Sunday, April 12, 2015

नमः शिवाय " { १ }




 नमः शिवाय " { १ } :
जीवन का मूल उद्देश्य है -शिवत्व की प्राप्ति । उपनिषद् का आदेश है – “ शिवो भूत्वा शिवं यजेत् “ शिवबनकर शिव की आराधना करो। प्रश्न उठता है - हम शिव कैसे बनेंएवं अपने में शिवत्व का कैसे जागरण करें ? इसकाउत्तर देते हुए हमारे महामानव ऋषि उद्घोषणा करते है - “ नमः शिवाय ’ । “नमः शिवाय “ यह एक मंत्र ही नहीं महामंत्र है । इस “ नमः शिवाय “ को महामंत्र हमारे मनीषि ऋषियों ने इसलिएकहा है कि यह आत्मा का जागरण करता है । हमारी आध्यात्मिक यात्रा इससे सम्पन्न होती है। यह किसी कामना पूर्ति का मन्त्र नहींहै। यह मंत्र है जो हमारी समस्त कामनाओंको समाप्त कर देता है , समस्त इच्छाओं को मिटा देता है । एक मंत्र होता वह है जो कामना कीपूर्ति करता है और एक मंत्र वह होता है जोसमस्त कामनाओं को समाप्त करने वाला होताहै। दोनों में बहुत बड़ा अन्तर होता है । कामनापूर्ति और इच्छा पूर्ति का स्तर बहुत नीचे कास्तर होता है ! ऐसा हमारे आचार्यचरणों ने कहा है । मनुष्य की जब ऊर्ध्व चेतना जागृत हो जाती है तब उसे स्पष्ट ज्ञान हो जाता है कि संसार की सबसे बड़ी उपलब्धिवही है , जिससे कामना और इच्छा का अभाव हो सके।
एक बड़ा ही सुन्दर आख्यान है –
एक अत्यन्त गरीब के पास एक महात्मन्आये । वह व्यक्ति गरीब तो था पर था बड़ा संतोषी एवं भगवान में अटूट श्रद्धा और विश्वास रखने वाला। उसकी गरीबी पर तरश खाकर महात्मन का ह्रदयपिघल गया ! और उन महात्मन ने उस श्रधावान गरीब भगवान के भक्त से कुछ भी मांगनेके लिए अनुग्रह करदिया ! लेकिनगरीब व्यक्ति ने कुछ भी नहीं मांगा। तो साधु बोला कि मैं किसी को देने की सोच लेता हूँ तो उसे पूरा करना मैं अपना कर्तव्य समझता हूँ । अतः मैं तुझे पारस दे देता हूं जिससे तुम अपनीगरीबी को दूर कर सकोगे।तब उस गरीब व्यक्ति ने निवेदनकिया, ‘ हे महात्मन् । मुझे इन सांसारिक सुखों की चाह नहीं है। मुझे तो वह चाहिए जिसे पाकर आपने पारसको ठुकराया है जो पारस से भी ज्यादा कीमती है वहमुझे दे दें । ’
जब व्यक्ति के अन्तस की चेतना जागृत हो जाती है तब वह कामना पूर्ति के पीछे भागता – दौड़ता नहीं । वह उसके पीछे दौड़ता है तथा उस मंत्र की खोज करता है जो कामना को नष्ट कर दे । काट दे । “ नमः शिवाय “ इसीलिए महामंत्र है कि इससे इच्छा की पूर्ति नहीं होती अपितु इच्छा के स्रोत ही सूख जाते है। जहां सारी इच्छाएं समाप्त , सारी कामनाएं समाप्त , वहांव्यक्ति पूर्ण निष्काम हो जाता है। पूर्ण निष्काम भाव ही मनुष्य का निजस्वरुप है परमशिव का स्वरूप है।
इस “ नमः शिवाय “ महामन्त्र से ऐहिक कामनाएं भी पूर्ण होती हैं किन्तु यह इसका मूल उद्देश्यनहीं है । इसकी संरचना अध्यात्म जागरण के लिए ही हुई है , कामनाओं की समाप्ति केलिए हुई है । यह एक तथ्य है कि जहां बड़ी उपलिब्ध होती है , वहां आनुषंगिकरूप में अनेक छोटी उपलब्धियां भी अपने आप हो जाती है। छोटी उपलब्धि में बड़ी उपलब्धि नहीं होती किन्तु बड़ी उपलब्धिमें छोटी उपलब्धिसहज हो जाती हैं । कोई व्यक्तिलक्ष्मी के मंत्र की आराधना करता है तो उससे धन बढ़ेगा। सरस्वती के मंत्र की आराधना से ज्ञान बढ़ेगाकिन्तु अध्यात्म काजागरण या आत्मा का उन्नयन नहींहोगा क्योंकि छोटी उपलब्धि के साथ बड़ी उपलब्धिनहीं मिलती । जो व्यक्ति बड़ी उपलब्धि के लिए चलता है, रास्ते में उसेछोटी-छोटी अनेक उपलब्धियां प्राप्त हो जाती हे। यह मंत्र महामंत्र इसलिएहै कि इसके साथ कोई मांग जुड़ी हुई नहीं है। इसके साथ केवल जुड़ा है - आत्मा का जागरण , चैतन्य काजागरण , आत्मा के स्वरूप का उद्घाटन और आत्मा के आवरणों का विलय। जिस व्यक्ति को परमात्मा उपलब्ध होगया, जिस व्यक्ति को आत्म जागरण उपलब्ध हो गया, उसे सब कुछ उपलब्ध हो गया , कुछ भी शेष नहीं रहा। इस महामंत्र के साथ जुड़ा हुआ है - केवल चैतन्य काजागरण। सोया हुआ चैतन्यजाग जाए। सोया हुआ प्रभु, जो अपने भीतर है वह जाग जाए, अपना परमात्मा जाग जाए। जहां इतनी बड़ी स्थिति होती है वहां सचमुच यहमंत्र महामंत्र बन जाताहै ।
मंत्र क्या है ?मंत्र शब्दात्मक होते है । उसमेंअचित्य शक्ति होतीहै। हमारा सारा जगत् शब्दमय है ।शब्द को ब्रह्म माना गया है । “शब्दं ब्रह्मेति “ मन के तीन कार्य हैं –
“ स्मृति , कल्पना एवं चिन्तन । “
मन प्रतीत की स्मृति करता है , भविष्य की कल्पना करता है और वर्तमान का चिन्तन करता है ।किन्तु शब्द के बिना नस्मृति होती हैं , न कल्पना होती है और न चिन्तन होता है ।
सारी स्मृतियां ,सारी कल्पनाएं और सारे चिन्तनशब्द के माध्यम से चलते हैं । हम किसी की स्मृति करतेहैं तब तत्काल शब्द की एक आकृति बन जाती है। उस आकृति के आधार पर हम स्मृत वस्तु को जान लेते हैं । इसी तरह कल्पनाएवं चिन्तन में भी शब्दका बिम्ब ही सहायक होता है। यदिमन को शब्द का सहारा न मिले,यदि मन को शब्द की वैशाखी न मिले तो मन चंचल हो नहीं सकता। मनलंगड़ा है , पंगु है ।
मन की चंचलतावास्तव में ध्वनि की , शब्द की या भाषा की चंचलता है ।
मन को निर्विकल्पबनाने के लिए शब्द की साधना बहुतजरूरी है।
स्थूल रूप से शब्द दो प्रकार का होता है -
{ १ } : जल्प ( २ ) : अन्तर्जल्प ।
हम बोलते हैं ,यह है जल्प। जल्प का अर्थ है - स्पष्टवचन , व्यक्त वचन । हम बोलते नहीं किन्तु मन में सोचते हैं , मन में विकल्प करते हैं , यह है अन्तर्जल्प।मुंह बंद है, ओठ स्थिर है , न कोई सुन रहा है फिर भी मन में हम बोलते चला जा रहे हैं ,यह है अन्तर्जल्प। सोचने का अर्थहै - भीतर बोलना ।सोचना और बोलना दो नहीं है – नारायण । सोचने के समय में भी हम बोलते हैंऔर बोलने केसमय में भी हम सोचते हैं। यदि हमसाधना के द्वारा निर्विकल्प या निर्विचार अवस्था कोप्राप्त करना चाहते हैं ,तो हमें शब्द को समझकर उसकेचक्रव्यूह कोतोड़ना होगा। शब्द उत्पत्तिकाल में सूक्ष्म होता है और बाहर आते -आते स्थूल बन जाता है । जो सूक्ष्म है वह हमें सुनाई नहीं देता , जो स्थूल है वही हमेंसुनाई देता है। ध्वनि विज्ञान के अनुसार दो प्रकार की ध्वनियां होती है – “ श्रव्य ध्वनि “ और “ अश्रव्य ध्वनि “।अश्रव्य ध्वनि जिसे आंग्लभाषा में Ultra Sound Super Sonic कहते हैं ! यह सुनाई नहीं देती। हम अपने कर्णपुटों के द्वारा केवल ३२४७० { बत्तीस हजार , चार सौ , सत्तर } कंपनोंको ही पकड़ सकते है । कम्पन तो अरबों होते हैं किन्तु हमारेश्रोत्रेन्द्रिय ३ २ ४ ७ ० आवृत्ति के कम्पनों को ही पकड़ सकता है । यदि हमारे कान सूक्ष्म तरंगों को पकड़ने लग जाए तो हम जी ही नहीं सकते । यह समूचा आकाश ध्वनि तरंगों सेप्रकम्पित है । अनन्तकाल से इस आकाश में भाषा - वर्गणा के पुदगलबिखरे पड़े हैं। बोलते समयभाषा वर्गणा के पुदगल निकलते हैंऔर आकाश में जाकर स्थिर हो जाते हैं । हजारों लाखों वर्षों तक वे उसी रूप में रह जाते हैं।मनुष्य जो सोचता है ,उसके मनोवर्गणा के पुद्गल करोड़ोंवर्षों तक आकाश में अपनी आकृतियां बनाए रखता हैं। यह सारा जगत तरंगों से आन्दोलित हैं।विचारों की तरंगे , कर्म की तरंगे ,भाषा और शब्द की तरंगे पूरे आकाशमें व्याप्त है। मंत्र एकप्रतिरोधात्मक शक्ति है , मंत्र एक कवच है और मंत्र एक महाशक्ति है। शक्तिशाली शब्दों का समुच्चय ही मंत्र है। शब्द मेंअसीम शक्ति होती है।
‘ नमः शिवाय ’ महामंत्रमें तीन शब्द है। “ नमः शिवाय “ । इसमें पांच अक्षर है।इसे पंचाक्षरी महामंत्र भी कहते हैं। पंचाक्षरी इसलिए कि यह अक्षरातीतहै । ‘नमः शिवाय ’ में पांचअक्षर है। ब्रह्म, को प्रणव आदि नामों से पुकारा जाता है । उपनिषदों में कहा गया है - ‘ ओम् इति ब्रह्म ’ ओम् ब्रह्म है। अक्षरका अर्थ जिसका कभी क्षरण न हो । ऐसे तीन अक्षरोँ - अ उ और म से मिलकर बना है ऊँ । माना जाता है कि सम्पूर्ण ब्रह्माण्डसे सदा ऊँ की ध्वनी निसृत होती रहती है । नारायण । हमारी और आपके हर श्वास ऊँ की ही ध्वनि ही निकलती है । यही हमारे - आपके श्वासकी गतिको नियंत्रित करता है । माना गया है कि अत्यन्त पवित्र और शक्तिशाली है ऊँ । किसी भी मंत्रसे पहले यदि ऊँ जोड़ दिया जाए तो वह पूर्णतया शुद्ध और शक्ति - समपन्न हो जाता है । किसी देवी - देवता , ग्रह या ईश्वरके मंत्रोँ के पहले ऊँ लगाना आवश्यक होता है , जैसे - श्रीराम का मंत्र - ऊँ रामाय नमः । विष्णु का मंत्र - ऊँ विष्णवे नमः । शिवका मंत्र ऊँ नमः शिवाय प्रसिद्ध है । नारायण , कहा जाता है कि ऊँ से रहित कोई मंत्र फलदायी नही होता , चाहे उसका कितना भी जाप हो । मंत्रके रूपमेँ मात्र ऊँ भी पर्याप्त है । माना जाता है कि एक बार ऊँ का हजार बार किसी मंत्रके जाप से महत्वपूर्ण है । ऊँ का दूसरा नाम " प्रणव " ( परमेश्वर ) है । " तस्य वाचकः प्रणवः " अर्थात् उस परमेश्वरका वाचक प्रणव है । इस तरह प्रणव अथवा ऊँ एवं ब्रह्ममेँ कोई भेद नही है । ऊँ अक्षर है इसका क्षरण अथवा विनाश नहीँ होता ।
पातंजल योगसूत्र में कहा गया है- ‘तस्य वाचकप्रणवः’ प्रणव ईश्वर कावाचक है। ब्रह्म एक अखण्ड अद्वैत होने पर भी परब्रह्म और शब्द ब्रह्म इन दो विभागों में कल्पित किया गया है। शब्दब्रह्म को भली भांतिजान लेने पर परब्रह्म कीप्राप्ति होती है।
‘शब्दब्रह्मणि निष्णातः परं ब्रह्माधिगच्छति ’
शब्द ब्रह्म को जानना और उसे जानकर उसका अतिक्रमण करना यही मुमुक्षु का एकमात्र लक्ष्य है। जिसे औंकार कहते हैंयही शब्द ब्रह्म है।इस चराचर विश्व के जो वास्तविकआधार हैं, जो अनादि, अनन्त औरअद्वितीय हैंतथा जो सच्चिदानंद स्वरूप है उसनिर्गुण निराकार सत्ता को हमारे शास्त्रों ने ब्रह्मकी संज्ञा दी है। इसी ब्रह्म का वाचक शब्द ॐ है।
ब्रह्म इस सृष्टि में निमित्त कारण (Efficient Cause) ही नहींअपितु उपादान कारण (Material Cause) भी है। प्रारम्भ में एकमात्र ब्रह्म ही थे। उनकी इच्छा हुई ‘एकोऽहमबहुस्याम’ और उन्होंने ही अपने आपको इस जीव जगत के रूप में प्रकट किया। जैसे मकड़ी अपने अन्दर केही तन्तुओं से जालाबुनती है। अतः यहविश्व-ब्रह्माण्ड ब्रह्म से भिन्न नहीं है। ब्रह्म ही विभिन्नरूपों मे प्रतिभासित हो रहे हैं। अतएव ब्रह्म का वाचक होने के कारण ‘ओम’ईश्वर अवतार तथा जीव जगत सभी कावाचक हुआ। इस प्रकार यह शब्द निर्गुण-निराकारब्रह्म का बोध कराता है तो सगुण-साकार ईश्वर का भी बोध कराता है। स्थूल, सूक्ष्म, कारण तथा महाकारण, जिस रूपमें भी ब्रह्म अपनेआपको प्रकाशित कर रहा है, ओम उन सब का बोध कराता है।
इसकी महिमा में वेदान्त नेति-नेति कहकर मौन हो जाता है।
यह शब्द ‘ओम्’ है। विश्वके सभी धर्मों में इस शब्द की महिमा गाई गई है।बाइबिल में लिखा है - On the beginning was the work and the word with god and the word was god. यह 'Word' ओम हीहै। मुस्लिम धर्म में इसशब्द को ‘कलमा’‘बांग’, ‘आवाजे खुदा’ आदि नामोंसे पुकारा गया है।
यह मंत्र सिद्ध है। संसार जीवों के कल्याण के लिए सभी को ठुकराता ही रहता है और फिर भी जीव का कर्म उन्हें संसार से बांधे रखता है। यही बंधन या पाश ही पशु का भाव है। पशु पति जो भगवन शिव हैं वे जीवों के संकल्प, उनके कर्म और सम्बन्धों को निष्काम बना देते हैं। किसी भी काम को निष्काम भाव से करना तभी संभव है जब परम आत्मा का स्मरण बना रहे। कई बार मैं संसार से ठुकराया गया हूँ, और अब उससे भय लगता है, संसार से यह भय ही मेरी पूंजी है । जिससे कर्म बंधन समाप्त हो रहा है किन्तु अभी हुआ नहीं। कुछ संकल्प शुभ हैं किन्तु वे पूरे नहीं हो रहे हैं। ॐ नमः शिवाय ... मंत्र का जाप और श्रद्धा से ही मुझे सदैव मार्ग मिलता है और मेरी थोड़ी बहुत इज्जत है और काम है वह इस संसार में बची हुयी है, और उतने से ही मैं बहुत संतुष्ट हूँ। भगवन माँ की तरह दयालु हैं और वे मनोकामना की पूर्ति इतनी स्पष्टता से करते हैं कि उसकी भूख ही नहीं रहती। _||_
नारायण । छान्दोग्योपनिषदमेँ ऋषियोँ ने गाया है - " ऊँ इत्येतत् अक्षरः " , अर्थात " ऊँ अविनाशी , अव्यय एवं क्षरण रहित है ।
ऊँ धर्म . अर्थ . काम . मोक्ष इन चारोँ पुरुषार्थोँका प्रदायक है । मात्र ऊँ का जप कर कई साधकोँने अपने उद्देश्यकी प्राप्ति कर ली । नारायण , कोशीतकी ऋषि निस्संतान थे , संतान प्राप्तिके लिए उन्होँने सूर्यका ध्यान कर ऊँका जाप किया , तो उन्हे पुत्र प्राप्ति हो गई । नारायण , " गोपथ ब्राह्मण " ग्रन्थ मेँ उल्लेख है कि जो " कुश " के आसनपर पूर्वकी ओर मुखकर एक हजार बार ऊँ रूपी मंत्रका जाप करता है , उसके सबकार्य सिद्ध हो जाते हैँ ।
" सिद्धयन्ति अस्य अर्थाः सर्वकर्माणि च "
श्रीमद्मागवतमेँ ऊँ के महत्वको कई बार रेखांकित किया गया है । श्रीगीता जी के आठवेँ अध्यायमेँ उल्लेख मिलता है कि जो ऊँ अक्षर रूप ब्रह्मका उच्चारण करता हुआ शरीर त्याग करता है , वह परम गति प्राप्ति करता है ।
ऊँ अर्थात् ओम तीन अक्षरोँ से बना है , जो सर्व विदित है । अ उ म् । " अ " का अर्थ है आर्विभाव या उत्पन्न होना , " उ " का तातपर्य है उठना , उड़ना अर्थात् विकास , " म " का मतलब है मौन हो जाना अर्थात् " ब्रह्मलीन " हो जाना । उँ सम्पूर्ण ब्रह्माण्डकी उत्पति और पूरी सृष्टिका द्योतक है । ऊँमेँ प्रयुक्त " अ " तो सृष्टिके जन्मकी ओर इंगित करता है , वहीँ " उ " उड़नेका अर्थ देता है , जिसका मतलब है " ऊर्जा " सम्पन्न होना । किसी ऊर्जावान मंदिर या तीर्थस्थल जाने पर वहाँकी अगाध ऊर्जा ग्रहण करने के बाद व्यक्ति स्वप्नमेँ स्वयंको आकाशमेँ उड़ता हुआ देखता है । मौनका महत्व ज्ञानियोँने बताया ही हैँ । अंग्रजीमेँ एक उक्ति है - " साइलेँस इज सिल्वर ऐँड एब्सल्यूट साइलेँस इज गोल्ड " । श्रीगीता जी मेँ परमेश्वर श्रीकृष्णने मौनके महत्वको प्रतिपादित करते हुए स्वयंको मौनका ही पर्याय बताया है - " मौन चैवास्मि गुह्यानां " ।
" ध्यान बिन्दुपनिषद् " के अनुसार ऊँ मन्त्रकी विवेषता यह है कि पवित्र या अपवित्र सभी स्थितियोँ मेँ जो इसका जप करता है , उसे लक्ष्यकी प्राप्ति अवश्य होती है । जिस तरह कमल - पत्रपर जल नही ठहरता है , ठीक उसी तरह जप - कर्तापर कोई कलुष नही लगता।
सनातन धर्म ही नहीँ , भारतके अन्य धर्म - दर्शनोँमेँ भी ऊँको महत्व प्राप्त है । बौद्धदर्शनमेँ " मणिपद्मेहुम " का प्रयोग जप एवं उपासना के लिए प्रचुरता से होता है । इस मंत्रके अनुसार ऊँको " मणिपुर " चक्रमेँ अवस्थित माना जाता है । यह चक्र दस दल वाले कमलके समान है । जैन दर्शनमेँ भी ऊँ के महत्वको दर्शाया गया है । महात्मा कबीर र्निगुण सन्त एवं कवि थे । उन्होँने भी ऊँ के महत्वको स्वीकारा और इस पर " साखियाँ " भी लिखीँ -
ओ ओँकार आदि मेँ जाना ।
लिखि औ मेँटे ताहि ना माना ।।
ओ ओँकार लिखे जो कोई ।
सोई लखि मेटणा न होई ।।
गुरुनानकने ऊँ के महत्वको प्रतिपादित करते हुए लिखा है -
" ओम सतनाम कर्ता पुरुष निभौँ निर्वेर अकालमूर्त "।
यानी ॐ सत्यनाम जपनेवाला पुरुष निर्भय , बैर - रहित एवं " अकाल - पुरुषके " सदृश हो जाता है ।
नारायण । " ॐ " ब्रह्माण्डका नाद है एवं मनुष्यके अन्तरमेँ स्थित ईश्वरका प्रतीक ।
शास्त्रों में वर्णित है कि ओंकार से ही इस विश्व की सृष्टि हुई है। ‘शब्द’ पद कावैदिक अर्थ है - सूक्ष्म भाव (SubtitleIdea) सूक्ष्म भाव स्थूल पदार्थ का सूक्ष्म रूप है। इन्हीं भावों काआश्रय लेकर सभी स्थूलपदार्थों की सृष्टि होती है।भाव-शब्द ही स्थूल रूपों का जन्मदाता है। मन में उठने वाला प्रत्येक भाव अथवा मुख से उच्चरित होनेवाला प्रत्येक शब्दविशेष - विशेष कंपन मात्र हैं।इन कम्पनों में खास-खास आकृति बनाने की क्षमता रहतीहै। वायस फिगर (VoiceFigure) पुस्तक की लेखिका मिसेजवाट्स हूग्स ने अपने Eidophone यंत्रद्वारा इसे प्रदर्शित कर दिया है। उच्चारण के साथ हीआकृति बन जाती है। अतः किसी भी स्थूल पदार्थ की सृष्टि होने से पूर्व उससे सम्बन्धित भाव विद्यमान रहता है और वही भावस्थूलाकार में परिणतहो जाता है। सारी सृष्टि के लिएयही नियम लागू होता है। विभिन्न प्रकार के भावों याशब्दों से ही इस विचित्र बहुरूपात्मक विश्व की सृष्टि हुई है। विश्व निर्माणकारी ये सभी भाव एक ही शब्द अथवा भाव सेनिःसृत हुए हैं और वहशब्द है ‘ओम’। ‘ओम्’ सभी भावों की समष्टि है।
अब प्रश्न उठता है कि इसका क्या प्रमाण है कि विश्व निर्माणकारी सभी भाव ‘ओम’ से ही निःसृत हुए हैं। इसका सबसे बड़ा प्रमाण है -ब्रह्मज्ञ पुरुषों की प्रत्यक्ष अनुभूति। ब्रह्मज्ञपुरुषों को समाधि की अवस्था में अनुभव होताहै कि जगत् शब्दमय है और फिर वह शब्द गंभीर ओंकार ध्वनि में लीन हो जाता है। विभिन्न स्थितियां इस प्रकार वर्णित करतेहैं योगी जना ‘घर्र-घर्र की आवाज, घंटा,वीणा की आवाज, सारेगम प द नी सा के स्वरों की आवाज,शंख ध्वनि’, इसके पश्चात् ¬ कार कीध्वनि, फिर उसके बाद कोई स्वर नहीं। शब्दातीत स्थिति को अनादि नाद कहकर पुकारते हैं।यहां जाकर मनप्रत्यक्ष ब्रह्म में लीन होजाता है। सब निर्वाक,स्थिर। समाधि से लौटते वक्त भी जब पहली अनुभूति होती है तो ओंकार शब्द हीसुनाई पड़ता है। यहअनुभूतिजन्य विवरण सभी ब्रह्मज्ञपुरुषों का एक सा ही है।
‘ओम्’ शब्द पूर्ण शब्द है। ओम् में अ, उ,म तीन अक्षर हैं। इन तीन ध्वनियों के मेल से ‘ओम’ बनता है। इसका प्रथम अक्षर ‘अ’सभी शब्दों का मूल है,चाहे शब्द किसी भी भाषा का हो। ‘अ’जिव्हा मूल अर्थात् कण्ठ सेउत्पन्न होता है। ‘म’ ओठों की अन्तिम ध्वनि है। ‘उ’कण्ठ से प्रारम्भ होकर मुंह भर में लुढ़कता हुआ ओठों में प्रकट होता है। इस प्रकार ओम्शब्द के द्वाराशब्दोच्चारण की सम्पूर्ण क्रियाप्रकट हो जाती है। अतः हम कह सकते हैं कि कण्ठ सेलेकर ओंठ तक जितनी भी प्रकार की ध्वनियां उत्पन्न हो सकती है, ओम में उन सभीध्वनियों का समावेश है। फिर इन्ही ध्वनियों के मेल से शब्द बनते हैं। अतः ओम् शब्दों की समष्टि है।
अब संक्षेप में ओंकार की रचना भी समझनी जरूरी है। ओंकार में अकार, उकार,मकार, बिन्दु,अर्द्ध चन्द्र, निरोधिका, नाद, नादान्त शक्ति, व्यापिनी, समना तथा उन्मना इतने अंश हैं। ओंकार के ये कुल 12 अंश हैं। ओंकार के दोस्वरूप हैं। अकार, उकार एवं मकार अशुद्ध विभाग हैं। स्थूल, सूक्ष्म तथा कारण इन तीन भूमिकाओं में इन तीन अवयवोंका कार्य होता है।जाग्रत, स्वप्न एवं सुषुप्ति ये तीन अवस्थाएं प्रणव की पहलीतीन मात्राओंमें विद्यमान है। तुरीय यातुरीयातीत अवस्था चतुर्थ अवयव से शुरू होती है। अकार,उकार एवं मकार तीन शक्तियों केप्रतीक हैं - उकार ब्रह्मा का प्रतीक है तथा मकारमहेश का प्रतीक है। प्रणव के चतुर्थ अवयव ‘बिन्दु’ से लेकर उन्मना तककुल 9 अंश प्रणव के शुद्ध विभाग हैं। बिन्दुअर्द्धमात्रा रूपीअवयव है। बिन्दु में एक मात्राका अर्द्धाशं है, अर्द्ध चन्द्र में बिन्दु का अर्द्धांश है तथा निरोधिका में अर्द्धचन्द्रअर्द्धांश है। इस प्रकार यह क्रमप्रतिपद में उसके पूर्ववर्ती मात्रा का अर्द्धांश बनता चला जाता है। यह क्रम समना तक चलता है। ये अंश या मात्राएं किसकीहैं ? ये वास्तव में मन की मात्राएं हैं। मन की गति सूक्ष्म से सूक्ष्मतर होतीचली जाती है।उन्मना अमात्र है, उसकी कोई मात्रा नहीं होती क्योंकि वहां मन की समाप्ति हो जाती है। मन की मात्रा होती है, विशुद्ध चैतन्य की मात्रा नहीं होती। योगी का परम उद्देश्य है कि वह स्थूल मात्रा से क्रमशःसूक्ष्ममात्रा मेंहोते हुए अमात्रक स्थिति मेंपहुंच जाए। उन्मना में न मन है,न मात्रा है, न काल है, न देश है, न देवताहै। वह शुद्ध चिदानन्द - भूमि है।
ओंकार की इन स्थितियों में एक विकास क्रम है। बिन्दु का अनुभव भ्रूमध्य के ऊर्ध्व में होता है। ब्रह्मरन्ध्र कीअन्तिम सीमा तक नाद काअनुभव चलता है। नादान्त भेद होजाने पर स्थूल दृष्टि से देह का भेद हो जाता है। अतः नाद का अवलम्बन लेकर ही नादान्त तक पहुंचाजाता है। नाद साधना हीवस्तुतः ओंकार की साधना है। इससाधना में पारंगत होने पर केवल नाद का ही अतिक्रमणनहीं होता अपितु शून्य का भी अतिक्रमण होता है और अन्त में मन का भी अतिक्रमण होता है, जिसका फलहै परमेश्वर से तादात्म्य लाभ।
इस प्रकार ओम् एक महामंत्र है। इसका जप और इसके अर्थ का चिन्तन समाधि-लाभ का उपाय है। वाचक एवं वाच्य का अभेद सम्बन्धहोता है। ज्यों हीवाचक शब्द का स्मरण अथवा उच्चारणकिया जाता है त्यों ही वह उसके वाच्य पदार्थ काबिम्ब मन में ला देता है। ‘यत ध्यायति तत् भवति’ के अनुसार ‘ओम्’ शब्द के जप एवं स्मरण से हमारे मन में ब्रह्मभावजाग्रत होता है। मन मेंयह भाव जगाए रहने के लम्बेअभ्यास के बाद अन्त में मन ब्रह्म भाव में अवस्थित होजाता है। अतः ‘ओम्’ सत्यं, शिवं,सुन्दरम् तक पहुंचने की कुंजी है।
भगवान् श्रीपतंजली ने " तस्य वाचकः प्रणवः " कहकर परमेश्वर का वाचक ओंकार को ही बताया है । यहीअक्षर " प्रयुक्त" है अर्थात् ईश्वर की इच्छा सेसबसे पहले इसी का आविर्भाव हुआ । इसी के लिए कहा है " यो वेदादौ स्वरः प्रोक्तो वेदान्ते च प्रतिष्ठितः" वेदपाठ के प्रारम्भ में व समापनमें ओंकार के उच्चारण का विधान है । क्योंकि ईश्वरेच्छा से यही सर्वप्रथम प्रादुर्भूतहुआ इसलिये मोक्षेच्छुकों को चाहिये कि सबसे पहले इसी का ध्यान करे । ओंकार अक्षरइसलिए है कि वेदमंत्रों के जप आदि के समय मंत्र से पहले और पीछे अगर ओंकार काउच्चारण न किया जाये तो मंत्र का क्षरण हो जाता है , वह बह जाता है । यह मनु ने भी कहा है । मंत्र के आगे -पीछे लगाने से ओंकार उस मंत्र को क्षरित नहीं होने देता इसलिये यह अक्षर है -जिसके प्रभाव से मंत्र का क्षरण न हो वह अक्षर है । इसे परब्रह्म भी कहा है । अन्यत्र भी वेद मेंओंकार को पर और अपर ब्रह्म बताया है क्योंकि वाच्यरूप से वह परमेश्वर को कहता हैऔर लक्ष्यरूप से परब्रह्म का बोध कराता है । यहाँ अथर्वा ऋषि ने " परमब्रह्म " कहा है लेकिन उपलक्षणा से अपर ब्रह्म भी ओंकार है यहअभिप्रेत ही है । सगुण और निर्गुण दोनों ब्रह्मध्यानों के लिये ओंकार सहारा बनजाता है । ओंकार के ध्यान दोनों प्रकार से किये जा सकते हैं - लिपिरूप का ध्याध औरध्वनिरूप का ध्यान । प्रथम प्रकार के लिये ध्यान करना चाहिये कि स्वर्णाक्षरों मेंओंकार लिखा हुआ है , वहजाज्वल्यमान है अर्थात् चमकदार है , यह विचार करते हुए उस पर त्राटक का अभ्यास करना चाहिये । यह ध्यान औरत्राटक बढ़ाते जाना चाहिये ।
दूसरेप्रकार के ध्यान के लिये प्रणव का उच्चारण करना पड़ेगा । उसे बोलते हुए , उसकी ध्वनि कान से सुनते हुए , और किसी आवाज़ को नसुनकर मन को सर्वथा उसी ध्वनि पर एकाग्र करना पड़ेगा । मानव का स्वभाव ऐसा है किनाम और रूप - ये दो ही चीज़े इसे आकृष्ट करती है । नाम शब्दात्मक है , रूप वह है जो बाह्य आकारादि दीखते हैं । ओंकार के भी इसलिये दोनों तरह केध्यान संभव है । लिपिबद्ध प्रकारइसका रूप है और उच्चारित ध्वनि इसका नाम है । पर - अपर ब्रह्म होने से इसी काध्यान करना चाहिये ।
ओंकार में तीन अक्षरों की कल्पना की जाती है अ , उ ,म् । संस्कृत के सन्धि - नियमोंके अनुसार अ ओर उ का मिलकर ओ रूप बनता ही है । अतः ओ में अ और उ की कल्पलना बहुतसहज है । अकार का उच्चारण स्थान कण्ठ और उकार का ओष्ठ है । हमारे द्वारा उच्चारितसब ध्वनियाँ कण्ठ , ओष्ठ और इसके मध्य के स्थानों वाली ही होती हैअर्थात् या कण्ठ से निकलती है या ओष्ठ से या इनके मध्य के किसी स्थाना से । इसलियेअकार और उकार से सभी स्वर - व्यंजनों का संग्रह हो जाता है । जिस ध्वनि में नासिकाका प्रयोग होता है उसका संग्रह करने के लिये मकार है । ङ्र . ञ , न् ,म् अनुस्वार और अनुनासिक { जो अर्धचन्द्र से सूचित होती है } - इन ध्वनियों में नासिका का उपयोग स्पष्ट है । ओम् मेंमकार का ग्रहण इन सभी ध्यनियों के अन्तर्भाव के प्रयोजन से है । इस प्रकार ओंकारसभी ध्वनियों को , ध्वनिमात्र को बताता है ।


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