Wednesday, April 8, 2015

एक-दूसरे के पूरक हैं स्त्री और पुरुष

एक-दूसरे के पूरक हैं स्त्री और पुरुष
पौराणिक मान्यता के अनुसार किसी समय ब्रह्मा अकेले थे। अकेलापन उन्हें अच्छा नहीं लगा। अपना एकाकीपन दूर करने के लिए उन्होंने माया का सृजन किया। ब्रह्म और माया को मिलाकर सृष्टि पूर्ण हो गई।
'एक हाथ से ताली नहीं बजती', 'अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता', 'अकेली लकड़ी, सात की भारी' आदि कुछ कहावतें हैं। ये द्वैत की श्रेष्ठता प्रमाणित करती हैं। स्त्री और पुरुष भी जब तक अकेले रहते हैं, अधूरे होते हैं। अकेली स्त्री या अकेले पुरुष से न सृष्टि होती है, न समाज बनता है और न परिवार। इस दृष्टि से स्त्री और पुरुष को एक-दूसरे का पूरक माना गया है।
भगवान महावीर ने धर्मसंघ की स्थापना की। उन्होंने धर्मसंघ में पुरुषों को जितने आदर से प्रवेश दिया, उतने ही आदर से महिलाओं को भी प्रवेश दिया। मोक्ष की साधना और मोक्ष प्राप्ति के अधिकार से उन्होंने स्त्रियों को कभी वंचित नहीं किया।
भारत जैसे प्रगतिशील लोकतांत्रिक देश में आज भी स्त्री की स्थिति अच्छी नहीं है। जबकि ढाई हजार वर्ष पहले ही भगवान महावीर ने स्त्री और पुरुष को समानता की तुला पर आरोहित कर दिया।
बनी रहती है अपूर्णता -
हमारी संसद में आजादी के 6 दशक के बाद स्त्री के लिए समानता के प्रस्ताव पारित किए जा रहे हैं, जबकि स्त्री की रचनात्मक ऊर्जा का उपयोग व्यापक स्तर पर करने की जरूरत है। जिन समुदायों में आज भी स्त्री को हीन और पुरुष को प्रधान माना जाता है और परिवार, समाज व राष्ट्र के विकास में स्त्री-पुरुष की समान हिस्सेदारी नहीं होती, वे अपूर्णता का अनुभव करते हैं।
महाकवि कालिदास ने अपने महाकाव्य 'रघुवंश' के प्रथम सर्ग के प्रथम श्लोक में वाणी और अर्थ के संबंध की अभिव्यक्ति की है। वाणी एक शक्ति है, अर्थ भी एक शक्ति है। वाणी हो और अर्थ न हो, तो वाणी व्यर्थ हो जाती है। अर्थ हो और वाणी न हो तो वह किसी के उपयोग में नहीं आ सकता। इसका फलित यह है कि वाणी और अर्थ दोनों एक साथ रहकर ही अपनी सार्थकता प्रमाणित कर सकते हैं।
वाणी और अर्थ के रूप में स्त्री और पुरुष का प्रतीक न लिया जाए तो इन दोनों शक्तियों के संयोजन से एक विलक्षण शक्ति का प्रादुर्भाव हो सकता है। उस शक्ति से सामाजिक जड़ता के केंद्र में विस्फोट करके ऐसी चेतना को उभारा जा सकता है जो समाज को दस साल आगे ले जाए।
संभव है नई कल्पनाओं और नई संभावनाओं के साथ होने वाला यह प्रयोग ऐसे परिणाम लाए, जिसमें समाज में विकास के लिए नए क्षितिज खुल सकें। समाज की संस्थाओं को कुछ ऐसे रचनात्मक काम हाथ में लेने चाहिए जिनमें युगीन समस्याओं के समाधान निहित हों। इस दृष्टि से महिला समाज का शक्ति-जागरण और उसके उपयोग में सचेतन बनना जरूरी है।
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कर्म और इच्छा का संबंध
मनुष्य दुखी है। इच्छाएं अनंत हैं। वह इनकी पूर्ति के लिए कर्म करता है। कर्म उसे बांधते हैं। बंधन ही दुख है। मुक्ति है आनंद। मनुष्य सोचता है , मैंने यह किया। मुझे यह मिला। मैंने जितना किया , उतना नहीं मिला। उसने कम किया , उसे ज्यादा मिला। असल में किए गए काम के फल की इच्छा हमारा स्वभाव है। फल की कामना होती ही है। यह कामना ही प्रेरक है। फल की कामना न हो तो फिर काम करने का मतलब ही क्या है ? फल की इच्छा मन का स्वभाव है। यही इच्छा काम करवाती है। इसीलिए कर्म करने के प्रत्येक क्षण में फल की इच्छा मौजूद रहती है। सवाल यह है कि काम आखिरकार है क्या ? और फल क्या है ?
विज्ञान के सिद्धांत के मुताबिक ऊर्जा नष्ट नहीं होती। प्रत्येक काम से ऊर्जा पैदा होती है। यह ऊर्जा रूप बदलती है। भिन्न-भिन्न रूपों में प्रकट होती है , पर किया हुआ काम (वर्क डन) कभी व्यर्थ नहीं जाता। प्रत्येक कार्य का कोई न कोई परिणाम तो होता ही है , लेकिन भारतीय परंपरा केवल काम को ही फल का कारण नहीं मानती। गीता कार्य सिद्धि के कारक बताती है: पहला अधिष्ठान , दूसरा कर्त्ता , तीसरा कर्म और चौथा प्रयास। यहां अधिष्ठान से मतलब कार्यक्षेत्र से है। लेकिन ये चार घटक भी कार्य सिद्धि के लिए काफी नहीं हैं। कृष्ण ने अर्जुन से कहा कि पांचवां कारक है दैव। कुछ लोग इसे तकदीर या किस्मत कहते हैं। हिंदू परंपरा इसे भाग्य कहती है। भाग्य विराट संभावना का प्रतीक है। भाग्य या दैव का मतलब है ब्रह्मांडीय हस्तक्षेप।
' ईशावास्योपनिषद ' भारतीय ज्ञान , कर्म और दर्शन की अनूठी प्रतीति है। मात्र तीन दर्जन पंक्तियों में भारतीय प्रज्ञा का सहस्त्र आयामी प्रकाश पुंज। भारतीय मनीषा का सार। इसके दूसरे मंत्र में कहा गया ' कुर्वन्नेह कर्माणि जिजीविषेच्छंत समा:। ' यानी हम काम करते हुए सौ बरस तक जिएं। यहां 100 बरस के पूर्णजीवन की कामना है , पर है सशर्त। यह शर्त भी ऐरी-गैरी नहीं है। प्रतिक्षण , प्रतिपल कर्म करते हुए जीने की शर्त।
भारतीय मनीषा ने काम करने की इच्छा की भी बड़ी प्रीतिकर व्याख्या की। आखिर लोग क्यों काम करते हैं ? शास्त्र कहते हैं , ' अर्थार्थ प्रवर्तते लोक:! ' कोई न कोई अर्थ लेकर ही लोग काम करते हैं। तब अर्थ क्या है ? इसका जवाब है ' अर्थ्यते इति अर्थ: ,' हम जिसे चाहते हैं , वही अर्थ है। मनुष्य की ' चाहना ' ही अर्थ है। चाहना यानी मानवीय अभिलाषा को भी समझना जरूरी है। पहली है धन की इच्छा क्योंकि धन , भोग सामग्री का साधन है। उसके बाद है पुत्रैषणा। हमारा वंश बढ़े। मनुष्य मरकर भी अपना जीवन प्रवाह जारी रखना चाहता है। फिर है लोक सम्मान की इच्छा। मोटामोटी सारे मनुष्य , धन और ऐसी ही कामनाओं की पूर्ति के लिए ही काम करते हैं। कामनाएं कर्म कराती हैं। कर्म बांधते हैं। मनुष्य दुखी हैं।
उपनिषद के इसी मंत्र की दूसरी पंक्ति बताती है कर्म बंधन से मुक्ति का मार्ग। हिंदू जीवन रचना में कर्मबंधन से मुक्ति एक विराट लक्ष्य है। काम भी करना , लेकिन काम के बंधन से मुक्त भी रहना है। लेकिन कर्मबंधन से अलिप्त रहना आसान नहीं है , यह एक कठोर साधना है। शंकराचार्य ने संसार की व्याख्या में कहा , ' कर्त्तापन और भोक्तापन ही संसार है। ' मैं कर्त्ता हूं। मैं ही भोक्ता हूं। काम करना और फल पाना संसार की रीति है। शुभकर्म , शुभफल। अशुभ कर्म , अशुभ फल। वेद-उपनिषद काल के ऋषि कर्त्ता रहे , पर कर्त्तापन का भाव नहीं आया। कर्त्तापन के अभाव से ही भोक्तापन का भी अभाव आया। मनुष्य को कर्म तभी लिप्त करते हैं , जब उसमें ' मैं ' का भाव आता है। फिर ' कर्त्तापन ' का भाव आता है। फिर फल इच्छा का तनाव आता है। मैं न हो , कर्त्तापन न हो तब गीता का ' मा फलेषु कदाचन ' घटित होता है। ऐसे कर्म नि:श्रेयस की तरफ ले जाते हैं। नि:श्रेयस , बूंद से समुद का रूपांतरण है। मैं का विसर्जन ही विराट ' हम ' बनता है। यही भारतीय जीवन साधना का आदर्श है।
महाभारत में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को फल की इच्छा के त्याग का सूत्र समझाया। फल इच्छा ही व्यक्ति को बांधती है। फल व्यक्ति की इच्छा से मिलते भी नहीं। समूची भगवत्ता/ परमसत्ता/ सर्वसत्ता/ टोटेलिटी विश्व की प्रत्येक गतिविधि में प्रतिक्षण प्रतिपल भागीदार रहती है। व्यक्ति के कर्मों में भी टोटेलिटी की भागीदारी होती है। समूची सृष्टि एक जीवमान ऑर्गेनिक संरचना है। सृष्टि का कोई भी कण स्वतंत्र इकाई नहीं है। कर्म करते हुए कर्मबंधन से मुक्ति का भाव इसी अनुभूति से आता है।

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