एक घटना बेहद मार्मिक है। हुआ कुछ यूं कि अपनी मां को मुखाग्नि देने के कारण एक बहन को उसके ही सगे भाई ने जान से मार डाला। जबकि मृतक की इच्छा थी कि उसको मुखाग्नि उसकी बेटी ही दे। निश्चित रूप से ये परंपरा के खिलाफ़ बात थी इसलिए उसके भाई को ये बिल्कुल गवारा नहीं हुआ। उस गांव में भी इस मुखाग्नि कृत्य की निंदा की गई थी तथा मुखाग्नि देने वाली औरत को दण्ड देने की बात भी चल रही थी।
शास्त्रानुसार किसी भी स्त्री को मुखाग्नि देने का अधिकार है या नहीं, ये हमेशा एक बड़ी बहस का मुद्दा रहा है। परंपरा के घोर समर्थक इस बात का शिद्दत से विरोध करने के लिए जाने जाते रहे हैं। हर समुदाय में इसके लिए कड़े मानदण्ड अपनाए जाते हैं ताकि कभी भी स्त्री को मुखाग्नि न देनी पड़े। यहां तक कि स्त्रियों का श्मशान भूमि पर भी स्त्रियों का जाना कठोरता से वर्ज़ित है। एक बार जब शव यात्रा आरम्भ हो जाती है तभी स्त्रियों के ऊपर पाबंदी लाद दी जाती है।
क्या वास्तव में इसके लिए कोई शास्त्रीय विधान हैं भी या ये केवल बाद के जोड़े गए प्रक्षिप्त अंश हैं, जिनके आधार पर नारी के साथ इस तरह का रवैया अपनाया जाने लगा। इसकी छानबीन के लिए हमें वैदिक परंपरा से आरंभ करते हुए उत्तर वैदिक काल, बुद्ध काल, स्मृतियों का काल तथा परवर्ती कालों की विस्तृत समीक्षा करनी होगी अन्यथा हमारे हाथ कुछ नहीं लगेगा।
ऋग्वेद में स्त्रियों को युद्ध में भाग लेने तथा संपत्ति ग्रहण करने की आज़ादी दी गई थी। अगर हम ऋग्वेद के पंचम, षष्ठम वशों का गहन विश्लेषण करें तो यहां स्त्री के लिए कई तरह के कार्य नियत किए गए, ऐसा स्पष्ट प्रतीत होता। किंतु उत्तर वैदिक कालीन ग्रंथों का अध्ययन करने पर स्त्रियों की अवनत होती अवस्था का निदर्शन होने लगता है। स्मृतियों के काल में स्त्री के लिए कई तरह के निषेध नियम आरोपित किए जाने लगे। महर्षि याज्ञवल्क्य तथा गार्गी संवाद में ऋषि का रुष्ट होकर गार्गी को चेतावनी देना ये साबित करने के लिए पर्याप्त है कि तत्कालीन समाज में स्त्रियों की स्थिति दयनीय होनी शुरू हो चुकी थी। उन्हें शास्त्रार्थ करने का अधिकार नहीं रह गया था तथा भूमि पर से भी उनका अधिकार छीन लिया गया था।
एरण (510 ई.) के अभिलेख में गोपराज की पत्नी के सती होने का वर्णन किया गया है। यानि इस समय तक भले ही अभिजात्य वर्गीय सामंती समाज में सती होने को महिमामंडित किया जाने लगा था किंतु जमीनी हालात इससे अधिक बुरे होते जा रहे थे। बुद्ध कालीन भारत में (500 ई.पू. के पहले) स्त्री के लिए निषेध नियम कठोर होने लगे थे क्योंकि स्वयं बुद्ध ने भी संघ में किसी स्त्री को शामिल करने के लिए तवज्जो नहीं दी थी। हालांकि अपने प्रिय शिष्य आनंद के कहने पर उन्होंने अपनी धाय मां गौतमी को अवश्य ही संघ में शामिल कर लिया था, जो कि एक अपवाद माना जा सकता है। इसके अलावा नगरवधु आम्रपाली को भी उन्होंने दीक्षित किया।
बाद के कालों में सबसे बड़ी बात शव के अंतिम संस्कार के अधिकार से जुड़ी जबकि स्त्री को इसके लिए वर्ज़ित घोषित कर दिया गया। इसके पौराणिक व वैदिक साक्ष्य तो नहीं प्राप्त होते कि कब ऐसा किया गया किंतु स्मृतिकारों ने इस पर अधिक बल दिया कि स्त्री को श्मशान का रुख नहीं करना चाहिए। हालांकि सामाजिक तौर पर ऐसा किए जाने के पीछे ये तर्क दिया जाता है कि नारी मन से कोमल होती है, इसलिए उसके हृदय पर इसका विपरीत प्रभाव न पड़ सके जिस कारण ऐसा विधान किया गया। हालांकि इस तर्क में बहुत दम नहीं नज़र आता और वह भी स्त्री सशक्तिकरण के दौर में..
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