Tuesday, April 14, 2015

जीवन का परम तत्व महर्षि

 जीवन का परम तत्व महर्षि महेश योगी का मानवता के प्रति विशेष और शाश्वत योगदान, पूर्ण बोध पर उनकी गहन समझ—और इसके अनुभव तंत्र का ज्ञान—था, पूर्ण बोध, बोध की निर्वात अवस्था है, मस्तिष्क की सबसे ताकतवर अवस्था।   धरातल स्तर या निर्वात स्तर, रचनात्मकता, ऊर्जा, नियमितता और ज्ञान का एक शाश्वत क्षेत्र है, वास्तव में कहें तो यह सभी संभावनाओं का क्षेत्र है। इस ब्रह्मांड में सब कुछ—प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष—इसी पदार्थ ऊर्जा स्तर से उत्पन्न होता है। प्रकृति के सभी अनगिनत नियमों—प्राकृतिक ज्ञान के स्पंदन—ब्रह्मांड की सभी विविध प्रक्रियाओं के नियंत्रण के लिए जिम्मेदार शक्तियां, यहां हैं। प्रकृति की असीमित क्षमताओं से भरा हुआ वही क्षेत्र किसी भी व्यक्ति में वैचारिक स्तर पर जाग्रत हो सकता है, किसी भी बोध अवस्था का यह स्थायी स्तर होता है। पूर्ण बोध के स्तर पर आकर, कोई भी प्रकृति के नियमों को नियंत्रित करने की अनंत शक्ति प्राप्त करता है, सभी वस्तुएं को प्राप्त करने की योग्यता भी मिलती है।   समुद्र की एक लहर की कल्पना करें। बड़ी से बड़ी लहर की भी एक सीमा होती है, यह केवल एक ऊँचाई और वह फैलाव होती है। अब कल्पना कीजिए कि लहर ठहर रही है, फैल रही है, जबतक कि वो समुद्र में विलुप्त न हो जाए। यह महत्वपूर्ण है और तब समुद्र की असीमित, अनंत शक्तिशाली ताकत के स्तर का अंदाजा लगाईए। लहर, जो पहले सीमित थी, अब असीमित हो चुकी है। मस्तिष्क भी इसी तरह ठहराव या उच्चीकृत होने की प्रक्रिया को पाने में समर्थ है। महर्षि के उच्चीकृत ध्यान (टीएम) के दौरान विचारों के तूफान, विचार के स्रोत से मुक्त हो जाते हैं। “उच्चीकृत” शब्द का अर्थ परे जाना होता है “ध्यान” का अर्थ विचारों की अवस्था होती है। टीएम के दौरान मस्तिष्क विकसित रुप से विचारशून्यता की ओर तब तक बढ़ता है, जब तक किसी के विचार उच्चीकृत होकर अपने स्रोत तक न पहुँच जाएं। आंदोलित, सीमित मूल्य के विचार जीव के अनंत स्तर तक पहुँच जाते हैं, जहाँ बोध का एक शांत समुद्र है।  विचारों को उच्चीकृत करना सोचने की तरह ही आसान है। यदि कोई दौड़ सकता है, तो बिलकुल सामान्य है कि वह चल भी सकता है और खड़ा भी रह सकता है। सक्रिय व्यक्ति के अंदर शांति के साथ सतर्क रहने की भी क्षमता होती है। किसी प्रयास की जरुरत नहीं है। इसके लिए केवल तकनीक की जरुरत है। मस्तिष्क बिलकुल पानी की तरह है, सतह पर अस्थिर और गहराई में शांत और स्थिर। जब हम केवल “अशांत” सतही स्तर के विचार रखते हैं तब अथाह परेशानियां मिलती हैं। सभी समस्याओं का परिणाम या उनका दिखना केवल अशांत मस्तिष्क के कारण है। यदि हम मस्तिष्क को उसके सतही स्तर से निर्वात स्तर तक ले जा सकें— यदि हम गहन बोध के स्तर तक स्थिरता को जगा सकें— हम “बदलाव की हवाओं” से घिर जाएंगे। भगवद् गीता (2.48) में कृष्ण कहते हैः “योगस्थ कुरु कर्माणि”: योग अवस्था में होकर या पूर्ण बोधावस्था में रहकर, कर्म करो। यहां मस्तिष्क सर्व शक्तिमान, सर्वप्रभावी होता है। ‘योगः कर्मसु कौशलम्’ (2.50): योग कर्म में कुशलता है। इस स्तर पर हम “कम कार्य और अधिक फल” प्राप्त करते हैं। आंतरिक शांति की वृद्धि आध्यात्मिक जाग्रति और भौतिक सफलता का कारक होती है।  बोध ही जीवन का परम तत्व है। हमारे समस्त कार्य हमारे बोध की क्षमता पर आधारित होते हैं। यदि आपका मस्तिष्क निद्रित, आंदोलित या नकारात्मक है तब सबकुछ आप अंदाज़ा लगाते हैं। बोली या कर्म से वो असंबंद्धता झलकती है। लेकिन यदि आपका बोध नियत, नवीन और जाग्रत है, तब दुनिया कुछ अलग तरह की होती है। बोध के विभिन्न स्तरों पर ज्ञान भी भिन्न-भिन्न प्रकार का होता है। जब आप लाल रंग का चश्मा पहनते हैं, तो सब कुछ लाल दिखता है और जब आप हरे रंग का चश्मा पहनते हैं, तो सब कुछ हरा दिखाई पड़ता है। वेद कहते हैं कि ज्ञान का जन्म बोध से होता है। विश्व वैसा ही है, जैसे हम हैं। यदि आप बोध के शांत, परमानंद स्तर तक पहुँच जाते हैं तब जो भी आप करें वो आनंददायक होता है। महर्षि इसका बहुत ही साधारण शब्दों में कहते हैं, “केवल एक बात का ध्यान करो—बोध—जिसके द्वारा शेष सभी बातों का ध्यान रखा जाता है”

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