Tuesday, April 21, 2015

प्रश्न है कि क्या शिव लिंग विहीन हैं

प्रश्न है कि क्या शिव लिंग विहीन हैं ?
उनका लिंग ऋषियों के श्राप के कारण कट कर धरती पर गिरा! यह शिव पुराण में लिखा है और फिर पृथ्वी पर चारों पर आग लग गई, अंत में ऋषियों की प्रार्थना पर माता पार्वती ने इस लिंग को अपनी योनि में धारण कर लिया, तब से इस योनि में समावेशित लिंग पर हिन्दू जल चढ़ाते हैं, अर्चना करते हैं लेकिन प्रश्न के अनुसार क्या शिव का लिंग दुबारा उनके शरीर से जुड़ा? कहीं इसका उल्लेख नहीं है!
और लिंग विहीन व्यक्ति को क्या कहते हैं? मुझे यह लिखने की आवश्यकता नहीं!
उत्तरखंड के जागेश्वर धाम में लिंग कट कर गिरा था, यह इस स्थान की ऐतिहासिकता है तो लिंग जुड़ने का कौन सा स्थान है और क्या किसी पुराण में इसका उल्लेख है?
यदि किसी को जानकारी है तो बताएं?
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अस्तु , अब मुहतोड़ जवाब सुनिए -
१- क्या शिव लिंग विहीन हैं ?
उत्तर => आपके इस बालप्रश्न से ही स्पष्ट है कि आपको "शिव " की कोई जानकारी नहीं कि शिव कहा किसे जाता है ?? क्या किसी शरीरधारी प्राणी को या फिर किसी अप्राकृतिक तत्व को !!! कभी गुरुग्रंथ साहिब के अलावा अपने मूल सनातन धर्म के शास्त्रों का मुख दर्शन भी किया होता तो ये समस्या ना होती |
आपके प्रश्न से स्पष्ट है कि आपको इतना भी नही मालूम कि सनातन धर्म में वर्णित "शिव" किसी सरदार अजमेर सिंह जी की तरह हाड-मांस का भौतिक शरीर नहीं है , जिस पर कि भौतिक शरीर के धर्म जैसे जुड़ जाना , कट जाना अथवा कट कर जुड़ना , ना जुड़ना जैसे गुण-दोष उसमे प्रसक्त होवें |
इसीलिये महाभारत में कहा गया है -
अचिन्त्याः खलु ये भावाः न तांस्तर्केण योजयेत् |
प्रकृतेस्तु परेतत्वमचिन्त्य इत्यभिधीयते ||
इसलिये प्राकृतिक वस्तु में ही प्रकृति के नियमों का आग्रह किया जा सकता है , अप्राकृतिक में नहीं | वैसे भी दार्शनिक दरिद्रता के चलते त्रिगुणातीत विशुद्ध सत्त्व देह को समझना आपके वश की बात नहीं , ये तो हो गयी पहली बात |
दूसरी बात यह है कि - शिव का जो शरीर शास्त्रों में वर्णित है अथवा चित्रों में दर्शाया जाता है , वह किस चीज का बना है ? यह भी समझना आवश्यक है -
गोस्वामी तुलसीदास जी ने बड़े ही सरल शब्दों में भगवान के शरीर का रहस्य स्पष्ट किया है -
चिदानंदमय देह तुम्हारी | विगत विकार जानि अधिकारी ||
अर्थात् भगवान का शरीर चिदानंदमय है और समस्त विकारों से परे है , इसे अधिकारी व्यक्ति ही समझ सकते हैं |
श्री ब्रह्मसंहिता कहती है -
अंगानि यस्य सकलेंद्रियवृत्तिमन्ति ० अर्थात् भगवान के चिन्मय शरीर की प्रत्येक इन्द्रिय, स्वयं में पूर्ण , समान गुण धर्म युक्त एवं चिन्मय है, इसलिए चिन्मयत्वात् उनकी इन्द्रियाँ नित्य हैं |
एक नित्य, अचल वस्तु पर यह युक्तता अथवा विहीनता के प्रश्न खड़े करना ही आपका बौद्धिक स्तर दर्शाता है |
भगवान शिव स्वयं में नित्य पूर्ण हैं, ऐसा स्वयं उसी शास्त्र ने माना है , जिस कथांश से आप यह बालप्रश्न तैयार करके लाये हो |
तत्वतः भगवान सजातीय , विजातीय और स्वगत - इन तीन प्रकार के भेदों से सर्वथा रहित होते हैं | इसलिए तत्वतः उनके शरीर के किसी भी एक अंग का दुसरे अंग से कोई भेद नहीं होता |
जैसे लौकिक उदाहरण से समझाने का प्रयास करो- जैसे अग्नि शिखा से बनने वाली अग्निमय आकृति का अपने में कोई भेद नहीं होता अथवा यदि आप बर्फ का पुतला बनाओ तो उस बर्फ के पुतले की आँख और बर्फ के पुतले का लिंग दोनों ही बर्फ है , ऐसे ही भगवान शिव पूर्णतः चिन्मय ही चिन्मय हैं, उनके शरीर में कहीं कोई भेद नहीं |
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२- उनका लिंग ऋषियों के श्राप के कारण कट कर धरती पर गिरा! यह शिव पुराण में लिखा है और फिर पृथ्वी पर चारों पर आग लग गई, अंत में ऋषियों की प्रार्थना पर माता पार्वती ने इस लिंग को अपनी योनि में धारण कर लिया, तब से इस योनि में समावेशित लिंग पर हिन्दू जल चढ़ाते हैं, अर्चना करते हैं लेकिन प्रश्न के अनुसार क्या शिव का लिंग दुबारा उनके शरीर से जुड़ा? कहीं इसका उल्लेख नहीं है!
उत्तर=> जैसा की स्पष्ट है ये शिवपुराण की दारुवन से सम्बद्ध कथा है, इसी शिव पुराण की विद्येश्वर संहिता में में शिव का वर्णन करते हुए कहा गया है - शिव के दो रूप है - सकल और निष्कल |
"ब्रह्मभाव" निष्कल रूप है तथा "महेश्वरभाव " सकल रूप |
आपने चन्द्रमा देखा होगा | यदि द्वितीया आदि तिथियों को चन्द्रमा के एक ओर का भाग ना दिखाई दे तो क्या चन्द्रमा क्या अपने उस भाग से हीन हो जाता है ??????? शिवलिंग का कटना कथन का भी यही तात्पर्य है |
शिव (सकल + निष्कल ) के सकल भाव का लोक में प्रादुर्भूत हो जाना ही शिव लिंग कटना कहने का तात्पर्य है | हमने अभी ऊपर बतलाया है कि अप्राकृतिक लिंग स्वयं में पूर्ण तथा चिन्मय तत्व है ,इसलिए उसकी तुलना चर्म इन्द्रियों से करके उन चर्म इन्द्रियों के गुण- दोषों को शिव लिंग में आक्षेपित नहीं किया जा सकता |
इसलिए जब शिव का सकल भाव (महेश्वर भाव ) ज्योतिर्मय लिंग के रूप में धरती पर गिरा (अवतरित हुआ ) तो पृथ्वी पर चारों तरफ आग लग गयी | इसका रहस्य यह है कि शिव के सकल (कलाओं से युक्त ) लिंग स्वरूप से उनकी अष्ट मूर्तियों में परिगणित अग्नि मूर्ति का प्रादुर्भाव होने लगा | (एक अवतार से दूसरा अवतार ) यह अग्नि संहारिका प्रलयाग्नि है , जो जगत का संहार करती है | इस अग्नि की द्वारा संसार के प्राणियों का मंगल हो , इसके लिए पार्वती ने लिंग को अपनी योनि में धारण कर लिया, यहाँ योनि का मतलब किसी भौतिक स्त्री की योनि नहीं अपितु मद्ब्रह्म ही यहाँ योनि है (मम योनिर्महद्ब्रह्म ० - गीता ) क्योंकि ८ प्रकार की अपरा शक्ति जिसे गीता में भगवान ने भी (भूमिरापोनलोवायुः ० )- गीता में ) वर्णित किया है , वही यहाँ पर पार्वती कही गयी है |
जैसा कि शास्त्र वचन भी है-
माया तु प्रकृतिं विद्धि मायिनं तु महेश्वरम् |
इस कथा के तात्पर्य का स्पष्ट उदाहरण ये धरती है , जो अपने गर्भ में अग्नि को समाये है | समस्त प्राणियों की कारणभूत चैतान्यात्मिका जीवनी शक्ति प्रकृति में ही समाहित है , यही शिवलिंग धारण का रहस्य है |
हम शिव लिंग पर जल चढाते हैं इसका एक मतलब होता है = धरतीमाता जिसने समस्त संसार के जीवन के कारण भूत अग्नि को अपने गर्भ में धारण कर रखा है , उस पर जल वर्षा की भावना अभिव्यक्त करना | ताकि सारी सृष्टि में पञ्च महाभूतों के प्राकृतिक संतुलन के साथ में उनकी प्राणियों के कल्याण के लिए अभिवृद्धि होती रहे | दुग्धादि पंचामृत का तात्पर्य है धरती पर गोवंश का उत्कर्ष रहे , मधु , शर्करादि का भी धन -धान्यादि बहुत उत्कृष्ट भाव सान्निहित है |
आप पूछते हैं कि //क्या शिव का लिंग दुबारा उनके शरीर से जुड़ा? // हम आपसे पूछते हैं अलग ही कब हुआ था जो जुड़ने की जरूरत पड़ जाए ? ये तो सृष्टि के कल्याण के लिए लीलामात्र भगवान ने दर्शाई थी | एक नित्य तत्व से वही नित्य तत्व केवल लीला में ही अलग हो सकता है , वास्तविकता में नहीं | जैसे दिए से दुसरे दिए में अग्नि जलाओ तो क्या दिए की आग समाप्त हो जाती है ?? ऐसे ही अचिन्त्य चिन्मय तत्व भगवान शिव हैं जिनसे अग्नि से अग्नि की भांति संसार के कल्याण के लिए ज्योतिर्मय लिंग का प्रादुर्भाव हुआ है | अग्नि की भांति अपने से पृथक होकर भी वे हमेशा स्वयं में पूर्ण हैं | इसीलिये लिंग के जुड़ने की कथा की भी आवश्यकता नहीं पडी |
ॐ शर्वाय क्षितिमूर्तये नमः ।
ॐ भवाय जलमूर्तये नमः ।
ॐ रुद्राय अग्निमूर्तये नमः ।
ॐ उग्राय वायुमूर्तये नमः ।
ॐ भीमाय आकाशमूर्तये नमः ।
ॐ पशुपतये यजमानमूर्तये नमः ।
ॐ महादेवाय सोममूर्तये नमः ।
ॐ ईशानाय सूर्यमूर्तये नमः ।
जब सिख गुरु गोविन्द सिंह जी ने शिवजी की स्तुति किया ----
ਦੇਹ ਸਿਵਾ ਬਰੁ ਮੋਹਿ ਇਹੈ ਸੁਭ ਕਰਮਨ ਤੇ ਕਬਹੂੰ ਨ ਟਰੋਂ ॥
ਨ ਡਰੋਂ ਅਰਿ ਸੋ ਜਬ ਜਾਇ ਲਰੋਂ ਨਿਸਚੈ ਕਰਿ ਅਪੁਨੀ ਜੀਤ ਕਰੋਂ ॥
ਅਰੁ ਸਿਖ ਹੋਂ ਆਪਨੇ ਹੀ ਮਨ ਕੌ ਇਹ ਲਾਲਚ ਹਉ ਗੁਨ ਤਉ ਉਚਰੋਂ ॥
ਜਬ ਆਵ ਕੀ ਅਉਧ ਨਿਦਾਨ ਬਨੈ ਅਤਿ ਹੀ ਰਨ ਮੈ ਤਬ ਜੂਝ ਮਰੋਂ ॥੨੩੧॥
Deh siva bar mohe eh-hey subh karman te kabhu na taro. Na daro arr seo jab jaye laro nischey kar apni jeet karo.
Arr Sikh ho apne he mann ko, eh laalach hou gun tau ucharo. Jab aav ki audh nidan bane att he rann me tabh joojh maro.
देह शिवा बर मोहे ईहे,
शुभ कर्मन ते कभुं न टरूं न डरौं अरि सौं जब जाय लड़ौं,
निश्चय कर अपनी जीत करौं,
अरु सिख हों आपने ही मन कौ इह लालच हउ गुन तउ उचरों,
जब आव की अउध निदान बनै अति ही रन मै तब जूझ मरों ॥२३१॥
- दशम ग्रन्थ
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भगवान शिव का विष्णु के मोहिनी रूप को देकहकर वीर्यपात हो गया था जिस वीर्य को फिर कान के द्वारा देवी के गर्भ में डाला गया ,>>>>>>>>>>>>>>>
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प्रथम तो शिव का वीर्यपात होना कोई हेय बात नहीं क्योंकि लोककल्याण की भावना के कारण वीर्यपात होना बहुत उत्तम बात है | जानबूझकर मोहित होने की लीला करते हुए वीर्यपात करने वाले शिव की इस लीला के पीछे उनका लोक के लिए एक महान सन्देश छिपा है | जो हम अभी बताएँगे | इससे पहले वीर्यपात शब्द पर एक उदाहरण देकर आपको वीर्यपात का मर्म समझाते हैं -
आपके मान्य जितने भी गुरु हुए हैं सब वीर्यपात के कारण ही पैदा हुए हैं और आज उसी वीर्यपात की कृपा है कि आप लोगों के पूज्य होकर आप लोगों को धन्य कर रहे हैं |
केवल स्वयं ही पैदा नहीं हुए अपितु स्वयं भी वीर्यपात किये हैं |
................किसी वीर्यपात से बहुत महान संतान का जन्म हो तो वो वीर्यपात बहुत उत्तम धर्म है |
इस रहस्य को गीता के धर्मोsविरुद्धो भूतेषु कामोsस्मि भरतर्षभ ० के माध्यम से समझाया गया है | अस्तु
अब आगे देखिये -
भगवान के मोहिनी अवतार के सम्मुख भगवान शिव के द्वारा वीर्यपात की भूमिका में जिन शिव का वर्णन हुआ है वे तमोगुण के नियंता गुणावतार शिव की भूमिका है ना कि गुणातीत निष्कल परब्रह्म | इस प्रकार शिवतत्व का भूमिका भेद से लीलाभेद वर्णित हुआ है | उनकी माया शक्ति इतनी प्रबल है कि ब्रह्मा , शिव जैसे उच्च कोटि के देवगण भी माया के प्रभाव से नहीं बच सकते | इसलिए प्रलयंकारी शक्तियों का भी भरोसा छोड़कर प्रपन्न भाव से परमात्मा (विष्णु ) की शरण ग्रहण करनी चाहिए , ये इस कथा का सार है | इसी सन्देश को संसार के हरिभक्ति विमुख प्राणियों को देने के लिए भगवान ने वीर्यपात लीला की है | ख़ास कर उन लोगों को जो शिवादि देवताओं से अपने ऐहिक और पारलौकिक भोगों की कामना याचना करते हैं | यदि गुणावतार शिव का वीर्यपात ना होता तो भगवान् की अनिर्वचनीय माया शक्ति के प्रभाव पर प्रश्न चिन्ह लगते , और भगवान का यह गीता सन्देश रेखांकित होता -
दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया |
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते || like emoticon
अब आगे देखिये .....
शास्त्र में शिव को सच्चिदानन्दरूपाय कहा गया है | भगवान शिव कोई मनुष्य तो हैं नहीं कि उनका वीर्य प्राणियों की भांति अन्न का विकार हो !!! चिदानंद से निर्मित शरीर का वीर्य चिदानंद ही होगा , यानी ज्ञानमय भगवान का शरीर है , इसलिए अगर ज्ञान तत्व को किसी लौकिक गर्भ में मूर्तरूप प्रदान करना हो तो कान के मार्ग से उस अचिन्त्य ज्ञानमय तत्व को प्रतिष्ठापित करना कोई दोष नही | पर आपको ये रहस्य मालूम नहीं हैं ., इसलिए आपको सनातन धर्म में दोषों का दिग्भ्रम हुआ है like emoticon
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एक अन्य प्रसंग में पार्वती जी को स्नान करते हुए देखने के लिए शिव जी इतने आतुर थे की उन्होंने किसी बालक का सर काट दिया फिर उसको जीवित करने के लिए किसी निर्दोष हाथी का सर काट लिया >>>>>>>>>>>>>>>
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>>>> क्या आप जानते हैं कि शिव -पार्वती के विवाह में भी गणेश पूजा हुई थी ???? आपको ये रहस्य समझ नहीं आयेगा क्योंकि आपने कभी अधिकारियों से श्रवण नहीं किया अपितु आर्य समाजियों टाइप दिग्भ्रान्तों की चार पुस्तकों से ही सनातन धर्म समझाने का प्रयास किया |
शिव , गणेश , सूर्य , दुर्गा और विष्णु ये पाँचों रूप परब्रह्म परमात्मा के नित्य और शाश्वत स्वीकृत हैं इसलिए एक से दूसरे का जन्म एक अग्नि से दूसरी अग्नि प्रज्ज्वलित किये जाने की भाँती सदैव पारमार्थिक पृथक्करण से रहित है |
शिव का पार्वती के लिए आतुर होकर द्वारस्थ बालक का शीश काटना वस्तुतः बालक (भगवान गणेश ) के शाश्वत रूप के आविर्भाव को संपन्न कराने के लिए की गयी लीलामात्र है |
जिसके एक -एक चरण में तमाम लोक कल्याणकारी शिक्षाएं भरी हैं , उनकी व्याख्याएं करेंगे तो यहाँ कमेन्ट बॉक्स छोटे पड़ेंगे |
जिस परमात्मा का स्वरूप सच्चिदानंद है उसका सिर (गजमुख ) भी शाश्वत सच्चिदानंद ही है |
एतावता जिस गज का शिरश्छेदन किया गया वह भी , उस गज पर भगवान का अनुग्रह है | भगवान द्वारा दो प्रकार का अनुग्रह होता -
तिरोभावादि पञ्च कृत्य और दूसरा जीवों को उनके कार्य -कारण रूप अविद्यात्मक बंधनों से मुक्ति प्रदान करना |
तिरोभावादि पञ्च कृत्य का मतलब है ,भगवान के पांच कृत्य होते हैं -
सृष्टि , स्थिति , संहार , तिरोभाव और अनुग्रह |
(ये सब आपको शिव पुराण कैलाश संहिता के प्रणवार्थ विवेचन में स्पष्ट प्राप्त हो जाएगा | )
इसमें से गज का शिरश्छेदन उनके द्वारा संपादित अनुग्रह लीला के ही अंतर्गत स्वीकृत होने से इस लीला से गजोद्धार ही सिद्ध हुआ |
न वा एतन्म्रियसे न रिष्यसि देवा ० (यजु० २३/१६, २५/४४ ) इत्यादि वेद मन्त्र भी इसी रहस्यात्मक भगवल्लीला को संकेतित करते हैं |
इसलिए अभी आपको बहुत अध्ययन की आवश्यकता है | like emoticon
परमात्मा के अनेक नाम है उनके गुण ,कर्म ,स्वाभाव के कारण . परमात्मा का एक नाम शिव भी है. शिव का अर्थ है कल्याण करना. इसलिए परमात्मा एक ही है. उसे अनेक नामों से पुकारा जाता है . अज्ञानी लोग परमात्मा की मुर्तिया बना कर पूजते है. ज्ञानी लोग उसे अपने अंदर किर्ययोग्यग की साधना से उपासना करते है.
अज्ञानी लोग भगवान के चिन्मय शरीर में अवयव -अवयवी का भेद समझने की भूल करते हैं | जबकि लौकिक पुरुषों की भांति त्रिविध भेदों (सजातीय , विजातीय , स्वगत ) से युक्त न होकर इन भेदों से शून्य भगवान का अचिन्त्य अलौकिक विग्रह केवल भक्ति से जाना जा सकता है |
हर हर महादेव !!

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