Tuesday, April 14, 2015

ब्रह्म की खोज

ब्रह्म की खोज

आध्यात्मिकता के तमाम स्वरूपों के साथ 'माया का प्रभाव अत्यंत शक्तिशाली है, यधपि ब्रह्म अर्थात सर्वोपरि चेतना की तलाश घास के ढेर में सूर्इ तलाशने जैसा है। ऐसी भविष्यवाणी की गर्इ थी कि वर्तमान युग-कलयुग में धर्म की अवस्था का पतन होगा। कुछ लोगों के लिए अध्यात्म का मतलब बंधनों को तोड़ने के बजाय माया को आकर्षित करना है। इसलिए कुछ लोग हैं जो कला को तपस्या और भक्तियोग से बेहतर मानते हैं और वे र्इश्वर को पाने के विभिन्न मार्गों में भेद नहीं कर पाते। इसलिए कौन सा मार्ग बेहतर है, इस पर बहस करना व्यर्थ है।
पतंजलि ने कर्इ मार्ग सुझाए जो सभी खुद से योग या जुड़ाव की तरफ ले जाते हैं। सभी मार्ग समान हैं। हालांकि, कुछ साधकों ने कुछ खास किस्म के रास्तों को चुना और उसी को ब्रह्म को पाने का सबसे सटीक रास्ता बताया। हमें इन रास्तों का इस्तेमाल करते हुए सजग रहना चाहिए। सभी देवता और भगवान उर्जा के प्रकार हैं। वे सभी संक्रमण के दौर से गुजरते हैं और सृजन में अपनी भूमिका निभाते हैं। वे हमारी इंद्रियों से परे अपनी भूमिका निभाते हैं इसलिए यह सवाल ही नहीं उठता है कि उन्हें सभी तरह से डांस, ड्रामे या किसी और तरह के प्रयोग से खुश किया जा सके।
एक योगी के लिए संपूर्ण सृजन एक नाटक जैसा है। वास्तविक लक्ष्य नाटक की परतों को खोलना है और इस रास्ते में दृश्य और भागों से प्रभावित नहीं होना होता है। इसी बात पर कृष्ण ने अपनी लीलाओं के जरिए जोर दिया है। इसमें मुख्य संदेश यही है कि प्रभावित न हुआ जाए। इसी को निष्काम कर्म का नाम दिया जाता है या कर्म मुक्त जुड़ाव कहते हैं। दुख और सुख से मुक्ति। यही गीता के क्रमिक विकास का मूल मंत्र भी है। इसमें जीवन के आयामों और जीवन चक्रों के जरिए इस क्रमिक विकास को पाने की प्रक्रिया बतार्इ गर्इ है।

योग चक्र सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाने वाला ऊर्जा का केंद्र कहलाता है, जो सुशुम्ना नाड़ी से बंधे हुए हैं। ये शरीर की उर्जा में कुंडलिनी के साथ-साथ कार्य करते हैं। शरीर में सात प्रमुख चक्र होते हैं। ये सृजन के सभी आयामों को नियंत्रित करते हैं। प्रत्येक चक्र के गुण जीवन की वे अवस्थाएं हैं जिनमें से क्रमिक विकास को नियंत्रित करने के क्रम में हम सभी गुजरते हैं। पहला चक्र-मूलाधार चक्र है, जिसकी मूल प्रकृति भोजन और उत्तरजीविता से जुड़ी है। यह सुशुम्ना नाड़ी के निचले भाग में केंद्रित होता है।
अगला चक्र स्वाधिष्ठान चक्र है, जिसका संबंध यौनिकता और प्रजनन उर्जा से है, मूलाधार से थोड़ा उपर स्थिति होता है। तीसरा चक्र मणिपूरक है, जो नाभि क्षेत्र में स्थित होता है। यह उर्जा का केंद्र है, उर्जा का संग्रहालय। रावण की मौत तभी हुर्इ थी, जब उसकी नाभि पर वार किया गया था। चौथा चक्र है अनाहत, जो प्रेम और संवेदना का केंद्र है, न कि अधिकार अथवा स्वार्थपरता का। यह ग्रीवा क्षेत्र के आसपास होता है। अगला चक्र है विशुद्धि चक्र, यह सूक्ष्म दृष्टि से अवलोकित कला और रचनात्मकता के चरम स्वरूप का केंद्र होता है। सभी कलाकारों में सुस्पष्ट विशुद्धि चक्र होता है। लेकिन यह केंद्र प्रत्यक्षत: स्वाधिष्ठान चक्र से भी जुड़ा होता है और संभवत: इसीलिए कलाकारों में यौन उर्जा अपेक्षाकृत अधिक होती है।
विशुद्धि चक्र ग्रीवा क्षेत्र में स्थित होता है। यह ऐसा चक्र है जो कला को नियंत्रित करता है, जो कि सृजन के सभी भौतिक आयामों में सबसे उच्च है। क्रमिक विकास के मार्ग में कला बेहतर रास्ता तो है लेकिन सबसे अच्छा नहीं है। कलयुग में हममें से ज्यादातर लोग स्वाधिष्ठान अथवा मणिपूरक के स्तर पर हैं; कुछ अनाहत के स्तर पर हैं और कुछ विशुद्धि के स्तर पर हैं।

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