महाशिवरात्रि की जातक कथा
फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी के दिन
महाशिवरात्रि का पर्व मनाया जाता है।
ऐसी मान्यता है कि इसी दिन भगवान
शिव ज्योतिर्लिग रूप में प्रकट हुए थे। इस
संबंध में एक पौराणिक कथा भी है। उसके
अनुसार-
भगवान विष्णु की नाभि से कमल
निकला और उस पर ब्रह्माजी प्रकट हुए।
ब्रह्माजी सृष्टि के सर्जक हैं और विष्णु
पालक। दोनों में यह विवाद हुआ कि हम
दोनों में श्रेष्ठ कौन है? उनका यह विवाद
जब बढ़ने लगा तो तभी वहां एक अद्भुत
ज्योतिर्लिग प्रकट हुआ। उस ज्योतिर्लिग
को वे समझ नहीं सके और उन्होंने उसके छोर
का पता लगाने का प्रयास किया, परंतु
सफल नहीं हो पाए। जब
दोनों देवता निराश हो गए तब उस
च्योतिर्लिंग ने अपना परिचय देते हुए
कहां कि मैं शिव हूं। मैंने ही आप
दोनों को उत्पन्न किया है।
तब विष्णु तथा ब्रह्मा ने भगवान शिव
की महत्ता को स्वीकार किया और
उसी दिन से शिवलिंग की पूजा की जाने
लगी। शिवलिंग का आकार दीपक
की लौ की तरह लंबाकार है इसलिए इसे
च्योतिर्लिंग कहा जाता है।
एक मान्यता यह भी है कि फाल्गुन मास के
कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को ही शिव-
पार्वती का विवाह हुआ था इसलिए
महाशिवरात्रि का पर्व मनाया जाता है।
प्रत्येक मास के कृष्णपक्ष
की चतुर्दशी शिवरात्रि कहलाती है,
लेकिन फाल्गुन कृष्ण
चतुर्दशी महाशिवरात्रि कही गई है। इस
दिन शिवोपासना भुक्ति एवं
मुक्ति दोनों देने वाली मानी गई है,
क्योंकि इसी दिन अर्धरात्रि के समय
भगवान शिव लिंगरूप में प्रकट हुए थे।
माघकृष्ण चतुर्दश्यामादिद
ेवो महानिशि। ॥ शिवलिंगतयोद्रूत :
कोटिसूर्यसमप्रभ ॥ भगवान शिव
अर्धरात्रि में शिवलिंग रूप में प्रकट हुए थे,
इसलिए शिवरात्रि व्रत में अर्धरात्रि में
रहने वाली चतुर्दशी ग्रहण करनी चाहिए।
कुछ विद्वान प्रदोष
व्यापिनी त्रयोदशी विद्धा चतुर्दशी शिवरात्रि व्रत
में ग्रहण करते हैं। नारद संहिता में आया है
कि जिस तिथि को अर्धरात्रि में फाल्गुन
कृष्ण चतुर्दशी हो, उस दिन
शिवरात्रि करने से अश्वमेध यज्ञ का फल
मिलता है। जिस दिन प्रदोष व
अर्धरात्रि में चतुर्दशी हो, वह
अति पुण्यदायिनी कही गई है।
ईशान संहिता के अनुसार इस दिन
च्योतिर्लिग का प्रादुर्भाव हुआ, जिससे
शक्तिस्वरूपा पार्वती ने
मानवी सृष्टि का मार्ग प्रशस्त किया।
फाल्गुन कृष्ण
चतुर्दशी को ही महाशिवरात्रि मनाने के
पीछे कारण है कि इस दिन क्षीण चंद्रमा के
माध्यम से पृथ्वी पर अलौकिक लयात्मक
शक्तियां आती हैं, जो जीवनीशक्ति में
वृद्धि करती हैं।
यद्यपि चतुर्दशी का चंद्रमा क्षीण
रहता है, लेकिन शिवस्वरूप महामृत्युंजय
दिव्यपुंज महाकाल
आसुरी शक्तियों का नाश कर देते हैं। मारक
या अनिष्ट की आशंका में महामृत्युंजय शिव
की आराधना ग्रहयोगों के आधार पर बताई
जाती है। बारह राशियां, बारह
च्योतिर्लिगों की आराधना या दर्शन
मात्र से सकारात्मक
फलदायिनी हो जाती है।
यह काल वसंत ऋतु के वैभव के प्रकाशन
का काल है। ऋतु परिवर्तन के साथ मन
भी उल्लास व उमंगों से भरा होता है।
यही काल कामदेव के विकास का है और
कामजनित भावनाओं पर अंकुश भगवद्
आराधना से ही संभव हो सकता है। भगवान
शिव तो स्वयं काम निहंता हैं, अत: इस समय
उनकी आराधना ही सर्वश्रेष्ठ है।
महाशिवरात्रि की एक और कथा-
एक बार पार्वती ने भगवान शिवशंकर से
पूछा, ऐसा कौन सा श्रेष्ठ तथा सरल व्रत-
पूजन है, जिससे मृत्यु लोक के
प्राणी आपकी कृपा सहज ही प्राप्त कर
लेते हैं?
उत्तर में शिवजी ने
पार्वती को शिवरात्रि के व्रत
का विधान बताकर यह कथा सुनाई-
किसी समय वाराणसी के वन में एक भील
रहता था। उसका नाम गुरुद्रुह था। वह
वन्यप्राणियों का शिकार कर अपने
परिवार का भरण-पोषण करता था। एक
बार शिवरात्रि के दिन वह शिकार करने
वन में गया। उस दिन उसे दिनभर कोई
शिकार नहीं मिला रात होने पर उसे वन में
एक झील दिखाई दी। सोचा यहीं पेड़ पर
चढ़कर शिकार की राह देखता हूं। कोई न
कोई प्राणी यहां पानी पीने आएगा। वह
पानी का पात्र भरकर बिल्ववृक्ष पर चढ़
गया। उस वृक्ष के नीचे शिवलिंग स्थापित
था।
थोड़ी देर बाद वहां एक हिरनी आई।
गुरुद्रुह ने जैसे ही हिरनी को मारने के लिए
धनुष पर तीर चढ़ाया तो बिल्ववृक्ष के
पत्ते और जल शिवलिंग पर गिरे। इस प्रकार
रात के प्रथम प्रहर में अंजाने में ही उसके
द्वारा शिवलिंग की पूजा हो गई।
तभी हिरनी ने उसे देख लिया और उससे
पूछा कि तुम क्या चाहते हो। वह
बोला कि तुम्हें मारकर मैं अपने परिवार
का पालन करूंगा। यह सुनकर
हिरनी बोली कि मेरे बच्चे मेरी राह देख
रहे होंगे। मैं उन्हें अपनी बहन को सौंपकर
लौट आऊंगी। हिरनी के ऐसा कहने पर
शिकारी ने उसे छोड़ दिया।
थोड़ी देर बाद उस हिरनी की बहन उसे
खोजते हुए झील के पास आ गई। शिकारी ने
उसे देखकर पुन: अपने धनुष पर तीर चढ़ाया।
इस बार भी रात के दूसरे प्रहर में
बिल्ववृक्ष के पत्ते व जल शिवलिंग पर गिरे
और शिव की पूजा हो गई। उस हिरनी ने
भी अपने बच्चों को सुरक्षित स्थान पर
रखकर आने को कहा। शिकारी ने उसे
भी जाने दिया। थोड़ी देर बाद वहां एक
हिरन अपनी हिरनी को खोज में आया। इस
बार भी वही सब हुआ और तीसरे प्रहर में
भी शिवलिंग की पूजा हो गई। वह हिरन
भी अपने बच्चों को सुरक्षित स्थान पर
छोड़कर आने की बात कहकर चला गया। जब
वह तीनों हिरनी व हिरन मिले
तो प्रतिज्ञाबद्ध होने के कारण
तीनों शिकारी के पास आ गए। सबको एक
साथ देखकर शिकारी बड़ा खुश हुआ और उसने
फिर से अपने धनुष पर बाण चढ़ाया जिससे
चौथे प्रहर में पुन: शिवलिंग
की पूजा हो गई।
इस प्रकार गुरुद्रुह दिनभर भूखा-
प्यासा रहकर वह रातभर जागता रहा और
चारों प्रहर अंजाने में ही उससे शिव
की पूजा हो गई और शिवरात्रि का व्रत
संपन्न हो गया, जिसके प्रभाव से उसके पाप
तत्काल भी भस्म हो गए। पुण्य उदय होते
ही उसने सभी हिरनों को मारने
का विचार त्याग दिया। तभी शिवलिंग से
भगवान शंकर प्रकट हुए और उन्होंने गुरुद्रुह
को वरदान दिया कि त्रेतायुग में भगवान
राम तुम्हारे घर आएंगे और तुम्हारे साथ
मित्रता करेंगे। तुम्हें मोक्ष भी प्राप्त
होगा। इस प्रकार अंजाने में किए गए
शिवरात्रि व्रत से भगवान शंकर ने
शिकारी को मोक्ष प्रदान कर दिया।
फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी के दिन
महाशिवरात्रि का पर्व मनाया जाता है।
ऐसी मान्यता है कि इसी दिन भगवान
शिव ज्योतिर्लिग रूप में प्रकट हुए थे। इस
संबंध में एक पौराणिक कथा भी है। उसके
अनुसार-
भगवान विष्णु की नाभि से कमल
निकला और उस पर ब्रह्माजी प्रकट हुए।
ब्रह्माजी सृष्टि के सर्जक हैं और विष्णु
पालक। दोनों में यह विवाद हुआ कि हम
दोनों में श्रेष्ठ कौन है? उनका यह विवाद
जब बढ़ने लगा तो तभी वहां एक अद्भुत
ज्योतिर्लिग प्रकट हुआ। उस ज्योतिर्लिग
को वे समझ नहीं सके और उन्होंने उसके छोर
का पता लगाने का प्रयास किया, परंतु
सफल नहीं हो पाए। जब
दोनों देवता निराश हो गए तब उस
च्योतिर्लिंग ने अपना परिचय देते हुए
कहां कि मैं शिव हूं। मैंने ही आप
दोनों को उत्पन्न किया है।
तब विष्णु तथा ब्रह्मा ने भगवान शिव
की महत्ता को स्वीकार किया और
उसी दिन से शिवलिंग की पूजा की जाने
लगी। शिवलिंग का आकार दीपक
की लौ की तरह लंबाकार है इसलिए इसे
च्योतिर्लिंग कहा जाता है।
एक मान्यता यह भी है कि फाल्गुन मास के
कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को ही शिव-
पार्वती का विवाह हुआ था इसलिए
महाशिवरात्रि का पर्व मनाया जाता है।
प्रत्येक मास के कृष्णपक्ष
की चतुर्दशी शिवरात्रि कहलाती है,
लेकिन फाल्गुन कृष्ण
चतुर्दशी महाशिवरात्रि कही गई है। इस
दिन शिवोपासना भुक्ति एवं
मुक्ति दोनों देने वाली मानी गई है,
क्योंकि इसी दिन अर्धरात्रि के समय
भगवान शिव लिंगरूप में प्रकट हुए थे।
माघकृष्ण चतुर्दश्यामादिद
ेवो महानिशि। ॥ शिवलिंगतयोद्रूत :
कोटिसूर्यसमप्रभ ॥ भगवान शिव
अर्धरात्रि में शिवलिंग रूप में प्रकट हुए थे,
इसलिए शिवरात्रि व्रत में अर्धरात्रि में
रहने वाली चतुर्दशी ग्रहण करनी चाहिए।
कुछ विद्वान प्रदोष
व्यापिनी त्रयोदशी विद्धा चतुर्दशी शिवरात्रि व्रत
में ग्रहण करते हैं। नारद संहिता में आया है
कि जिस तिथि को अर्धरात्रि में फाल्गुन
कृष्ण चतुर्दशी हो, उस दिन
शिवरात्रि करने से अश्वमेध यज्ञ का फल
मिलता है। जिस दिन प्रदोष व
अर्धरात्रि में चतुर्दशी हो, वह
अति पुण्यदायिनी कही गई है।
ईशान संहिता के अनुसार इस दिन
च्योतिर्लिग का प्रादुर्भाव हुआ, जिससे
शक्तिस्वरूपा पार्वती ने
मानवी सृष्टि का मार्ग प्रशस्त किया।
फाल्गुन कृष्ण
चतुर्दशी को ही महाशिवरात्रि मनाने के
पीछे कारण है कि इस दिन क्षीण चंद्रमा के
माध्यम से पृथ्वी पर अलौकिक लयात्मक
शक्तियां आती हैं, जो जीवनीशक्ति में
वृद्धि करती हैं।
यद्यपि चतुर्दशी का चंद्रमा क्षीण
रहता है, लेकिन शिवस्वरूप महामृत्युंजय
दिव्यपुंज महाकाल
आसुरी शक्तियों का नाश कर देते हैं। मारक
या अनिष्ट की आशंका में महामृत्युंजय शिव
की आराधना ग्रहयोगों के आधार पर बताई
जाती है। बारह राशियां, बारह
च्योतिर्लिगों की आराधना या दर्शन
मात्र से सकारात्मक
फलदायिनी हो जाती है।
यह काल वसंत ऋतु के वैभव के प्रकाशन
का काल है। ऋतु परिवर्तन के साथ मन
भी उल्लास व उमंगों से भरा होता है।
यही काल कामदेव के विकास का है और
कामजनित भावनाओं पर अंकुश भगवद्
आराधना से ही संभव हो सकता है। भगवान
शिव तो स्वयं काम निहंता हैं, अत: इस समय
उनकी आराधना ही सर्वश्रेष्ठ है।
महाशिवरात्रि की एक और कथा-
एक बार पार्वती ने भगवान शिवशंकर से
पूछा, ऐसा कौन सा श्रेष्ठ तथा सरल व्रत-
पूजन है, जिससे मृत्यु लोक के
प्राणी आपकी कृपा सहज ही प्राप्त कर
लेते हैं?
उत्तर में शिवजी ने
पार्वती को शिवरात्रि के व्रत
का विधान बताकर यह कथा सुनाई-
किसी समय वाराणसी के वन में एक भील
रहता था। उसका नाम गुरुद्रुह था। वह
वन्यप्राणियों का शिकार कर अपने
परिवार का भरण-पोषण करता था। एक
बार शिवरात्रि के दिन वह शिकार करने
वन में गया। उस दिन उसे दिनभर कोई
शिकार नहीं मिला रात होने पर उसे वन में
एक झील दिखाई दी। सोचा यहीं पेड़ पर
चढ़कर शिकार की राह देखता हूं। कोई न
कोई प्राणी यहां पानी पीने आएगा। वह
पानी का पात्र भरकर बिल्ववृक्ष पर चढ़
गया। उस वृक्ष के नीचे शिवलिंग स्थापित
था।
थोड़ी देर बाद वहां एक हिरनी आई।
गुरुद्रुह ने जैसे ही हिरनी को मारने के लिए
धनुष पर तीर चढ़ाया तो बिल्ववृक्ष के
पत्ते और जल शिवलिंग पर गिरे। इस प्रकार
रात के प्रथम प्रहर में अंजाने में ही उसके
द्वारा शिवलिंग की पूजा हो गई।
तभी हिरनी ने उसे देख लिया और उससे
पूछा कि तुम क्या चाहते हो। वह
बोला कि तुम्हें मारकर मैं अपने परिवार
का पालन करूंगा। यह सुनकर
हिरनी बोली कि मेरे बच्चे मेरी राह देख
रहे होंगे। मैं उन्हें अपनी बहन को सौंपकर
लौट आऊंगी। हिरनी के ऐसा कहने पर
शिकारी ने उसे छोड़ दिया।
थोड़ी देर बाद उस हिरनी की बहन उसे
खोजते हुए झील के पास आ गई। शिकारी ने
उसे देखकर पुन: अपने धनुष पर तीर चढ़ाया।
इस बार भी रात के दूसरे प्रहर में
बिल्ववृक्ष के पत्ते व जल शिवलिंग पर गिरे
और शिव की पूजा हो गई। उस हिरनी ने
भी अपने बच्चों को सुरक्षित स्थान पर
रखकर आने को कहा। शिकारी ने उसे
भी जाने दिया। थोड़ी देर बाद वहां एक
हिरन अपनी हिरनी को खोज में आया। इस
बार भी वही सब हुआ और तीसरे प्रहर में
भी शिवलिंग की पूजा हो गई। वह हिरन
भी अपने बच्चों को सुरक्षित स्थान पर
छोड़कर आने की बात कहकर चला गया। जब
वह तीनों हिरनी व हिरन मिले
तो प्रतिज्ञाबद्ध होने के कारण
तीनों शिकारी के पास आ गए। सबको एक
साथ देखकर शिकारी बड़ा खुश हुआ और उसने
फिर से अपने धनुष पर बाण चढ़ाया जिससे
चौथे प्रहर में पुन: शिवलिंग
की पूजा हो गई।
इस प्रकार गुरुद्रुह दिनभर भूखा-
प्यासा रहकर वह रातभर जागता रहा और
चारों प्रहर अंजाने में ही उससे शिव
की पूजा हो गई और शिवरात्रि का व्रत
संपन्न हो गया, जिसके प्रभाव से उसके पाप
तत्काल भी भस्म हो गए। पुण्य उदय होते
ही उसने सभी हिरनों को मारने
का विचार त्याग दिया। तभी शिवलिंग से
भगवान शंकर प्रकट हुए और उन्होंने गुरुद्रुह
को वरदान दिया कि त्रेतायुग में भगवान
राम तुम्हारे घर आएंगे और तुम्हारे साथ
मित्रता करेंगे। तुम्हें मोक्ष भी प्राप्त
होगा। इस प्रकार अंजाने में किए गए
शिवरात्रि व्रत से भगवान शंकर ने
शिकारी को मोक्ष प्रदान कर दिया।
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