Saturday, April 11, 2015

उत्पादक चक्र

ईशावास्यमिदं सर्वं यत् किञ्च जगत्यां जगत्।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः मा गृधः कस्यस्विद् धनम्॥ (ईशावास्य उपनिषद् प्रथम मन्त्र)

यहां ’तेन’ पूर्व पंक्ति के ’जगत्यां जगत्’ का विशेषण है।
ब्रह्म का वह रूप जो सभी प्राणियों के हृदय में रह कर नियन्त्रण करता है-’ईश’ है।

ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन् सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया।

जैसे माया यन्त्र (रोबोट) उसके भीतर की मशीन से चलता है, वैसे ही ईश (ईश्वर) सभी प्राणियों के हृदय में रह कर उनको नियन्त्रित करता है। व्यक्ति रूप में यह ईश है, उसका व्यापक रूप ईशा है।

यह ईश की तृतीया विभक्ति नहीं है जैसा कुछ लोगों को लगता है।
इसी प्रकार परिमित पिण्ड भूमि है, उसका प्रभाव क्षेत्र भूमा है-

यो वै भूमा तत् सुखम्, नाल्पे सुखमस्ति,
भूमैव सुखं-छान्दोग्य उप. (७/२३/१)।

सीमाबद्ध पुर के भीतर पुरुष है, असीम के साथ मिल कर या आधार सहित पूरुष है।

जगत् और जगत्यां जगत् क्या हैं? सीमा के भीतर अपने आप में पूर्ण रचना विश्व है। इसके १३ स्तर हैं अतः विश्व शब्द १३ का द्योतक है। शरीर का १ सेल भी विश्व है। यह जन्म होते ही सभी धातुओं का संग्रह (कलन) करने लगता है अतः कलिल = सेल है।

अनाद्यनन्तं कलिलस्य मध्ये विश्वस्य स्रष्टारमनेक रूपम् (श्वेताश्वतर उप. ५/१३)।

मनुष्य शरीर भी एक विश्व है, उससे बड़े विश्व पृथ्वी, सौर मण्डल, ब्रह्माण्ड, तपः लोक (दृश्य जगत्) क्रमशः कोटि-कोटि गुणा बड़े हैं (विष्णु पुराण २/७/३-४)। मनुष्य से छोटे विश्व ७ हैं जो क्रमशः १-१ लाख भाग छोटे है। इन विश्वों के भीतर जो क्रिया होती है वह जगत् है। जगत् के जीव सर्ग १४ प्रकार के हैं। जगत् के कर्म अव्यक्त हैं। उसकी गति २ प्रकार की है, जो बाहर से दीखई है वह शुक्ल तथा भीतरी अदृश्य गति कृष्ण है, अतः २ प्रकार के यजुर्वेद हैं। कर्म भी २ आ ३ प्रकार के हैं। कुछ कर्म में गति नहीं हो पाती है, वह अकर्म है जैसे दीवाल को धक्का देना। गति वाले कर्म भी २ प्रकार के हैं, एक है निरर्थक या अनुत्पादक गति। हवा चलना, पत्ते झड़ना या ग्लास तोड़ना अनुत्पादक है।

उपयोगी चीजों का उत्पादन यज्ञ द्वारा होता है, जो चक्र में होता है।

सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः।
अनेन प्रसविध्यष्वमेषवोऽस्त्विष्टकामधुक्॥
एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः।
अघायुरिन्द्रियारामः मोघः पार्थः स जीवति। (गीता३/१०,१६)।

हमारा जीवन तभी तक चल सकता है जब उसका आधार यज्ञ चलता रहे। अतः हमें उतना ही भोग करना है जिससे यज्ञ चक्र चलता रहे-यज्ञशिष्टामृत भुजः (गीता ४/३१)। कर्म रूप विश्व ’जगत्’ है उसमें उत्पादक चक्र ’जगत्यां जगत्’ है जिससे बचा हुआ अन्न ही खाना है।

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