भाद्रपद शुक्ल चतुर्दशी को अनंत चतुर्दशी का पर्व मनाया जाता है। इस वर्ष यह पर्व 08 सितंबर यानी सोमवार को है। इस दिन भगवान विष्णु की पूजा करते हुए भक्तगण लौकिक क्रिया कलापों से मन हटा कर ईश्वर भक्ति में डूब जाते हैं। वह वेद मंत्रों का जाप करते हैं। कलश पर अष्टदल कमल के समान बने बर्तन में कुशा से निर्मित अनंत की स्थापना करते हैं। इसके पास कुंकुम, केसर, या हल्दी रंजित चौदह गाठों वाला अनंत भी रखा जाता है।
इस डोरे का पूजन कर अपनी दाहिनी भुजा में पहना जाता है। यह डोरा भगवान विष्णु को प्रसन्न करने वाला और अनंत फलदायक माना गया है। यह व्रत दरअसल पुत्रादि की कामना के लिए किया जाता है। इस दिन नवीन सूत्र के अनंत को धारण कर पुराने को त्याग देना चाहिए।
व्रत की कथा
एक बार महाराज युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ किया। यज्ञमंडप का निर्माण सुंदर था। वहां जल में स्थल और स्थल में जल होने का भ्रम पैदा होता था। उस यज्ञ-मंडप में घूमते हुए दुर्योधन इसी तरह के भ्रम के शिकार होकर तालाब में गिर गए। यह देख कर द्रौपदी ने दुर्योधन को अंधों की संतान अंधी कहकर उपहास किया।
इससे दुर्योधन चिढ़ गया। उसके मन में द्वेष पैदा हो गया। उसने जुए में पांडवों को हराकर बारह वर्ष का वनवास और एक वर्ष के अज्ञातवास के लिए भेज दिया। वनवास में पांडवों को कई कष्ट सहने पड़े। तब श्रीकृष्ण ने कहा कि धर्मराज तुम अनंत भगवान का व्रत करो। इससे तुम्हारे सारे संकट दूर हो जाएंगे।
तब श्रीकृष्ण ने इस संदर्भ में एक कथा सुनाई। प्राचीन काल में सुमन्तु नाम के ब्रह्मण की सुशीला नाम की कन्या थी। ब्राह्मण ने उसका विवाह कौण्डिय ऋषि से कर दिया। कौण्डिय ऋषि एक बार अपनी पत्नी सुशीला के साथ अपने आश्रम में लौट रहे थे। यात्रा के दौरान रात होने पर वे एक नदी के तट पर रुक गए।
तब सुशीला ने देखा कि वहां पर बहुत सी स्त्रियां सुंदर वस्त्र धारण कर विधिपूर्वक किसी देवता की पूजा कर रही हैं। सुशीला के पूछने पर उन महिलाओं ने अनंत व्रत के बारे में उन्हें बताया। सुशीला ने वहीं उस व्रत का अनुष्ठान करके चौदह गांठो वाला डोरा बांधा और अपने पति के पास आ गई।
कौण्डिय ऋषि ने सुशीला से उस डोरे के बारे में पूछा तो सुशीला ने सारी बात बता दी। ऋर्षि को गुस्सा आ गया और उन्होंने उस डोरे को तोड़कर नदी में फेंक दिया। इसके कारण उन पर दुख का पहाड़ दूट पड़ा। तब निराश होकर उन्होंने पश्चाताप किया और विधिपूर्वक चौदह वर्ष तक अनंत चतुर्दशी का व्रत किया। इससे उनको सारे क्लेशों से मुक्ति मिली और फिर से उनके घर खुशियों आ गईं। श्रीकृष्ण ने यह कहानी सुनाते हुए युधिष्िठर को भी यही व्रत करने की सलाह दी। इसके प्रभाव से पांडव महाभारत के युद्ध में विजयी हुए और चिरकाल तक निष्कंटक राज्य करते रहे।
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