Saturday, April 11, 2015

‘भारत देश’ का नाम पड़ा

प्राचीन काल से ही भारतीय इतिहास में बेहद रोचक प्रेम कहानियां प्रचलित हैं। लेकिन एक प्रेम कहानी अति प्राचीन काल से भी जुड़ी है जिसके बारे में बहुत कम लोगों को ज्ञान है। यह कहानी है शकुंतला और दुष्यंत के प्रेम की। ये कहानी है एक सम्राट और एक आश्रम में पली-बढ़ी साधारण कन्या के मिलन की कहानी।
शकुंतला और दुःषन्त एक ऐसे प्रेमी जोड़े के रूप में प्रस्तुत हुए हैं जिनका पहले मिलन हुआ, फिर वे अलग हो गए और आखिरकार फिर से मिलन हुआ। महाकवि कालिदास द्वारा शकुंतला पर एक विश्वविख्यात नाटक ‘अभिज्ञान शाकुन्तलम्’ भी लिखा गया। इस नाटक में दोनों की प्रेम कहानी के प्रत्येक पहलू को काफी गहराई से पहचाना गया है।
यह बात तब की हे जब महान ऋषि विश्वामित्र एक जंगल में कठोर तपस्या में लीन थे। तप में उनकी कड़ी साधना देख स्वर्ग के राजा इन्द्र बेहद परेशान हो उठे। उन्हें यह भय सताने लगा कि यदि ऋषि विश्वामित्र इसी तरह से तपस्या करते रहे, तो वे एक दिन स्वर्ग पर राज कर सकते हैं।
अति सुन्दर मधुर आवाज़ और खूबसूरत नृत्य करने वाली मेनका अप्सरा के सौंदर्य को आज तक कोई नजरअंदाज ना कर सका था। यही सोच राजा इन्द्र ने मेनका अप्सरा को धरती लोक पर भेजा। मेनका ने ऋषि विश्वामित्र के सामने पहुंचते ही अपना सुंदर नृत्य शुरू कर दिया।
अप्सरा के मधुर आवाज़ से ऋषि विश्वामित्र की तपस्या टूट गई। उन्होंने जब आंखें खोलीं तो उनके सामने सौंदर्य से भरपूर मेनका नृत्य कर रही थी। दोनों में प्रेम संबंध उत्पन्न हुए, जिसके बाद मेनका द्वारा एक सुंदर कन्या को जन्म दिया गया।
कन्या को जन्म देते ही मेनका का धरती पर रहने का समय समाप्त हो गया था। आपसी सलाह के बाद दोनों ने अपनी नवजात पुत्री को कण्व ॠषि के आश्रम में रात के अंधेरे में छोड़ दिया। बड़े होकर यह कन्या शकुंतला के नाम से जानी गई।
शकुंतला का पालन -पोषण कण्व ॠषि के आश्रम में बड़े अच्छे से किया गया। अब शकुंतला यौवनावस्था में आ गई थी। वह बेहद खूबसूरत थी। एक दिन उस प्रदेश के राजा दुष्यंत शिकार करते हुए अपने सैनिकों के साथ कण्व ॠषि के आश्रम में पहुंचे। वहां उनकी मुलाकात शकुंतला से हुई। दोनों के मिलन की दास्तां महाकवि कालिदास द्वारा अपने नाटक के पहले सर्ग में की गई है।
राजा दुःषन्त शकुंतला की सुंदरता से आकर्षित हुए और दोनों में प्रेम संबंध बने। बाद में उन्होंने जंगल में जाकर गंधर्व विवाह कर लिया। उस जमाने में गंधर्व विवाह आज के प्रेम विवाह के समान ही माना जाता था, परंतु अग्नि के सामने फेरे ले लेने के कारण माता-पिता को वर-वधु के प्रेम विवाह को स्वीकार करना ही पड़ता था।
विवाह के बाद दुष्यंत, शकुंतला को आश्रम में वापस छोड़ गए और साथ में निशानी के रूप में अपनी एक अंगूठी भी दी। साथ ही यह वादा किया कि वे जल्द ही लौटेंगे और शकुंतला को अपनी रानी बनाकर महल ले जाएंगे। लेकिन महीनों बीत गए, राजा दुष्यंत के आने की कोई सूचना ना मिली।
एक दिन राज दुष्यंत के ग़म में डूबी शकुंतला यह जान ना सकी उसके पास से ऋषि दुर्वासा गुज़रे हैं। शकुंतला द्वारा खुद को यूं नजरंदाज किये जाने पर अपने क्रोध के लिए प्रसिद्ध ऋषि दुर्वासा शकुंतला पर क्रोधित हो गए। उन्होंने उसे श्राप दिया, “जिसके ग़म में तू इतना डूबी हुई है, तू जब उसके सामने जाएगी तो वह तुझे पहचानने से भी इंकार कर देगा।
यह सुन शकुंतला रोने लगी और ऋषि दुर्वासा से क्षमा की भीख मांगने लगी। तब ऋषि बोले कि यदि तुम उसके द्वारा दी हुई अंगूठी उसे दिखाओगी तो वह तुम्हें पहचान लेगा। शकुंतला को अपनी पुत्री समान मानने वाले ऋषि कण्व ने उसे महल में भेजने का फैसला किया।
यह महाकवि कालिदास के नाटक के दूसरे प्रसंग का हिस्सा था। इसमें आश्रम छोड़ते हुए ऋषि कण्व की भावनाओं का भी उल्लेख किया गया है। महाकवि कालिदास लिखते हैं कि ऋषि कण्व अपनी पुत्री शकुंतला, जो कि असल में उनकी पुत्री नहीं थी, उसे आश्रम से विदा करते समय बेहद भावुक थे।
कालिदास की द्वारा इस दृश्य की एक मार्मिक प्रसंग द्वारा व्याख्या की गई है। बेटी को आश्रम से जाते हुए देख वे बोले कि मेरे जैसे ऋषि को अपनी पालिता कन्या में यह मोह है, तो उस पिता का क्या हाल होता होगा जो अपनी खुद की कन्या को विदा करते हैं!
उस समय शकुंतला गर्भवती थी लेकिन इसकी सूचना बच्चे के पिता यानी कि राजा दुष्यंत को नहीं थी। अब शकुंतला राजा दुष्यंत द्वारा दी हुई अंगूठी लेकर महल की ओर निकल गई। परंतु नदी पार करते हुए गलती से अंगूठी शकुंतला के हाथ से छूटकर नदी में बह गई।
अब वह परेशान थी की राजा दुष्यंत उसे कैसे पहचानेंगे। फिर भी वह महल पहुंच गई और दरबार में राजा के सामने प्रस्तुत हुई। पर हुआ वही जिसका शकुंतला को डर था। ऋषि दुर्वासा के श्राप के कारण राजा दुष्यंत ने शकुंतला को पहचानने से साफ इंकार कर दिया। पति द्वारा पहचान ना मिलने के कारण शकुंतला वहां से निकल गई और एक जंगल में चली गई जहां उसने एक हष्ट-पुष्ट बालक को जन्म दिया।
इस बालक का नाम शकुंतला ने ‘भरत’ रखा। शकुंतला ने भरत का पालन-पोषण जंगल में ही किया। जंगल के स्वच्छ वातावरण से भरत निरोगी और ताकतवर बना। फिर भी कहीं ना कहीं शकुंतला को यह चिंता सताती थी कि काश उसके पुत्र को अपने पिता का भी आशीर्वाद प्राप्त होता।
उधर दूसरी और राजा दुष्यंत के दरबार में एक दिन एक मछुआरा आया। यह वाकया महाकवि कालीदास के नाटक का चौथा सर्ग है। उस मछुआरे के मछली जाल में एक ऐसी मछली फंसी थी जिसके पेट से उसे एक राजअंगूठी हासिल हुई थी। उसने वह अंगूठी राजा को दिखाई। अंगूठी देखते ही राजा को शकुंतला के बारे में सब ज्ञात हो गया।
कुछ क्षण बाद उन्हें पता लगा
कि शकुंतला उनके दरबार में आई थी, लेकिन वह उसे पहचान ना सके। लोगों ने बताया कि वह गर्भवती थी और महल से निकलने के बाद जंगल की ओर चली गई। राजा ने जल्द ही अपनी सेना को जंगल की ओर रवाना किया। खबर मिली कि एक स्त्री अपने छोटे से पुत्र के साथ जंगल में रहती है। पुत्र से मिलने की खुशी से भरपूर राजा अगले ही पल स्वयं जंगल की ओर निकल पड़े।
वंहा उन्होंने एक कुटिया के पास नन्हा बच्चा देखा जो शेर की सवारी कर रहा था। उस बच्चे के करतब देख राजा अचंभित हो गए। वे उसके पास गए और उसे अपनी गोद में उठा लिया। एक अजनबी की गोद में होने के कारण भरत घबरा गया और वह चिल्लाया, “मां, मां”। शकुंतला अगले ही क्षण कुटिया से बाहर आ गई।
अपने पुत्र को राजा दुष्यंत की गोद में देख शकुंतला की खुशी का ठिकाना ना रहा। इस प्रकार से राजा दुष्यंत और शकुंतला का मिलना हुआ। यह मिलन कालीदास जी के नाटक के आखिरी एवं पांचवें प्रसंग का हिस्सा है।
राजा दुष्यंत अपनी पत्नी को खुशी-खुशी महल ले गए। उन्होंने अपने पुत्र को सभी महान विद्याओं का ज्ञान दिया। दुष्यंत के बाद भरत ही देश की सत्ता पर विराजमान हुए और सम्राट भरत के नाम से प्रसिद्ध हुए। सम्राट भरत ने ही एक राज्य को साम्राज्य का रूप दिया था। उन्हीं के नाम पर आगे चलकर ‘भारत देश’ का नाम पड़ा।

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