Friday, April 10, 2015

ईश्वर की आराधना में फूलों का विशेष स्थान है।

ईश्वर की आराधना में फूलों का विशेष स्थान है। फूल, पवित्र और शुद्धता के प्रतीक माने जाते हैं इसलिए देवताओं को यह खूब भाते हैं। इस खूबसूरत दुनिया में रंग-बिरंगे अनेक फूल मौजूद हैं, जिनमें से एक है परिजात का फूल। परिजात का फूल देखने में अलौकिक प्रतीत होता है लेकिन इसके उद्भव से जुड़ी कहानी इससे भी कहीं ज्यादा अद्भुत है। माना जाता है कि इस फूल का उद्भव दानवों और देवताओं के बीच हुए समुद्र मंथन में हुआ था। इस वृक्ष को देवता इन्द्र अपने साथ स्वर्ग ले गए थे।
पारिजात के वृक्ष की खासियत है कि जो भी इसे एक बार छू लेता है उसकी थकान चंद मिनटों में गायब हो जाती है। उसका शरीर पुन: स्फूर्ति प्राप्त कर लेता है। हरिवंशपुराण के अनुसार स्वर्ग की अप्सरा उर्वशी परिजात के वृक्ष को छूकर ही अपनी थकान मिटाती थी।
पारिजात के वृक्ष को दैवीय कहा जाता है, जिसमें साल में बस एक ही महीने में फूल खिलते हैं। गंगा दशहरा के आसपास यह पेड़ फूल खिलाता है लेकिन हैरानी की बात है जब पेड़ से फूल झड़ते हैं तो वे पेड़ के करीब नहीं, बहुत दूर जाकर गिरते हैं।
पारिजात के फूलो का यह स्वभाव भगवान कृष्ण और रुक्मिणी की प्रेम कहानी और सत्यभामा की जलन से जुड़ा है। पौराणिक कथा के अनुसार एक बार नारद ऋषि इन्द्रलोक से इस वृक्ष के कुछ फूल लेकर कृष्ण के पास गए।
कृष्णा ने ये फूल उनसे लेकर अपने निकट बैठी पत्नी रुक्मिणी को दे दिए। इस घटना के बाद नारद, कृष्ण की दूसरी पत्नी सत्यभामा के पास गए और उनसे कहा कि परिजात के बेहद खूबसूरत फूल कृष्ण ने रुक्मिणी को सौंप दिए और उनके लिए एक भी नहीं रखा।
यह बात सुनकर सत्यभामा ईर्ष्या से भर गईं और कृष्ण से जिद करने लगीं कि उन्हें परिजात का दिव्य वृक्ष चाहिए। परिजात का वृक्ष देवलोक में था, इसलिए कृष्ण ने उनसे कहा कि वे इन्द्र से आग्रह कर वृक्ष उन्हें ला देंगे।
पति पत्नी में जागड़ा लगाकर नारद, देवराज इन्द्र के पास गए और उनसे कहा कि मृत्युलोक से इस वृक्ष को ले जाने का षडयंत्र रचा जा रहा है लेकिन यह वृक्ष स्वर्ग की संपत्ति है, इसलिए यहीं रहना चाहिए।
इतने में ही कृष्ण अपनी पत्नी सत्यभामा के साथ इन्द्रलोक आए। पहले तो इन्द्र ने यह वृक्ष सौंपने से मना कर दिया लेकिन अंतत: उन्हें यह वृक्ष देना ही पड़ा। जब कृष्ण परिजात का वृक्ष ले जा रहे थे तब देवराज इन्द्र ने वृक्ष को यह श्राप दे दिया कि इस पेड़ के फूल दिन में नहीं खिलेंगे।
सत्यभामा की जिद्द की वजह से कृष्ण परिजात के पेड़ को धरती पर ले आए और सत्यभामा की वाटिका में लगा दिया। लेकिन सत्यभामा को सबक सिखाने के लिए उन्होंने कुछ ऐसा किया कि वृक्ष लगा तो सत्यभामा की वाटिका में था लेकिन इसके फूल रुक्मिणी की वाटिका में गिरते थे।
इस तरह सत्यभामा को वृक्ष तो मिला लेकिन फूल रुक्मिणी को ही प्राप्त होते थे। यही वजह है कि परिजात के फूल, अपने वृक्ष से बहुत दूर जाकर गिरते हैं।
पारिजात के विषय में एक अन्य मान्यता, परिजात नामक राजकुमारी से जुड़ी है जो सूर्य देव से बहुत प्रेम करती थी। अथक प्रयास और तप के बावजूद जब सूर्यदेव ने परिजात का प्रेम स्वीकार नहीं किया तब क्रोध में आकर परिजात ने आत्महत्या कर ली।
जिस स्थान पर पारिजात की समाधि बनाई गई उस पर यह वृक्ष उग गया और तब से इस वृक्ष का नाम परिजात पड़ गया। शायद यही कारण है कि रात के समय इस वृक्ष को देखने से लगता है मानो यह रो रहा है और सूरज की रोशनी में खिलखिला उठता है।
एक अन्य कथा के
अनुसार, अपने अज्ञातवास के दौरान पांडव अपनी माता कुंती के साथ कहीं जा रहे थे। उस समय उन्होंने सत्यभामा की वाटिका में यह वृक्ष देखा। कुंती ने अपने पुत्रों से इस वृक्ष को बोरोलिया में लगाने को कहा।
तब से लेकर अब तक बाराबंकी का यह वृक्ष वहीं स्थित है। देशभर से लोग इस स्थान पर पूजा-अर्चना कर अपनी मन्नत मांगने और थकान मिटाने आते हैं।
बाराबंकी स्थित पारिजात का पेड़ अपने आप में बहुत रोचक है। लगभग 50 फीट के तने व 45 फीट की ऊंचाई वाले इस वृक्ष की अधिकांश शाखाएं मुड़कर धरती को छूती हैं। यह पेड़ वर्ष में बस जून माह में फूल देता है।
अगर इस वृक्ष की उम्र की बात की जाए तो वैज्ञानिकों के अनुसार यह वृक्ष 1 हजार से 5 हजार साल तक जीवित रह सकता है। इस प्रकार की दुनिया में सिर्फ पांच प्रजातियां हैं, जिन्हें एडोसोनिया वर्ग में रखा जाता है। परिजात का पेड़ भी इन्हीं पांच प्रजातियों में से ‘डिजाहट’ प्रजाति का सदस्य है।
धन की देवी को भी परिजात के फूल अत्याधिक प्रिय हैं इसलिए उनकी पूजा में परिजात के फूल जरूर अर्पण करने चाहिए।


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