Tuesday, April 14, 2015

पाप कभी पुण्य से नहीं कटता

पाप कभी पुण्य से नहीं कटता
यह प्रश्‍न सनातन है, सदा ही पूछा जाता रहा है। बहुत हैं पाप आदमी के, अनन्त हैं, अनन्त जन्मों के हैं। गहन है, लम्बी है शृंखला पाप की। इस लम्बी पाप की शृंखला को क्या ज्ञान का एक अनुभव तोड़ पायेगा? इतने बड़े विराट पाप को क्या ज्ञान की एक किरण नष्ट कर पायेगी? जो नीतिशास्त्री हैं, नीतिशास्त्री अर्थात जिन्हें धर्म का कोई भी पता नहीं, जिनका चिन्तन पाप और पुण्य के ऊपर कभी गया नहीं, वे कहेंगे, जितना किया पाप उतना ही पुण्य करना पड़ा है। एक—एक पाप को एक—एक पुण्य से काटना पड़ेगा, तब बैलेंस, तब ऋण— धन बराबर होगा, तब हानि—लाभ बराबर होगा और व्यक्ति होगा।
जो नीतिशास्त्री हैं ‘मोरलिस्ट’ हैं, जिन्हें आत्म—अनुभव का कुछ भी पता नहीं, जिन्हें ‘बीइंग’ का कुछ भी पता नहीं, जिन्हें आत्मा का कुछ भी पता नहीं, जो सिर्फ ‘डीड’ का, कर्म का हिसाब—किताब रखते हैं—वे यही कहेंगे एक—एक पाप के लिए एक—एक पुण्य साधना पड़ेगा। अगर अनन्त पाप हैं तो अनन्त पुण्यों के अतिरिक्त कोई उपाय नहीं। लेकिन मैं कहता हूं तब मुक्ति असम्भव है।
दो कारण से असम्भव है—एक तो इसलिए असम्भव है कि अनन्त शृंखला है पाप की और अनन्त पुण्यों की शृंखला करनी पड़ेगी। इसलिए भी असम्भव है कि कितने ही कोई पुण्य करे, पुण्य करने के लिए भी पाप करने पड़ते हैं।
एक आदमी धर्मशाला बनाए, तो पहले ब्रैक माकेंट करे। ब्रैक माकेंट के बिना धर्मशाला नहीं बन सकती। एक आदमी मन्दिर बनाए तो पहले लोगों की गर्दनें काटे। गर्दनें काटे बिना मन्दिर की नींव का पत्थर नहीं पड़ता। एक आदमी पुण्य करने के लिए कम से कम जियेगा तो सही, और जीने में ही हजार पाप हो जाते हैं—चलेगा तो, हिंसा होगी—उठेगा तो, हिंसा होगी—बैठेगा तो, हिंसा होगी। आस भी लेगा तो…
वैज्ञानिक कहते हैं, एक श्वास में कोई एक लाख छोटे जीवाणु नष्ट हो जाते हैं। बोलेगा तो… एक बार ओंठ ओंठ से मिला और खुला, करीब एक लाख सूक्ष्म जीवाणु नष्ट हो जाते हैं। किसी का चुम्बन आप लेते हैं, लाखों जीवाणुओं का आदान—प्रदान हो जाता है। कई मर जाते हैं बेचारे। जीने में ही पाप हो जाएगा। पुण्य करने के लिए ही पाप हो जाएगा।
तब तो यह अनन्त वर्तुल है, ‘विशियस सर्किल’ है, दुष्ट चक्र है, इसके बाहर आप जा नहीं सकते। अगर पुण्य से पाप को काटने की कोशिश की तो पुण्य करने में पाप हो जायेगा। फिर उस पाप को काटने की पुण्य से कोशिश की, फिर उस पुण्य करने में पाप हो जायेगा। हर बार पाप को काटना पड़ेगा, हर बार पुण्य से काटेंगे, और पुण्य नये पाप करवा जाएगा। इस वर्तुल का कभी अन्त नहीं होगा। इसलिए नैतिक व्यक्ति कभी मुक्त नहीं हो सकता। नैतिक दृष्टि कभी मुक्‍ति तक नहीं जा सकती। नैतिक दृष्टि तो चक्कर में ही पड़ी रह जाती है।
एक बहुत ही और दृष्टि की बात—गहरी दृष्टि की बात जो भी जानते हैं, वह करेंगे। वे कहेंगे अगर आप सब पापियों में भी सबसे बड़े पापी हैं, ‘द ग्रेटेस्ट सिनर’ — अस्तित्व में जितने पापी हैं, उनमें सबसे बडे पापी हैं, तो भी ज्ञान की एक घटना आपके सब पापों को क्षीण कर देगी। क्या मतलब हुआ इसका? इसका मतलब यही हुआ कि पाप की कोई सघनता नहीं होती, पाप की कोई ‘डेंसिटी’ नहीं होती। पाप है अंधेरे की तरह।
एक घर में अंधेरा है हजार साल से, दरवाजे बन्द और ताले बन्द! हजार साल पुराना अंधेरा है और आप दीया जलाएंगे, तो अंधेरा कहेगा क्या, कि इतने से काम नहीं चलेगा? आप हजार साल तक दीये जलाए तब मैं कटूगा। नहीं, आपने दीया जलाया कि हजार साल पुराना अंधेरा गया। वह यह नहीं कह सकता है कि मैं हजार साल पुराना हूं। वह यह भी नहीं कह सकता कि हजार सालों से मैं बहुत सघन, ‘क्लेस्ट’ हो गया हूं इसलिए दीये की इतनी छोटी—सी ज्योति मुझे नहीं तोड़ सकती।
हजार साल पुराना अंधेरा और एक रात का पुराना अंधेरा एक ही ‘डेंसिटी’ के होते हैं या कहना चाहिए कि ‘नो डेंसिटी’ के होते हैं, उनमें कोई सघनता नहीं होती। अंधेरे की पर्तें नहीं होतीं, क्योंकि अंधेरे का कोई अस्तित्व नहीं होता। बस इधर आपने जलायी तीली, अंधेरा गया—अभी और यहीं!
हां, अगर कोई अंधेरे को पोटलियों में बांधकर फेंकना चाहे तो फिर मोरलिस्ट का काम कर रहा है, नैतिकवादी का। वह कहता है जितना अंधेरा है, बांधों पोटली में, बाहर फेंककर आओ। फेंकते रहो टोकरी बाहर और भीतर, अंधेरा अपनी जगह रहेगा। आप चुक जाओगे, अंधेरा नहीं चुकेगा।
ध्यान रहे, पाप को पुण्य से नहीं काटा जा सकता। क्योंकि पुण्य भी सूक्ष्म पाप के बिना नहीं हो सकता। पाप को तो सिर्फ ज्ञान से काटा जा सकता है, क्योंकि ज्ञान बिना पाप के हो सकता है।
ज्ञान कोई कृत्य नहीं है कि जिसमें पाप करना पड़े, जान अनुभव है। कर्म बाहर है, ज्ञान भीतर है। ज्ञान तो ज्योति के जलने जैसा है—जला कि सब अंधेरा गया। फिर तो ऐसा भी पता नहीं चलता कि मैंने कभी पाप किये थे; क्योंकि जब ‘मैं’ ही चला जाए तो सब खाते—बही भी उसी के साथ चले जाते हैं, फिर आदमी अपने अतीत से ऐसे ही मुक्त हो जाता है जैसे सुबह सपने से मुक्त हो जाती है।
कभी आपने ऐसा सवाल नहीं उठाया कि जब सुबह हम उठते हैं, रातभर का सपना देखकर और जरा—सा किसी ने हिलाकर उठा दिया, तो इतने से हिलाने से रातभर का सपना कैसे टूट सकता है? जरा—सा किसी ने हिलाया, पलक खुली, सपना गया! फिर आप यह नहीं कहते कि रातभर इतना सपना देखा, अब सपने के विरोध में इतना ही यथार्थ देखूंगा तब सपना मिटेगा। बस सपना टूट जाता है! पाप सपने की भांति है।
ज्ञान की जो सर्वोच्च घोषणा है वह यह है कि पाप स्‍वप्‍न की भांति है, पुण्य भी स्‍वप्‍न की भांति है। और सपने सपने से नहीं काटे जाते। सपने सपने से काटेंगे तो भी सपना देखना जारी रखना पड़ेगा। सपने सपने से नहीं कटते क्योंकि सपनों को सपने से काटने में सपने बढ़ते हैं। और सपने यथार्थ से भी नहीं काटे जा सकते। क्योंकि झूठ है, वह सच से काटा नहीं जा सकता। जो असत्य है वह सत्य से काटा नहीं जा सकता। वह इतना भी तो नहीं है कि काटा जा सके। वह सत्य की मौजूदगी पर नहीं पाया जाता है, काटने को भी नहीं पाया जाता है।
इसलिए कृष्ण भी कहते हैं कि कितना ही बड़ा पापी हो तू सबसे बड़ा पापी हो तू तो भी मैं कहता हूं अर्जुन, कि जान की एक किरण तेरे सारे पापों को सपनों की भांति बहा ले जाएगी। सुबह जैसे कोई जाग जाता है वैसे ही रात समाप्त, सपने समाप्त, सब समाप्त! जागे हुए आदमी को सपनों से कुछ लेना—देना नहीं रह जाता।
इसलिए जब पहली बार भारत के ग्रंथ पश्‍चिम में अनुवादित हुए तो उन्होंने कहा, यह ग्रंथ तो ‘इम्मारल’ मालूम होता है, अनैतिक मालूम होता है। खुद शोपेनहार को चिन्ता हुई—मनीषि था, चिन्तक था गहरा, उसको खुद चिन्ता हुई कि ये किस तरह की बातें है। ये कहते हैं, एक क्षण में कट जायेंगे पाप।
क्रिश्रियनिटी कभी भी नहीं समझ पायी इस बात को, ईसाइयत कभी नहीं समझ पायी इस बात को कि एक क्षण में पाप कैसे तिरोहित होंगे? क्योंकि ईसाइयत ने पाप को बहुत भारी मूल्य दे दिया, बहुत गम्भीरता से ले लिया। सपने की तरह नहीं, असलियत की तरह ले लिया। ईसाइयत के ऊपर पाप का भार बहुत गहरा है, ‘बर्डन’ बहुत गहरा है।’ ओरिजिनल सिन’, एक—एक आदमी का पाप तो है ही, पर उससे पहले आदमी ने जो पाप किया था वह भी सब आदमियों की छाती पर है। उसको काटना बहुत मुश्किल है।
इसलिए क्रिश्रियनिटी ‘गिल—रिडन’ हो गयी, अपराध का भाव भारी हो गया। और पाप का कोई छुटकारा दिखायी नहीं पड़ता। कितना ही पुण्य करो उससे छुटकारा नहीं दिखायी पड़ता। इसलिए ईसाइयत गहरे में जाकर रुग्ण हो गयी। जीसस को नहीं था यह खयाल, लेकिन ईसाइयत जीसस को नहीं समझ पायी, जैसा कि सदा होता है।
हिंदू कृष्ण को नहीं समझ पाए, जैन महावीर को नहीं समझ पाए, न समझने वाले। समझने का जब दावा करते हैं तो उपद्रव शुरू हो जाता है। जीसस ने कहा— ‘सीक यी फर्स्ट द किंगडम आफ गाड एण्‍ड आल एल्‍स शैल बी एडेड अन टू यू। जीसस ने कहा, सिर्फ प्रभु के राज्य को खोज लो और शेष सब तुम्हें मिल जाएगा। वही जो कृष्ण कह रहे हैं कि सिर्फ प्रकाश की किरण को खोज लो और शेष सब, जो तुम छोड़ना चाहते हो छूट जाएगा, जो तुम पाना चाहते हो मिल जाएगा।
भारतीय चिन्तन ‘इम्मारल’ नहीं है, ‘ए मारल’ है—अनैतिक नहीं है, अतिनैतिक है, ‘सुपर मारल’ है—नीति के पार जाता है, पुण्य—पाप के पार चला जाता है!

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