीं । परन्तु तुम कहते हो " देवदत्त। " तो वहझट उठ जाता है । उससे कहते है " अरे । " ढोल बजा था , सुनाथा ? कहताहै जी पता नहीं , इसकामतलब है कि साधारण ध्वनि को , साधारण आवाज़ को वह नहीं सुन रहा था । " श्रुतिभगवती " भीकहती है कि जब आदमी गहरी नींद में सोता है , तब मन के अन्दर कीवासनाओं को नहीं जानता है ; गहरीनींद में मन नहीं है इसलिए मन की वासनाओं का ज्ञान भी नहीं है । सुषुप्ति मे बाह्यइन्द्रियाँ भी नहीं है इसलिए बाऱ की चीज़ों को भी नहीं जानता है । दोनों के मिलेहुए रूप को तो कहाँ से जानेगा ? जब बाहर की चीज़ को जान नहीं रहा था गहरी नींद में , तबउसने आवाज़ सुन कैसे ली ? हमनेजो देवदत्त कहा था तभी उठकर पूछता है । कान ढोल की आवाज़ नहीं सुन रहा है औरदेवदत्त शब्द सुन रहा है , इसकामतलब है कि सामान्य ध्वनि को न सुनने पर भी , बाहर के पदाथो। को नग्रहण करने पर भी , शब्दको ग्रहण कर सकता है , शब्दके अन्दर कोई ऐसी शक्ति है जो गहरी निद्रा में भी जगा देती है । इसलिए कहा किशब्द की शब्द की शक्ति" अचिन्त्य " है । हम सोच भी नहीं सकतेइसकी शक्ति कैसी है ? पताकैसे लगता है ? तो सोईहुई अवस्थासे उठ जाते हैं इससे पता लगता है । जैसे साधारण आदमी गहरी नींद में सोता है वैसेपरब्रह्म परमात्मा अज्ञान निद्रा में सो रहा है अज्ञाननिद्रा में सोया हुआपरमात्मा ही जीव है । अज्ञान - निद्रा में पड़े हुए जीव को श्रुतियों के महावाक्यसुनाया जाये तो वह उसका अर्थ समझे कैसे ? जैसे प्रश्न है कि गहरीनींद वाला अपने नाम को कैसे सुनता है ? इसी प्रकार समस्या है किश्रुतियों के महावाक्यों जीव कैसे समझ सकता है ? कोई तरीका समझ में नहींआता । जैसे गहरी नींद में आवाज़ नहीं सुन सकता वैसे ही अज्ञान निद्रा में पड़ा जीवशुद्ध ब्रह्म के प्रतिपादक महावाक्य को सुन कर जीव परब्रह्म परमात्म रूप जग जाताहै , इसीलिएमानना पड़ता है कि उस शब्द के अंदर अनिर्वचनीय शक्ति है । इसीलिए अपने शास्त्रोंमें परमात्म प्राप्ति के साधनों में शब्द की इतनी महत्ता है ।
" नारायण। " आये जड़ा शब्द पर विचार करें । शब्द के उच्चारणपर हम लोग इसलिये इतना ध्यान देते है , किशास्त्रों में परमात्म प्राप्ति के साधन में शब्द जो है , इसकी बड़ी महत्ता है । वर्तमान काल में " पाश्चात्य - संस्कृति " सेप्रभावित जो शिक्षा है उसके अन्दर न उच्चारण पर ध्याय है न लेखन पर ध्यान है ।बच्चे लिखते हैं तो ऐसा लगता जैसे चीटियाँ चल रहे है । जहाँ लोग दस हजार रूपयेदेकर भर्ती होते हैं ऐसे अच्छे माने जाने विद्याळ में पढ़े बच्चों के हाथ का लेखदेखें तो समझ नहीं आता । अभी कुछ समय पूर्व एक सज्जन ने एक " श्लोक" लिखा , और हमारे पास आये और बोले - स्वामी जी जड़ा देखियेहमारे लिखे श्लोक ठीक है क्या ?हमने उन भले मानुष सज्जन से कहा- " नारायण " , आपही बाँच दें , पढ़ दें । तो अपना लिखा श्लोक बाँचने मे , पढ़ने में में बीच - बीच में रुक रहे थे। हमने कहा " नारायण" हे भद्र पुरुष । जब आपअपना लिखा आप ही नहीं पढ़ सके ,बाँच सके तो दूसरा कैसे बाँचेगा ? यह हालत तो स्वयं लिखे हुये की है, उच्चारण पर भी कोई ध्यान नहीं है । कुछ भी किसी समयउच्चारित होता रहता है ।
" यजुर्वेद- श्रुति" के " तैत्तिरीयशाखा " के " संहिता " और " ब्राह्मण " भागोंके बाद" आरण्यक " का भी जहाँ समापन होने जारहा है वहाँ परमात्म - विद्या के प्रसंग से ठीक पूर्व अकस्मात् श्रुति उच्चारण कीबात समझाने लगती है । भगवान् भाष्यकार आचार्य सर्वज्ञ शङ्करभगवत्पाद् प्रश्न उठातेहैं कि ब्रह्मविद्या के प्रसंग में जहाँ अर्थ की प्रधानता है वहाँ उच्चारण काविचार क्यों कर रहे हैं ? भगवान भाष्यकार आचार्य शंकर इस पर क्या उत्तर देते है - आगे विचार करेंगे !
भगवान् भाष्यकार आचार्य सर्वज्ञ शङ्करभगवत्पाद् प्रश्न उठाते हैं कि ब्रह्मविद्या के प्रसंगमें जहाँ अर्थ की प्रधानता है वहाँ उच्चारण का विचार क्यों कर रहे हैं ?
भगवान् भाष्यकार आचार्य शङ्कर उत्तर देते हैँ कि अर्थ- प्रधान ब्रह्मविद्या के अन्दर उच्चारण के प्रति प्रमाद न हो इसीलिये श्रुतिभगवतीने यह शब्द उच्चारण के प्रसंग को रख दिया । यह वाक्य याद रखने का है क्योंकि आजकल किसी को शब्द ठीक से उच्चारित करने को कहा जाये तो आदमी कहता है समझ तो आप गये हीहैं । अर्थात् उच्चारण को सर्वथा गौण मानने लगे हैं । इसीलिये वहाँ भी श्रुतिभगवतीनें इसका विचार किया , क्योंकि यदि शब्द का उच्चारण गलत हुआ तो उसके स्पंद गलत हो जायेंगे । उसका ठीक प्रभाव नहींपड़ पाएगा । शब्द - शक्ति अचिन्त्य है । इसीलिये केवल समझ गए - इतने मात्र से शब्द- शक्ति की अवहेलना नहीं करनी चाहिए ।
जब कहते हैं " ओंकार " सबका वाचक है , तब सब कौन है ? सब का अर्थ श्रुतिमहारानीजी ने किया है -" सव् खल्विदं ब्रह्म" सर्व अर्थात् " ब्रह्म " , क्योंकि एक ब्रह्म ही सारे रूपों में अज्ञान के द्वारा प्रतीत हो रहा है । ब्रह्म को बतलाने वाला यह ॐ है , साक्षात् ब्रह्म का वाचक है । " महर्षि पतंजली " भी इसीलिये कहते हैं " तस्य वाचः प्रणवः " परमात्मा का वाचक है तो " प्रणव " अर्थात् ॐ है ।
" देवाश्चेतिसन्धत्ताम । सर्वेभ्यो दुःखभयेभ्यः संतारयति इति तारणात् तारः । "
परब्रह्म का प्रतिपादन करता है , इसीलिए ओंकार संसार से तारने वाला होने से तार कहता जाता है । श्रीकाशीजी में भगवान् सदाशिव - शङ्कर ने मोक्ष का " सदाव्रत " क्षेत्र खोल रखा है । सदाव्रत क्षेत्र अर्थात् जहाँ जो आए उसको भोजन दिया जाए , जैसे हृषिकेश आप चले जाएँ तो देखेंगे कि " काली कम्बली" बाले बाबा का सदाव्रत क्षेत्र है , जो वहाँ जाएगा उसे भोजन मिल जाएगा । वहाँ यह भी नहीं देखा जाता कि आप कितने पढ़े - लिखे हो , या नहीं पढ़े - लिखे हो , सच बोलने वाले हो या झूठ बोलने वाले हो , कुछ भी परीक्षा नहीं की जाती है । वहाँ भिक्षा - पात्र लेकर चाहे बड़े - से -बड़ा विद्वान पहूँच जाए , ब्रह्मनिष्ठ पहुंच जाए तो पाँच फुलके देने हैं , औरचाहे बेपढ़ा , मूर्ख , चोर पहुँच जाए तो भी उन्हें पाँच फुलके हीदेने है ; हमने भी वहाँ अपने भिक्षा - पात्र में बहुतों बार भिक्षा लिया है . यह सदाव्रत क्षेत्र है । ठीक उसीप्रकार भगवान् श्रीआशुतोष - शङ्कर ने काशी में मोक्ष का सदाव्रत क्षेत्र खोल रखाहै , चाहे कोई ब्रह्महत्यारापहुँच जाए, और चाहे कोई बड़े से बड़ा ब्रह्मवेत्ता ब्रह्मनिष्ठ पहुँच जाए , दोनों को एक जैसी मुक्ति दे देते है ।
नारायण । आजकल के लोगों को यह बात गले नहीं उतरती , क्योंकि सदाव्रत क्षेत्र आजकल के गले उतरता नहीं । लोग कहते हैं कि बिना काम किए कोई रोटी क्यों खावे ? एक बार नारायण , हमसे कोई कहने लगा , " महाराज बिना परिश्रम किए खाना तो बुरी बात है" । हमने कहा कि " भाई बन्दरों को लगाओ किसी नौकरी में , चींटियों को पकड़ कर लगाओ कुछ काम - धन्धा करने में ।अरे । संसार में खरबों प्राणी हैं जिनको गिन नहीं सकते , चींटी है , दीमक है , बड़े से बड़ा हाथी है , सभीभरपेट खाते हैं , क्या एक मनुष्यको ही इतना गया - बीता समझ रहे हो कि इसे खाने का अधिकार नहीं । जिसको परमेश्वर नेपैदा किया है उसके लिए भोजन परमेश्वर ने साथ पैदा किया है " । पाश्चात्य देशों से यह विचार धारा आई है कि मेहनत करके खावे।
अपने भारत वर्ष के बंगाल प्रान्त में एक " ब्राह्म समाज " हुआ है । अब उसका प्रभाव कम हो गया है। वह ईसायियत सेज्यादा प्रभावित है । ईसाई लोग जब भोजन करने बैठते हैं तब प्रार्थना करते हैंभगवान् । आपका बहुत - बहुत धन्यवाद है जो हमें खाने के लिए रोटी मिली । उससेप्रभावित होकर " ब्राह्मसमाज " वाले भी ऐसे ही प्रार्थना करते हैं । उस समय ब्राह्म समाज के नेता थे " केशवचन्द्र " वे " श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव " से कहने लगे - एक बार चल कर हमारे यहाँ की प्रार्थना देखिए । श्रीरामकृष्णदेव वहाँ चले गए । जब प्रार्थना आदि का कार्यक्रम पूरा हो गया तब ईसाईयों के ढ़ंगसे समापन की सूचना देने के लिए घण्टी बज गई और सबने ध्यान खत्मकर आँख खोल लीं। बाद में केशवचन्द्र जो ब्राह्म समाज के नेता थे पूछा श्रीरामकृष्ण देव से कि " आपको कैसा लगा" ? तो श्रीरामकृष्णदेवजी ने कहा " तुम्हारी दोबाते समझ में नहीं आई : एक तो तुमने कहा सब लोग ध्यान करो भगवान् का" ; मैं सबकी ओर देख रहा था ,जानते हो सब कैसे दिख रहे थे ? जैसे बन्दर पेड़ की डाल पर बैठा हुआ सामने केफल पर कूदने की कोशीश में हो , चुपबैठा है कि जैसे ही संतुलन बने वैसे ही खट - खटाखट कूदकर फल तोड़ ले! इसी तरह वहाँ जितने लोग ध्यान में बैठे थे सब इसी इंतज़ार में थे कि जैसे ही ध्यान खत्म हो वे खटआँखे खोलें । कोई मर जाता था तो गीताजी का पाठ कर लेते थे गरुड पुराण रखवाते थे;अब कहते है सब जने दो मिनट शान्ति -पूर्वक प्रार्थना करो । कभी ध्यान देकर देखो तो घीरे - धीरे बीच में लोग अपने हाथकी घड़ी देखते है कि दो मिनट हुए कि नहीं । मौन कोई इतना सरल काम नहीं है । दिन -भर दुनिया - भर के व्यवहारों को मन में भर कर ध्यान हो जाएगा , यह आशा करते कैसे हो ? ठीक जैसे श्रीरामकृष्णदेव ने देखा कि उछलने को तैयार बैठे हैं , उसी तरह नये विषय -चिन्तन की इन्तजार को ध्यान समझ लेते हैं । दूसरी बात श्रीपरमहंसदेवजी ने कही तुम अपनी प्रार्थना में कहते हो भगवन् आप हमें कपड़ा , भोजन देते हो आपका बड़ा धन्यवाद है । तुमने अपने बेटेको पैदा किया तो उन बेटों को खिलाने के लिए क्या पड़ोसी देगा ? क्या भगवान् ने हमें पैदा किया है तो भगवान्हमें कपड़ा - भोजन नहीं देगा ? इसकेलिए धन्यवाद - धन्यवाद क्या कर रहे हो ! पैदा किया है तो खाने को वह नहीं देगा तोक्या कोई दूसरा देगा ? यह विचारधारा कि भगवान् को धन्यवाद देवें , पाश्चात्यसंस्कृति से आई है । हमारी दृष्टि है प्रारब्ध की , कि हमको भगवान् ने पैदा किया है तो हमारी व्यवस्था भीवही कर रहा है । जब लौकिक व्यवहार में ही सदाव्रत क्षेत्र हमारे गले नहीं उतरता तोमोक्ष का सदाव्रत गले कैसे उतरेगा ? इसलिए बार - बार प्रश्न उठता है कि श्रीकाशीजी में मरने वाला एकब्रह्महत्यारा उसकी भी मुक्ति , दूसराबड़ा भारी ब्रह्मनिष्ठ उसकी भी मुक्ति , दोनों को एक जैसा मोक्ष कैसे ?
भगवान् शङ्कर श्रीकाशीजी में मरने पर मुक्ति किस प्रकार से देते हैं ? ॐ कार के उपदेश से ही । प्राणी को वह अपनी गोद में लेकर उसे ॐ का श्रवण कराते हैं , ॐ सुनाते हैं , उसके द्वारा ही उसकी मुक्ति होती है । भगवान् ने श्रीगीताजी में इसलिए सभी प्राणियों को यही कहा कि जब जीवन का अन्त आवे तो ॐ का उच्चारण करते हुए ही शरीर छोड़े । ॐ संसार वन्धन से तारता है इसलिए ॐ को" तारक " कहते हैं , तारने वाला कहते हैं । सारे दुःखों और भयों से वह हमेंपार उतार देता है । दुःख और भय शरीर के संबंध से ही है । जब तक हम शरीर के साथसंबंध वाले हैं तब तक दुःख और भय है । अपने सारे दुःखों को सोच ले , शरीर संबंध के बिना कोई दुःख नहीं होता । इसीप्रकार डर भी कब लगता है ? शरीर- संबंध से ही भय लगता है । इसीलिए श्रुतिभगवती स्पष्ट करते हुए कहती है कि देह -संबंध से ही यह सब है ।
" आत्तोवै सशरीरः प्रियाप्रियाभ्याम् । न वै सशरीस्य सतः प्रियाप्रिययोरपहतिरस्ति ।अशरीरं वाव सन्तं न प्रियाप्रिये स्पृशतः । "
जब तक आत्मा शरीर में है , इससे तादात्म्य वाला है , तब तक प्रिय और अप्रिय , सुख और दुःख ग्रस्त है , इनसे छूट नहीं सकता । जब यह शरीर से सर्वथा असम्बद्ध हो जाता है तब इसेप्रिय - अप्रिय छू नहीं सकते । ओंकार क्या करता है ? " दुःखभयेभ्यः संतारयति इति तारणात् तारः " अर्थात् दुःख और भय से बचा देता है । दुःख औरभय से बचने का तरीका यही है कि शरीर की प्राप्ति न होवे , शरीर से संबंध न होवे ।
यह कार्य ओंकार किस प्रकार करता है ? " देवाश्चेति सन्धताम् " देवता वे जिनका प्रतिपादन किया और चकार से प्रतिपादन करने वाले वेद के मन्त्रों का संग्रह है । इन दोनों का सन्धान है : सारे देवता परब्रह्म - परमात्म हैं , सारे वेद देवताओं का प्रतिपादन करते हैं , इसलिए वेद परमात्मा का प्रतिपादन करते हैं । भगवान् ने इसलिए अपने श्रीगीता - गायन में कहा है - " वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यः " सारे वेदों के अन्दर एक मात्र मैं ही प्रतिपादित किया गया हूँ । ऐसे आप इसे समझ ले - जैसे लम्बा - चौड़ा बजट होता है , उसमें अलग - अलग विभागों का व्योरा होता है , लेकिन सारे बजट में प्रतिपाद्य क्या है ? पैसा कहाँ से आना है , पैसा कहाँ को जाना है ; सारे बजट का प्रतिपाद्य तो धन की आय, और धन का व्यय है बाकी सब अलग - अलग नाम है । बड़ा झगड़ा चलता है कि प्रत्यक्ष कर { डायरेक्ट टैक्स } बढ़ायाजाए या अप्रत्यक्ष कर { इनडायरैक्टटैक्स } बढ़ाया जाए । अरे भाई ।घुम - फिर कर पड़ना तो आपके सिर है , चाहे बाएँ तरफ से हाथ बढ़ा कर आपके पीछे के जेब से निकाला जाए चाहे ऊपर कीजेब से निकाला जाए , निकालना तो आपसे ही है , फर्क क्या पड़ता है। परन्तु लोगों को अलग - अलग नाम होने से बिक्री कर , आय कर आदि नाम अलग - अलग रख देते हैं तो लोग राजी रहतेहैं। आप लोग हल्ला मचाते हो कि बिक्री कर हट जाना चाहिए , अरे । पैसा तो खर्च होना ही है , वह पैसा आप से ही आना है , चाहे जैसे आवे । फिर भी लोगों को रुची होती है कि इस तरह से कर लेवें तो ठीक , इसतरह से न लेवे तो ठीक । इसी प्रकार वेदों के द्वारा प्रतिपाद्य तो एक परमात्मा है। " आचार्य सायण" लिखते है वेद - भाष्य की भूमिकामें कि सारे वेद मन्त्रों के द्वारा एक मात्र परमेश्वर की ही प्रार्थना की जाती है, परमेश्वर का ही स्मरण कियाजाता है , उनको ही बुलाया जाताहै । परन्तु लोगों की भिन्न - भिन्न रुचियाँ हैं , इसीलिए अनेक प्रकार के देवताओं का वर्णन किया जाता है ,प्रतिपाद्य तो एक परमेश्वर ही है । अतःयहाँ पर कहा कि सारे देवता एकमात्र परमात्मा का ही स्वरूप है और सारे वेद एकमात्र परमात्मा का ही प्रतिपादन करने वाले हैं । ओंकार चूँकि उन सब देवताओं का प्रतिपादकहै इसलिए सारे दुःख और भयों से तार देता है । सारे दुःख का मतलब इह लोक और परलोकके सब दुःख समझेंगे ।
एक महात्मा के पास कोई गया , उनसे पूछा " अमुक जगह कहाँ है ? " " उन्होंने कहा पार मे है " । वह बेचारा भोला - भाला आदमी था, नाव में बैठ गया । नाव वाले ने पूछा " किधर जाना है ? " वह बोला पार जाना है ।नाविक नाव को दूसरे किनारे पर ले गया । दूसरे किनारे पहुँच कर नाव वाले ने कहा " उतरो " , उसने कहा " पार आ गया ? " नाव बड़ी थी सैकड़ो आदमी चढ़े हुए थे , नाविक ने पहचाना नहीं कि वही आदमी है , सोचा कि इधर से ही चढ़ा होगा अतः उसने कहा " अच्छा , पार तो अभी जाएँगे " दूसरी तरब अर्थात् पहले वाले किनारे पर फिर आगए ,सब उतर गए , वह बैठा रहा , नाविक ने कहा " कहाँ जाना है ? " वह बोला - पार जाना है । नाविक ने कहा " अच्छा " । बहुत से आदमी थे पहचानने में आया नहीं तो बेचारा घण्टों इधर से उधर चलता रहा , सोचता रहा नजाने पार कब आएगा । इधर से चलो तो उघर पार है उधर से चल कर कहोगे तो इधर पारहो जाता है। इसी प्रकार मनुष्य पैदा होता है तो सोचता है कि स्वार्गादि लोक में ,वैकुण्ठ - लोक में पहुँच जाऊँगा तो पारहो जाऊँगा । वहाँ जाता है तो वहाँ वाले कहते है " अरे मनुष्य - लोक में जाओ , वहाँ ज्ञान और मोक्ष हो जाता है " । शास्त्रकार कहते हैं कि जीव देवता बनता हैतो सोचता है कि मनुष्य बन जाऊँ " गायन्ति देवा किलगीतकानि धन्यास्तुते भारतभूमिभागे " पुराण बताता है कि देवता लोग कहते है कि जो भारतवर्ष में जन्म लेते हैं वे धन्य हैं। ठीक जैसे यहाँ से अगर आप अमेरिका चले जायें तो वहाँ आप कमाई नही कर सकते । कमाई करेंगे तो वे तुम्हें जेल में बन्द करदेंगे । आप वहाँ घूमने गये हो , मौज- शौक खूब करो । परन्तु केवल खर्च कर सकते हो , कमाई नहीं कर सकते । कमाई करने के लिये आपको फिर यहीं आना पड़ेगा । अब तो पता नहीं परन्तु कुछ साल पहले सरकार का नियम था कि कम से कम तीनसाल के पहले वहाँ जाने की अनुमति नहीं देते थे । हमने सोचा , सरकार ने यह निर्णय किया है कि तीन साल में रुपया इकट्ठा करे तो ही वहाँ जा कर खर्च कर सकता है । इससे यदि कम समय में किया हैतो इसने कहीं न कहीं सेंध मारी है । तभी इसके पास इतनी जल्दी वहाँ जाकर खर्च करने का पैसा हो गया । ठीक इसी प्रकार से मनुष्य - लोक में कमाई कर सकते हो , देव लोक मेंजा कर खर्च करो , खर्च करके वापस कमाई करने यहीं आना पड़ेगा । देव लोँक में पहुँच कर पूछते हो पार कहाँ है ? तो देवता कहते हैं - मनुष्य लोक में जाओ कमाई करने के लिए । मनुष्य लोक में आकर पार के बारे में पूछते हो तो कहते है देव लोकमें जाओ भोग भोगने के लिए । जीव कभी देव लोक , कभी मनुष्य लो , फिर देव लोक , बस यों घुमता रहता है परन्तु पार कभी आता नहीं । यहाँ दुःख इस बात का हैकि भोग नहीं भोग सकते , मनुष्य शरीर में कोई ज्यादा भोग भोगने की सामर्थ्य नहीं है। सेर - भर दाल का हलबा खा लोबस , फिर और खाना भी चाहो तो खानहीं सकते ।
इस संसार में दुख इस बात का है कि भोग भोग नहीं सकते ,मनुष्य शरीर में कोई ज्यादा भोग भोगने की शक्ति भी नहीं है । अतः मनुष्य जब यहाँ आता है तो दुःख इस बात का है कि" मैं दुःख भोग नहीं सकता" । और इस जगत में आने पर भय भी है। उम्र बहुत कम है । पचीस वर्ष जिसको " गधा पचीसी कहते हैं " उसमें चले गए , उसके बाद आपने कमाई करना शुरू किया । पचहत्तर साल मेंबुड्ढे हो गए तो वैसे ही कुछ भोग करने लायक नहीं रह जातें पचास साल तो ऐसे निकलजाते है कहने को सौ साल की उम्र है । पचास साल बचे उसके अन्दर तो आठ घण्टे तो नींद आप लेंगें ही , एक - तिहाई समय आपका सोने में निकल गया । खाना - पीना - नहाना - धोना सब में चार घण्टे और निकल जाते हैं बेचारों के । यों आपके पास आधा समय बचा यानि पचीस साल बचे। उनमें भी कुछ न कुछ समय निकालना पड़ता है यहाँ दाल- रोटी के धन्धा करने का , उससेजो सभय बचा उसी में आप पुण्य करके सुख भोगने के लिए देव- लोक में जाऐगें। अतःयहाँ पर हमेशा भय लगता रहता है कि समय खत्म हो रहा है , जल्दी ही यहाँ से जाना पड़ेगा , हम बहुत कम पुण्य कर पाए । इस बात का भय है । जब यहाँ पहुँचते हैं तब दुख इस बात का है कि रोज खर्च ही खर्च हो रहा है । क्योंकि जीवदेवलोक में पहुँचकर प्रज्ञावाला होता है , इसलिए उसको हर क्षण पता रहता है कि अब उसका इतना पुण्य बच गया । घर सेदूरभाष द्वारा , टेलिफोन द्वाराचाहे जितनी देर बातें करते हो तो घबराहट नहीं होती क्योंकि तत्काल पैसा नहीं देनापड़ता । दूरभाष के उपयोग के लिये खुली दूकान मे { एस . टी . डी बूथ में } जाकर बात करो तो हर क्षण सामने लिखा आता रहता है किकितने पैसे खर्च हो गये अतः वहाँ ज्यादा देर बात नहीं की जाती , देर तक बाता करने का मजा किरकिरा हो जाता है ।देव लोक में सामने आता रहता है कि " अब इतना पुण्य खर्च हो गया , अब इतना खर्च हो गया " , अतः दुःक बना रहते से वहाँ भोग का मजा भी किरकिरा हो जाता है । इसलियेचाहे मनुष्य - लोग हो या देवादिलोक, सर्वत्र दुःख और भय हमेशा रहते हैं जिसके फलस्वरूप जीव आनंदपूर्ण नहीं रहपाता । अन्य कोई उपाय नहीं जिससे ये दुःख व भय सर्वथा मिट सके , एकमात्र परमात्मज्ञान से ही दूर होकरआनन्दस्थिति होती है । वह परमात्म - ज्ञान " ओंकार { ॐ } " से ही संभवहै यही इस तार की , प्रणव की ,ॐ की महत्ता है ।
किसी भी शब्द का उच्चारण केवल तभी शुद्ध हो सकता है जब उसका वह अर्थ समझ आ जाय जो मंत्र दृष्टा या शब्द निर्माता का अर्थ है। इसी को संस्कृत या संस्कारिक होना कहते हैं, संस्कृत किसी भाषा का नाम नहीं है क्योंकि जो भाषा मनुष्यों के विचारों को ध्वनि में, परिवर्तित करने में समर्थ है वही संस्कार ही संस्कृत है। जैसे रेडियो जो विद्युत चुम्बकीय तरंगों को ध्वनि में परिवर्तित करती है उसी तरह जीव भी मन के विचारों को वाणी में परिवर्तित कर उच्चारण करते हैं।

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